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द्विविध भ्रम

भ्रम होने पर भी प्रवृत्ति सफल हो जाये तो भ्रम कोसंवादी कहते है तथा प्रवृत्ति विफल रहे तो भ्रम विसंवादी होता है । दीपक में मणिका भ्रम हो तो निकट जाने पर भी मणिलाभ न होने से भ्रम विसंवादी है किन्तु मणि -प्रभा में मणि का भ्रम हो तो निकट जाने से मणि मिल जाती है अतः भ्रम संवादी है ।इसी प्रकार शास्त्रानुसार आत्मतत्त्व को परोक्ष समझना भ्रम तो है लेकिन उस ज्ञानपर निष्ठा रहे तो क्यैंकि जिसके बारे में वह ज्ञान है वह वास्तव में आत्मा ही हैइसलिये उस पर एकाग्र रहने से यथोपदेश उसकी अपरोक्षता भी समझ सकना सुसम्भव है जिससेउसे संवादी भ्रम के स्थानापन्न समझना उचित है । अखण्ड आत्मा से अन्य नाम - रूपोंके ध्यानों को विसंवादी भ्रम मानना पड़ता है क्योंकि वास्तविक आत्मतत्त्वनामरूपात्मक है नहीं । अखण्ड तत्त्व की उपासना में यह वृत्ति नहीं बनायी जाती किआत्मा परोक्ष है ! वृत्ति तो यही बनाते हैं कि वह अपरोक्ष है किन्तु अपने मेंसामर्थ्य न होने से अपरोक्षता का अनुभव नहीं होता । शास्त्र श्रद्धा से वह ज्ञानप्रमारूप तो माना ही जाता है अतः यदि उसका विरोधी कोई ज्ञान न आये तो फलतः वहप्रमा ही रहेगा क्योंकि  अबाधित सत्य ज्ञान प्रमा ही होता है ।

नारायण! भ्रम के ये भेद समझने बड़े जरूरी है । भ्रम होने पर भी कोई हितकारी है , कोई बेकार का या अनर्थकारी भी है । विष्णु शङ्करादि को परमात्मा समझनाहितकारी भ्रम है और शास्त्र छोड़कर चाहे चाहे जिसे ईश्वर समझे तो हित नहीं वरन्अहित ही होगा । एक आदमी ने किसी महात्मा से पूछा " महाराज! सबसे बड़े भगवान् कौन हैं ? मैं उसकी पूजा करूँगा ।" महात्मा ने शास्त्रीय निर्णय समझा दिया कि शिव जी ही सबसेबड़े हैं और अनेक कथा - आख्यानों से इसे पुष्ट भी कर दिया । वह व्यक्ति पूजा करनेलगा । कुछ दिनों बाद पूजा करते समय उसने देखा कि शिवलिङ्ग पर रखा प्रसाद चूहा खारहा है ! उसने सोचा " शिवजी से तो यह चूहा ही तगड़ा है! उन पर चढ़कर मिठाई खा रहा है , वे इसे रोक भीनहीं पा रहे । " उसने शिवजी को छोड़ कर उस चूहे को हीपूजना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन बिल्ली चूहे पर झपटी तो चूहा डरकर भागा । भक्त नेनिर्णय किया कि बिल्ली उससे भी बड़ी भगवान् है और वह बिल्ली पूजने लगा । कुछ दिनोंबाद देखा कि उसकी पत्नी दण्डा दिखाकर डपटती है तो बिल्ली दुबक जाती है ! वह समझगया कि बिल्ली से भी बड़ी भगवान्  उसकी पत्नी ही है ! वह पत्नी पूजक बन गया ।पूजा पाते - पाते स्त्री सिर चढ़ गयी । एक दिन पति को गुस्सा आया और उसने पत्नी कोतमाचा मारा तो बेचारी रोने लगी । उस आदमी ने सोचा " अरे ! इससे तो मैं ही बड़ा भगवान् हूँ ! व्यर्थ ही इतनेदिन औरों को पूजता रहा ! " वहस्वयं को ही ईश्वर मानने लगा । शास्त्र छोड़कर अगर चले तो भटकते ही रह जाओगे , शिवपूजा की जगह खुद को पूजने लगोगे । किन्तु यदिशास्त्र का अनुसरण किया तो भ्रम को भी हितकारी बना सकते हो ।

