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शिष्य – भाव

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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शिष्य – भाव
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संसार के विषयों का ज्ञान तभी हो सकता है जब जिज्ञासु में ज्ञान ग्रहणकरने की क्षमता हो । जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य किसी गणितज्ञ के पास किसी प्रश्नको लेकर जावे ; तो गणितज्ञ उससे पूछेगा कि " तुम्हारी योग्यता क्या है ? " क्योंकि हो सकता है कि पूछने वाले को समझाने पर भी समझमें न आवे । अतः पहले अधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता है ।

नारायण! इसी प्रकार " नारद ऋषि " साधन- चतुष्टय सम्पत्ति से युक्त होकर ब्रह्म - विद्या का ज्ञान लेने ब्रह्मऋषि भगवान्  श्री सनत्कुमार के समीप गये । सर्वत्र नियम है कि जिज्ञासु के सामने केवल उतनी बातही कहे जितनी उसकी समझ में आ सके अर्थात् वह ग्रहण कर सके । देवर्षि नारद ने वेद - वेदाङ्ग इतिहास पुराणादि एवं समस्त लौकिक विद्याओं के अध्ययन करने का परिचय दिया ।किन्तु इतना अध्ययन करने के पश्चात् भी उन्हें ब्रह्म - ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई । अतः विधिवत् अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने प्रार्थना की कि" भगवन् ! आप - जैसे महानुभावों से मैंने सुना है कि -" तरति शोकम् आत्मवित् । " आत्मवेत्ता ही शोक के पार जाता है ओर मेरा शोक अभी तक दूर नहीं हुआ । अतः हे भगवन् !  मुझेइस शोकसमुद्र से पार लगाइये । "

नारायण ! इससे सिद्ध होता है कि लौकिक विद्या के अध्ययन मात्र से मन कादुःख दूर नहीं किया जा सकता है । सब विद्यायें जानने के पश्चात् भी ब्रह्म -विद्या प्राप्त करना आवश्यक है । बिना ब्रह्म - विद्या प्राप्त किये कुछ हाथ नहींआता है । गाना और वाद्य सुनाकर केवल पारितोषिक के अतिरिक्त और कुछ प्राप्ति की संभावना नहीं है । इसी प्रकार अन्य लौकिक विद्याओं को जान लेने से उपाधियाँ एवंप्रचुर धनराशि प्राप्त की जा सकती है किन्तु इससे मोक्ष प्राप्त नहीं की जा सकती । यदि परम तत्त्व को न जाना तो शास्त्राध्यन निष्फल हो गया।
नारायण! केले का पेड़ एक बार ही फल देता है ; किन्तु उसी वृक्ष की जड़ से दूसरा वृक्ष उगने पर फलित होता है । इसी प्रकार ब्रह्म - ज्ञान शिष्यपरम्पराके द्वारा फल आगे बढ़ाता जाता है ; किन्तु फल एक बार ही मिलताहै ! जब तक ब्रह्म - ज्ञान रूपी फल नहीं लगेगा तब तक जन्म - मरण का चक्र चलता ही रहेगा । जैसे रोगी होने पर बड़ें से बड़े इंजीनियर को एक सामान्य डॉक्टर को सुपुर्दकरना पड़ता है , ठीक इसी प्रकार ब्रह्म - विद्या के मामले मेंश्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ के संमुख  आत्मसमर्पण करना पड़ेगा ।
विद्या के अभिमान का परित्याग सत्पुरुष के लिये आवश्यक है । नारद ने जितनी विद्या अर्जित की थी उतनी सामान्यतः कोई एक मनुष्य एक जन्म में कर ही नहीं सकताफिर भी उनमें उसका गर्व नहीं था ,वे विनयपूर्वक ही श्री सनत्कुमारजी की शरण गये थे । इससे साधक को यह शिक्षा मिलती है कि अपनी विद्या का अभिमान  त्याग कर ब्रह्मनिष्ठ की शरण ले ।

