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Showing posts from December, 2013

शिष्य – भाव

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! ══════════ शिष्य – भाव ══════════ संसार के विषयों का ज्ञान तभी हो सकता है जब जिज्ञासु में ज्ञान ग्रहणकरने की क्षमता हो । जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य किसी गणितज्ञ के पास किसी प्रश्नको लेकर जावे ; तो गणितज्ञ उससे पूछेगा कि " तुम्हारी योग्यता क्या है ? " क्योंकि हो सकता है कि पूछने वाले को समझाने पर भी समझमें न आवे । अतः पहले अधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता है । नारायण! इसी प्रकार " नारद ऋषि " साधन- चतुष्टय सम्पत्ति से युक्त होकर ब्रह्म - विद्या का ज्ञान लेने ब्रह्मऋषि भगवान्  श्री सनत्कुमार के समीप गये । सर्वत्र नियम है कि जिज्ञासु के सामने केवल उतनी बातही कहे जितनी उसकी समझ में आ सके अर्थात् वह ग्रहण कर सके । देवर्षि नारद ने वेद - वेदाङ्ग इतिहास पुराणादि एवं समस्त लौकिक विद्याओं के अध्ययन करने का परिचय दिया ।किन्तु इतना अध्ययन करने के पश्चात् भी उन्हें ब्रह्म - ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई । अतः विधिवत् अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने प्रार्थना की कि" भगवन् ! आप - जैसे महानुभावों से मैंने सुना है कि -" तरति ...

" दुःखी कौन ? "

सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र !! श्री आचार्य सुरेश्वर चरणकमलेभ्यो नमः !! ════════════ " दुःखी कौन ? " : ════════════ प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् " : " दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । " { नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 76 } वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धः नामक ग्रन्थ में कहते है - " दुःखि यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । " कितनी सुन्दर बात हमारे आचार्य जी कह रहे हैं - यदि आत्मा दुःखी होता , तो " मैं दुःखी हूँ " या " मैं दुखी था " - इसका गवाह कौन है ? इसका साक्षी कौन है ? क्योंकि , किसी वस्तु की सिद्धि दो तरह से होती है । अदालत में मुकदमा जाये तो जज को दो चीज चाहिए - एक तो लिखन्त दस्तावेज हो और दूसरे , गवाह { साक्षी } चाहिए । शास्त्र तो दस्तावेज हैं , निर्णय करने के लिए लिखित प्रमाण है और फिर साक्षी भी चाहिए । तो, देखिए मेरे भाई , यदि दूसरे के बारे में कोई बात जाननी हो तो जैसी लिखी हो , वैसा मानना पड़ेगा और अपने बारे में कोई बात जाननी हो तो वहाँ स्वानुभू...

द्विविध भ्रम

भ्रम होने पर भी प्रवृत्ति सफल हो जाये तो भ्रम कोसंवादी कहते है तथा प्रवृत्ति विफल रहे तो भ्रम विसंवादी होता है । दीपक में मणिका भ्रम हो तो निकट जाने पर भी मणिलाभ न होने से भ्रम विसंवादी है किन्तु मणि -प्रभा में मणि का भ्रम हो तो निकट जाने से मणि मिल जाती है अतः भ्रम संवादी है ।इसी प्रकार शास्त्रानुसार आत्मतत्त्व को परोक्ष समझना भ्रम तो है लेकिन उस ज्ञानपर निष्ठा रहे तो क्यैंकि जिसके बारे में वह ज्ञान है वह वास्तव में आत्मा ही हैइसलिये उस पर एकाग्र रहने से यथोपदेश उसकी अपरोक्षता भी समझ सकना सुसम्भव है जिससेउसे संवादी भ्रम के स्थानापन्न समझना उचित है । अखण्ड आत्मा से अन्य नाम - रूपोंके ध्यानों को विसंवादी भ्रम मानना पड़ता है क्योंकि वास्तविक आत्मतत्त्वनामरूपात्मक है नहीं । अखण्ड तत्त्व की उपासना में यह वृत्ति नहीं बनायी जाती किआत्मा परोक्ष है ! वृत्ति तो यही बनाते हैं कि वह अपरोक्ष है किन्तु अपने मेंसामर्थ्य न होने से अपरोक्षता का अनुभव नहीं होता । शास्त्र श्रद्धा से वह ज्ञानप्रमारूप तो माना ही जाता है अतः यदि उसका विरोधी कोई ज्ञान न आये तो फलतः वहप्रमा ही रहेगा क्योंकि ...