∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 20 ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! याज्ञवल्क्य महामुनि ने विदेहवासी जनक जी के ब्रह्मसंसद में सभी ब्राह्मणों के सामने एक बड़ा ही विलक्षण प्रश्न रखा था कि हे ब्राह्मणों ! पुरुष { शरीर } और वृक्ष में यों बहुतेरी समानता है फिर भी एक महान् अन्तर है , उसका हेतु आप लोग बताइये । दोनों का यह भेद है कि वृक्ष कट जाये तब भी उसका दीखता हुआ मूल होता है उससे वृक्ष पुनः अंकुरित हो जाता है लेकिन शरीर कट जाये तो उसका कोई दीखने वाला मूल नहीं जिससे पुनः शरीर उग आता हो ! आख़िर शरीर का भी कोई मूल तो होना चाहिये । यह नहीं कह सकते कि " शुक्र " वह मूल है जिससे शरीर पैदा होता है । क्यों ? इसलिये कि जब तक शरीर कट नहीं गया है तभी तक शुक्र अवस्थित रहता है जबकि देह कटने से मेरा मतलब उस अवस्था से है जिसमें सारे ही कायों का अभाव हो जाता है । ऐसी सुषुप्ति या प्रलय में शुक्रधारक पिता आदि का शरीर तो मिलेगा नहीं जो मूल बन सके । अतः दृश्य कोई मूल निर्धारित होता नहीं । आप बातयें कि वृक्षतुल्य शरीर का - शरीर से उपलक्षित सारे जगत का मूल क्या है ?...