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Showing posts from October, 2017

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 20 ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 20 ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! याज्ञवल्क्य महामुनि ने विदेहवासी जनक जी के ब्रह्मसंसद में सभी ब्राह्मणों के सामने एक बड़ा ही विलक्षण प्रश्न रखा था कि हे ब्राह्मणों ! पुरुष { शरीर } और वृक्ष में यों बहुतेरी समानता है फिर भी एक महान् अन्तर है , उसका हेतु आप लोग बताइये । दोनों का यह भेद है कि वृक्ष कट जाये तब भी उसका दीखता हुआ मूल होता है उससे वृक्ष पुनः अंकुरित हो जाता है लेकिन शरीर कट जाये तो उसका कोई दीखने वाला मूल नहीं जिससे पुनः शरीर उग आता हो ! आख़िर शरीर का भी कोई मूल तो होना चाहिये । यह नहीं कह सकते कि " शुक्र " वह मूल है जिससे शरीर पैदा होता है । क्यों ? इसलिये कि जब तक शरीर कट नहीं गया है तभी तक शुक्र अवस्थित रहता है जबकि देह कटने से मेरा मतलब उस अवस्था से है जिसमें सारे ही कायों का अभाव हो जाता है । ऐसी सुषुप्ति या प्रलय में शुक्रधारक पिता आदि का शरीर तो मिलेगा नहीं जो मूल बन सके । अतः दृश्य कोई मूल निर्धारित होता नहीं । आप बातयें कि वृक्षतुल्य शरीर का - शरीर से उपलक्षित सारे जगत का मूल क्या है ?...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 19 ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 19 ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! महामुनि के जीभ पर आज भगवान् भुवनभास्कर आदित्य विराजमान हैं । महामुनि ने विदग्ध शाकल्य से कहा : हे शाकल्य ! तूने बहुत प्रश्न पूछे , मैं तो एक ही बार प्रश्न कर रहा हूँ ; मैंने तेरे सभी सवालों का जवाब दिया , तू भी मेरे सवाल का जवाब दे : जिस परम पुरुष का मैंने अभी वर्णन किया है उसे के बारे में पूछ रहा हूँ , बता वह कौन है , कैसा है?। यदि नहीं बता पायेगा तो अभी तेरा सिर कट कर ज़मीन पर गिर पड़ेगा ! तेरी मृत्यु अभी यहीं होने वाली है । यह जगह मृत्यु के लिये उचित हो ऐसी बात नहीं , क्योंकि विविध प्रकारों के लोगों की भीड़ वाला यह शहर है , कोई तीर्थ नहीं। समय भी अशुभ है - दक्षिणायन , कृष्ण पक्ष अमावस्या । तुझ दुर्बुद्धि के प्राण अब गये हुए ही हैं , तेरा सिर गिरने ही वाला है । तू मुझ जैसे परमात्मवेत्ता से अकारण अत्यन्त द्वेष करता है , इसलिये तेरी हड्डियाँ भी तेरे घर नहीं पहुँच पायेंगी ! तेरी मिट्टी भी बिगड़ेगी । यहाँ जलाकर तेरे फूल लेकर जब तेरे शिष्य तेरे घर ले जा रहे होंगे तब चाण्डाल चोर...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 18 ═════

श्री महादेवेंद्र गुरुभ्यो नमः !! ░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 18 ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि द्वारा बार - बार समझाये जाने पर भी कि अब तुम दूसरा कोई भी प्रश्न न पूछ । तेरा अनर्थ हो जायेगा शाकल्य ! फिर भी " विदग्ध शाकल्य " ने पुनः प्रश्न पूछ ही दिया कि " विश्वचित्र धारण करने वाला हृदय कहाँ प्रतिष्ठित है ? " नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि ने " शाकल्य " को उसके एक नाम " अहल्लिक " से सम्बोधित कर तब उत्तर दिया । इस शब्द " अहल्लिक " के कई अर्थ हैं । { एक अर्थ वार्तिककार "भगवान् आचार्य सुरेश्वर " ने बताया है - दिन में छिप जाये , रात में प्रकट हो अर्थात् प्रेत ; अकालमृत्यु के कारण प्रेतयोनि पायेगा इस अभिप्राय से यह सम्बोधन है । अन्य अर्थ भी बता देते हैं : याज्ञवल्क्य का अभिप्राय था कि मैंने जो विषय समझाया वह दिन की तरह सुस्पष्ट है लेकिन उसमें भी संशय से तुम लय के , विनाश के योग्य बन रहे हो अतः " अहल्लिक " हो । अथवा जो सूक्ष्म बात समझ सके वह सहृदय कहलाता है । तुम इस सूक्ष्म वस्तु को हमझन...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 17 ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 17 ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! पूर्व के सत्संग क्रम में बतलाया गया था कि अध्यात्म मन ही हिरण्यगर्भ है , अतः ईश्वर हिरण्यगर्भ द्वारा विराट् बनते है । उदाहरण से यह विषय और सुस्पष्ट होगा : भींत पर पहले रेखांकन किया जाता है । रेखाचित्र में सफेद आदि रंग भरे जाते हैं । रंगों में मुँह , अंजन , मुख आदि द्रव्यों का व्यवहार होता है । किन्तु सभी कुछ प्रतिष्ठित भींत पर ही है । ऐसे ही हृदयकमल से अवच्छिन्न परमात्मा में दिगादिरूपव आदित्यादिदेवतारूप यह विश्व साक्षात् या परम्परा से प्रतिष्ठित है । वृत्तियों समेत अन्तःकरण साक्षात् और बाकी सब परम्परा से स्थित है । भींत पर मिट्टी का लेप कर दें तो चित्र नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार ब्रह्मानुभूतिरूप मिट्टी का लेप कर देने से यह हृदयप्रतिष्ठित चित्र भी बाधित हो जाता है । भींत तो समतल होती है पर चित्र में नीचा - ऊँचापन दीखता है , गहराई आदि दीखती है । ऐसे ही हृदय से अवच्छिन्न आत्मा तो सम है जिसपर यह उत्कर्ष - अपकर्ष वाला विश्वात्मक चित्र प्रतीत हो ऱहा है । जैसे विविध रंग...
∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 16 ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! महामुनि याज्ञवल्क्य विदग्ध शाक्ल्य से कहते हैं " शाकल्य ! पापरूप आग से तिलशः जले हुए तुम्हारे बारे में कहीं इन लोगों को शोक न करना पड़े । शाक्ल्य ऐसा न हो कि तुमारी पत्नी विधवा होकर हब आभूषण उतारकर , दीनता भरा चेहरा लेकर , बाँधवों को देगर , लाज छोड़कर दहाड़ मार कर रोती रहे । तुम्हारे मित्र , बन्धु , पुत्रादि शोकसागर में न डूबें । कहीं तुमसे वैरियों का ही सन्तोषलाभ न हो जाये । भूख - प्यास से पीडित, अत्यन्त दुःखी , पूर्ण कष्ट में पड़े हुए तुम्हें कहीं यमराज के नगर का दर्शन न करना पड़े । हे श्रेष्ठ ब्राह्मण ! ऐसा न हो कि तुम कौवे की तरह बलि खाते रहो । तपे देह वाले , अत्यधिक पीड़ित हुए तुम्हें तिलोदक न पीना पड़े । यह तुम्हारी कोमल गात्र आग का या कुत्तों का भक्ष्य कहीं न बन जाये। अपने शिष्यों को " निराचार्य " छोड़कर तुम अब अकेले ही परलोक मत सिधार जाओ । ब्रह्मविद् ! मुझ ब्रह्म से जो द्वेषरूप वृक्ष तुम्हारी चित्तभूमि में बहुत समय से बड़ रहा है वह तुम्हें विषवृक्ष की तर...