नारायण ! " विद्या विनयं ददाति " जो विद्या विनय न दे ,समझ लें का वह अविद्या है और जिस विद्यालय में उद्दण्डता तथा अभिनयहै वह अविद्यालय है । प्राचीन काल में शास्त्रार्थ द्वारा योग्यता का परिज्ञानहोता था । एक बार एक पंडित भारत के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करता हुआ मथुरापहुँचा । वहाँ जाकर उसने घोषणा की कि " मुझ से कोई विद्वान् शास्त्रार्थ कर ले । मैंने भारतवर्ष के बड़े - बड़े पंडितों को शास्त्रार्थमें परास्त किया है एवं अनेक प्रमाणपत्र प्राप्त किये हैं । " मथुरा के विद्वान् पंडितों ने कहा " यदि आपवृन्दावन के सनातन गोस्वामी को परास्त कर लेंगे तो हम सब बिना शास्त्रार्थ किये ही अपनी पराजय स्वीकार कर लेंगे । " इस प्रकार का आश्वासनपाकर पंडित – प्रवर मध्याह्न काल से कुछ पूर्व हीवृन्दावन पहुँच गये । उन्होंने वहाँ सनातन गोस्वामी को यमुना के तट पर जाकर ढूँढ़लिया। गोस्वामी जी यमुना जी के पवित्र जल में स्नान करने के लिये प्रवेश ही कररहे थे कि पंडित जी ने उन्हें आवाज़ दी । गोस्वामी जी दोपहर के समय ब्राह्मण अतिथि को देख कर बड़ें प्रसन्न हुये और कहा " महाराज ! मैं स्नान करने के पश्चात् ही अभी आपकाआतिथ्य सत्कार करूँगा । आज मैं आपके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझ रहा हूँ ।" पंडित जी ने कहा " मैं आपसे शास्त्रार्थ करने आया हूँ । मैंनेदिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया है । या तो आज मुझ सेशास्त्रार्थ करें या अपनी पराजय स्वीकार करने का प्रमाणपत्र दे । मैं प्रतीक्षानहीं कर सकता । "  सनातन गोस्वामी जी बड़े महान् विद्वान् और उच्चकोटि के सन्त थे । उनहोंने कहा , " बस इतनी - सी बात के लिये आप चिन्तित क्यों हैं ? लाइये मैं अभी प्रमाणपत्र देकर अपनी पराजय बिना शास्त्रार्थ किये ही स्वीकार करता हूँ । " ऐसा कहकर शीघ्र ही प्रमाणपत्र पर अपने हस्ताक्षर करदिये और पंडित जी से आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया ।
नारायण! बिना ही शास्त्रार्थ किये प्रमाणपत्र पाकर पंडितप्रवर अपनी विजय पर बड़े हर्ष कोप्राप्त हुये और शीघ्र ही वहाँ से मथुरा को चल दिये । मार्ग में सनातन गोस्वामी के भतीजे एवं शिष्य " रूप गोस्वामी " की पंडित जी से भेंट हो गई ।  रूप गोस्वामी ने पंडित जी का अभिवादन किया और नम्रतापूर्वक उन्हें आश्रम चलने के लिये कहा । क्योंकि वे समझते थे कि पंडित जीबिना ही भोजन किये हुये दोपहर के समय जा रहे हैं । पंडित जी ने बड़े गर्व से कहा" मैं यहाँ भोजन करने नहीं शास्त्रार्थ करने आया था और सनातनगोस्वामी से अपनी विजय का प्रमाणपत्र लेकर शीघ्र ही वापस जा रहा हूँ ।" रूप गोस्वामी जी भी बड़े प्रकाण्ड पंडित थे ; उन्होंने वेद - वेदाङ्ग का भली भाँती अध्ययन किया था , प्रमाणपत्र पर सनातन  गोस्वामी जी के हस्ताक्षर देखकर स्तब्ध रह गयेऔर पंडित जी से पूछने लगे " क्यागोस्वामी जी ने आप से यथार्थ में शास्त्रार्थ किया है ? अथवा बिना ही शास्त्रार्थ किये उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली ? " पंडित जीने उत्तर दिया " मुझ से वेक्या शास्त्रार्थ करते ; उन्होंने बिना ही शास्त्रार्थ किये अपनी पराजय स्वीकार करके मुझे प्रमाणपत्र लिख दिया ।"

श्रीरूप गोस्वामी जी से रहा नहीं गया । वे इस अपमान को न सह सके और पंडित जी से स्वयंशास्त्रार्थ करने को प्रस्तुत हुये । पंडित जी तो गर्व से उन्नत सिर किये तैय्यार ही थे , दोनों वहीं एक पेड़ के नीचे जम कर बैठ गये । शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ और अन्त में रूप गोस्वामी की विजय हुई । पंडित जी सेउन्होंने सनातन गोस्वामी द्वारा दिया हुआ प्रमाणपत्र तथा समस्त विजय पत्रों को लेलिया और भिक्षा के अन्न को लेकर सनातन गोस्वामी के पास पहुँचे । सनातन गोस्वामी देर से उन्हें आया हुआ देखकर ताड़ गये कि अवश्य ही इसके देर से आने में कोई विशेषकारण है । पूछने पर ज्ञात हुआ कि उसी पंडित को वे शास्त्रार्थ में पराजित करके आयेहै जो कुछ समय पूर्व सनातन गोस्वामी से अपनी विजय  काप्रमाण पत्र लेकर गया था । रूप गोस्वामी ने वे समस्त प्रमाण पत्र भी उनके समक्षप्रस्तुत किये जो उन्होंने पंडित जी से शास्त्रार्थ में विजय के पश्चात् प्राप्तकिये थे ।