नारायण! जब उन महात्मा जी को पता चला कि उनका शिष्य स्वयं ईश्वर बन बैठा है तो वे पुनःउससे मिले । उन्होंने पूछा " तू ईश्वर है ?" वह बोला " हाँ । "" तेरी सारी इच्छाएँ तत्काल पूरी होती हैं ? " वह सोच में पड़ गया । महात्मन् ने पूछा " तूहमेशा रहता है ? " बह क्या बोलता ! महात्मा बोले" जीवित दशा में भी क्या तू सदा एक - सा है ? जैसा जाग्रत् में है क्या वैसा ही स्वप्न में होता है ? सुषुप्ति में तेरा क्या स्वरूप रहता है ? " बाकीउपाधियों से तो उसका भाव हट चुका था , स्वयं की उपाधि का जबइस प्रकार महात्मा ने विवेक कराया तब वह धीरे - धीरे त्वम्पदार्थ का वास्तविक रूप  समझगया । अतः गलत अनुभव तो भी शास्त्र के अनुसरण से सही ज्ञान का उपाय बनाया जा सकताहै और सही बात भी , यदि शास्त्र- विरुद्ध ढंग से चलने लगे तो गलत जगह पहुँचा देगी जैसे उस व्यक्ति को" सबसे प्रबल हैं " यो शिवजी की महत्ता तो सही ही बतायी थी परप्रबलता के मनमाने अर्थ से वह नास्तिक - सा बन गया जबकि देह - मन से परिच्छिन्नस्वयं को ईश्वर समझना बात गलत है पर उसी स्वयं की परीक्षा से वह आत्मतत्त्व तकपहुँच गया । अतः भ्रम के संवादी - विसंवादी भेद समझना बड़ा ही जरूरी है , शास्त्रानुसार ही विचार में प्रवृत्त होना भीजरूरी है ।
नारायण ! संसार अपरोक्ष दीख रहा है । अतः" अपरोक्ष ज्ञान " द्वारा ही इसका बाध होता है । सत्संग मेंपरमेश्वर का जो स्वरूप समझो उसी का ध्यान करते रहो । इससे परोक्ष ज्ञान तो होजायेगा पर वह संसार भ्रम नहीं मिटा पायेगा । सारे अनर्थ के मूल इस अज्ञान को तोअपरोक्ष अखण्ड साक्षात्कार ही दूर कर सकता है जो साधन - सम्पत्ति कीपुष्कलतापूर्वक श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ से वेदान्तों के श्रवणादि से ही संभव है ।निर्विशेष - उपासना करते रहने से निर्विशेष समझना सरल अवश्य हो जाता है ।

नारायण ! आत्मविद्या की प्राप्ति में साधक और बाधक का ज्ञान आवश्यक है , बाधकों से बचना पड़ेगा । अग्नि जलाने के लिये दियासलाई , मिट्टी का तेल , लकड़ी , चिथड़े साधक हैं ; किन्तुपानी इत्यादि बाधक हैं ;हवा के प्रकोप अथवा अभाव मेंअग्नि प्रज्वलित नहीं होती । आत्म - ज्ञान में शम दमादि साधक हैं और लय - विक्षेप- कषाय - रसास्वाद बाधक हैं । लय - नींद आना । नींद से बचने के लिये टहलना चाहिये।क्योंकि ये प्रतिबँधक क्रमशः एक - दूसरे से सूक्ष्म हैं , इसलिये इन्हें एक - एक कर जीतना पड़ेगा । एक को संभालतेसमय दूसरे की चिन्ता मत करें । किन्तु इससे वह विक्षेप की ओर ले जायेगा ; तब उसे शान्त करें । विक्षेप के बीज जो कषाय हैंउन्हें विवेक से निस्तेज किया जाये । समाधि में जो सुख है उसे विषयरूप ग्रहण करनेका जो मजा है उससे बचा जाये ,वहाँ रसास्वाद मत लें ।