नारायण ! सनातन गोस्वामी जी ने कहा " अब  तुम्हारा यहाँ कोई कार्य नहीं । यदि तुम्हें ऐसा ही करना था तो इतना त्याग करने केपश्चात् आत्म - विद्या की प्राप्ति के लिये तुम्हें यहाँ आने की क्या आवश्यकता थी ? ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारे अन्दर विद्याभिमान काअंकुर प्रस्फुटित हो चुका है एवं तुम्हारे अंतःकरण में वासनायें अभी तक विद्यमानहै । आज तुमने एक गरीब ब्राह्मण के स्वाभिमान को नष्ट करके बड़ा अनर्थ किया है । येप्रमाणपत्र ही उसकी जीविका के साधन थे । मेरे पास से क्या गया था ? मैंने हस्ताक्षर ही तो कर दिये थे ; किन्तु वह तो इन प्रमाणपत्रों को दिखा कर किसी राजा सेसम्मान प्राप्त करता तथा धन एवं पारितोषिक पाकर अपने परिवार का पालन करता , कन्याओं के विवाहादि करता । "

नारायण! रूप गोस्वामी ने लज्जा से सिर झुका लिया और गुरु के चरणों में आत्मसमर्पण करदिया , " मुझे क्षमा कीजिये । भगवन् ! मुझसे बड़ी भूलहुई । " सनातन गोस्वामी जी ने  उत्तर दिया" यदि तुम इस अपराध का प्रायश्चितकरना चाहते हो तो शीघ्र जाओ और उस ब्राह्मण से क्षमा यचना करो एवं ये समस्त प्रमाणपत्र उसे वापस कर दो । " रूप गोस्वामी दौड़ते हुये गये । यद्यपि पंडित जी काफी दूर निकल गये थे तथापि उन्होंने पंडित जी को पकड़ ही लिया और उनके चरणों में मस्तक टेक दिया तथा उनके समस्त प्रमाणपत्र उनको वापस दे दिये । पंडित जी आश्चर्य चकित रह गये । क्षणभरके पश्चात् ही उनके ज्ञानचक्षु खुल गये । अन्त में पंडित जी अपने गृह को न जाकररूप गोस्वामी के साथ ही सनातन गोस्वामी के समीप आये और उनके चरणों पर गिर पड़े ।तत्पश्चात् उन्हीं की शरण में रह कर आत्मविद्या का उपदेश ग्रहण किया ।

नारायण! विद्याभिमानी ब्रह्म - विद्या को नहीं प्राप्त कर सकता है । लोभ , ऐश्वर्य , मर्यादा . यश , प्रतिष्ठाइत्यादि सांसारिक विद्या से प्राप्त होते हैं । जब तक विद्या का गर्व रहता है तबतक ब्रह्मविद्या प्राप्ति की संभावना नहीं । कुल - अभिमान , जाति- अभिमान , विद्याभिमान इत्यादि ब्रह्मविद्या के विरोधी हैं। तत्त्वदर्शन के लिये सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता है । बुद्धि सारे शास्त्रों में विचरण कर चाहे जितनी  तीक्ष्ण हो जाये , औपनिषद् गुरुपदेश के बिना अकेली बुद्धि से ब्रह्म -विद्या का ज्ञान नहीं हो सकता है । यह अत्यन्त सूक्ष्मतम विषय है। अतः ब्रह्मविद्या का अधिकारी बनने की आवश्यकता है और यह अधिकार सूक्ष्म बुद्धि द्वाराही संभव है ।

नारायण ! भक्ति मार्ग में श्रद्धा , विश्वास तथा प्रेम की आवश्यकता है । कर्मयोगमें कर्म करने की प्रवृत्ति तथा सामान्य ज्ञान की आवश्यकता है । किन्तु ब्रह्मज्ञानमें अष्टांग योग की भी आवश्यकता है । बुद्धि में निर्मलता प्राप्त करने के लियेनिदिध्यासन की आवश्यकता है एवं ईश्वर प्राप्ति के लिये भक्ति की आवश्यकता है ।ऊपरोक्त सभी साधनों में गुरु - कृपा नितान्त आवश्यक है । गुरु का प्रयोजन है किशिष्य के दुःख की हेतुभूत अविद्या को मिटा देना । यद्यपि गुरुकृपा से इह - लोक वपरलोक के असंख्य फल मिल जाते हैं तथापि उनकी प्राप्ति से गुरु - लाभ का प्रयोजनसिद्ध नहीं होता ।  शिष्य की अविद्या दूर हो तभी गुरु मिलना सार्थक है ।

                                                                 नारायण स्मृतिः


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