जिसप्रकार भगवान् श्री बद्री नारायण की चढ़ाई में एक के बाद दूसरी पर्वत श्रेणी पारकरनी हो तो कभी ऊँचा चढ़े फिर उतना ही नीचे उतरें , इसीप्रकार परमात्म - प्राप्ति में बाधक भी कोई ऊँचे हैं , जैसेसमादि का रसास्वाद , और कोई नीचे हैं , जैसे लय , सभी को पार करना  हीपड़ता है । जब नींद भी नहीं , विक्षेपभी नहीं , कषाय भी नहीं ,रसास्वाद भी नहीं तब आनन्द का स्फुरणहोने लगता है । इस महान् आनन्द के लिये रसास्वाद के लोभ से बचना जरूरी पर मुश्किलहै । मारवाड़ में जिसे बून्द - बून्द पानी के लिये तरसना पड़ता है उसे आप गंगा जीदिखाकर कहें " इनके चक्करमें मत पड़ो , तुम्हें समुद्र तकले चलते हैं " तो वह धैर्यनहीं रखेगा , गंगा में ही उतरजायेगा । चींटी को शक्कर का गोदाम मिल जाये तो चीनी फैक्ट्री तक जाने का धैर्यनहीं रख सकती । इसी तरह साधक व्यापक आनन्द के लिये समाधि के अतिसात्त्विक सुख कोछोड़ नहीं पाता , किन्तु यह आनन्दही प्रतिबंधक है । बहुत से साधक यहाँ आकर अटक जाते हैं । विषयाकर्षण छोड़ने पर भीयह रसास्वाद छोड़ना अतिकठिन और तीव्र विवेक से ही साध्य है । सुख लेते हैं तो सुखमें और लेने वाले में भेद है , अतःव्यापकता नहीं रही । सुखग्रहण का आरंभ भी अतः वह नित्य नहीं , प्रारंभ नहीं , समता है , चिन्ता नहीं , समाधिसुखमें ऐसे आनंद की काफी समानता तो है , लेकिन है वह परिच्छिन्न सुख ही । कपड़े की गुड़िया और बर्फ की गुड़िया समानहोती है पर समुद्र में डाल दें तो बर्फ वाली समुद्र ही हो जायेगी ,कपड़े वाली नहीं हो पायेगी । ऐसे हीतत्त्वनिष्ठा बर्फ की गुड़िया है जो आत्ममात्र रह जायेगी और समाधि का रस कपड़े कीगुड़िया है जो परिच्छिन्न ही रहेगा । ध्याता - ध्यान - ध्येय - तीनों से परे जानेपर ही अखण्डस्थिति होती है ।

नारायण ! परमहंस श्रीरामकृष्ण देव काली के उपासक थे । चिन्तन , जप , साधना के पश्चात् जो साक्षात्कार के लिये कोशिश करते हैं उनके प्रारब्ध सेस्वयं भगवान् पथप्रदर्शन करते हैं । एक बार स्वामी तोतापुरी वहाँ पहुँचे । श्रीरामकृष्ण देव का पूर्व नाम गधाधर था । उन्होंने विचारदृष्टि से देख लिया कि यहअच्छा साधक है । पूछा , " तेरी क्या साधना है ?" गदाधर ने कहा " महाराज !  मुझेइष्ट - दर्शन होता है । " वे बोले " इससे भी आगे बढ़ो । तुम में योग्यता भी है और आयु भी ।" आगे की साधना बतायी , संन्यास दीक्षा दी । वे अद्वैत तत्त्व काध्यान करने लगे ; लय , विक्षेप , कषाय का तो नाम भी नहीं था । किन्तु सब चित्तवृत्तियोंको एकाग्र करते तो भगवती सामने खड़ी हो जाती ! अखण्ड का दर्शन नहीं होता था । बार -बार प्रयत्न भी किया किन्तु उस आनन्द से आगे बढ़ नहीं पाये , आनन्द ही भगवती के रूप मेँ साक्षात् अनुभव होने लगा ।योग्य गुरु शिष्य को छोड़ता नहीं ।
नारायण ! श्रीरामकृष्ण देव जी के गुरुदेव श्री तोतापुरी जी ने धीरे - धीरे स्पष्ट किया कि विवेककी तलवार से देवी के भी नामरूप को सच्चिदानंदांश से पृथक् कर निस्तत्त्व समझना है। जैसे घट - पटादि में दृश्यांश बाह्य है ऐसे दिव्य विग्रहों में भी ; क्योंकि नाम - रूपता समान ही है । काली - विग्रह मेंइस विवेक का प्रयोग करने में गदाधर को बहुत कठिनाई हुई तो गुरु ने हठात् भ्रूमध्यमें उनका चित्त आकर्षित करने के लिये एक काँच ठोक दिया । उस स्थिति में जब सभी नाम- रूप ओझल होकर चिन्मात्र अनावृत हुआ तब परमहंस देव जी का प्रतिबंधक हटा ।
नारायण ! इस  प्रकाररसास्वाद को छोड़ना पड़ता है । आनन्द का स्फुरण होना अच्छा लगता रहे तो ब्रह्म कीप्राप्ति नहीं होती । पहले साकार उपासना करना आवश्यक है लेकिन अन्त में उसकापरित्याग करके ही निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति संभव है , जिस प्रकार नदी पार करने के पश्चात् नौका का सर्वथापरित्याग आवश्यक है । अतः विचार करने की आवश्यकता है । सारे प्रतिबंधकों से रहितहोने पर ही आत्मज्ञान शोक से परे पहुँचाता है।

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नारायण स्मृतिः
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साभार सर्वग्य शंकरेन्द्र प्रभु जी

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