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑮ ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑮ ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! द्वेष से परिपूर्ण , क्रोधाग्नि से जलता हुआ द्विजोत्तम " विदग्ध शाकल्य " अपने मन में बहुत - सा अनर्गल विचार करते हुए " मुनिवर्य याज्ञवल्क्य " से प्रश्न करने की ठान ली । भविष्य में होने वाले अनर्थ की जानकार " वाचकन्वी गार्गी " द्वारा कही हित की बात का तिरस्कार कर विदग्ध शाकल्य ने जो निर्णय किया उसके पीछे उसकी यह मनोभावना थी- यह " वाचकन्वी गागी " कुँवारी है , ब्राह्मणों के घरों से बाहर ही स्वेच्छाचारी हुई फिरती है , हमेशा बलिष्ठ पुरुषों की कामना रखती है । सभा में स्थित ये द्विजश्रेष्ठ सभी सदाचारी हैं , इस नंगी की ओर देखते भी नहीं तो इसकी ओर आकृष्ट क्या होंगे ? जटा - दाढ़ी धार किये ये तापस हमेशा स्नान - शौच में लगे रहते हैं और व्रतों से इन्होंने अपने शरीर सुखा डाले है , धमनियाँ उभरी हुई हैं , सभी बुड्ढों - से दीख रहे हैं । इनसे विपरीत यह याज्ञवल्क्य है : विटों का - सा { " मजनुओं " जैसा } इसका वेष है । जवानी का हृष्ट - पुष...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑬ ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑬ ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! अब अक्षर तत्त्व पर विचार करते हैं । अक्षर तत्त्व का अनुभव पाने के उपाय महर्षि याज्ञवल्क्य ने विदेहवासी मिथिलाधिपति जनक के द्वारा आयोजित ब्रह्मसभा में हाल ही में " कहोल मुनि को बताया था । इसलिये गार्गी द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर के क्रम में महर्षि ने अलग से उस अक्षर तत्त्व का अनुभव कैसे हो यह गार्गी को नहीं बताया था। उस तत्त्व का अनुभव पाने के उपाय क्या हैं सो बताते हैं : 1 . बालकपन - कामना आदि से रहित होना । 2 . पण्डिताई - वेदान्तों के तात्पर्य का सविचार निश्चय कर लेना । 3 . मौन - उक्त निश्चय का युक्ति व प्रमाणों से विरोध नहीं यह निर्धारित कर उस निश्चय का सतत प्रवाह बनाये रखना । नारायण ! यहाँ ध्यान देने योग्य है कि भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर स्वामी जी ने " पाण्डित्य " से श्रवण , " बाल्य " से मनन और " मौन " से निदिध्यासन को विवक्षित माना है क्योंकि रागादि को छोड़ना तभी सम्भव है जब श्रवणजन्य निश्चय प्राप्त हो जाये । तीव...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑫ ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑫ ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! वाचकन्वी गागी महामुनि याज्ञवल्क्य के समक्ष अपना दूसरा प्रश्न उपस्थापित करती है - " याज्ञवल्क्य ! वह यह आकाश कहाँ ओत - प्रोत है ? " उसका मनोभाव था कि अव्याकृत का अधिष्ठान तो आत्मतत्त्व है जो वाणी का अविषय है । यदि वाणी से परे होने के कारण उसे याज्ञवल्क्य कह नहीं पाया तो " अप्रतिभा " नामक निग्रहस्थान से ग्रस्त माना जायेगा और कहीं उसको वाणी से परिच्छन्न करने लगे गया तो अवाच्य - वदनरूप विरुद्धकथन से " विप्रतिपत्ति " नामक निग्रहस्थान में फँस जायेगा । यों उभयतः पाशा रज्जु फेंकने जैसा दाव था । निग्रहस्थान उन दोषों को कहा जाता है जिन्हें तर्कशास्त्र में पराजय का हेतु माना गया है। नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य साम्प्रायिक शिक्षा पाये हुए थे , अतः जानते थे कि शास्त्र का अनुशरण करते हुए पूर्वाचार्यों ने जैसा कथन किया है वैसे कथन से उस अकथनीय को भी शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है , इसलिये निडर हो उन्होंने विस्तार से उत्तर दिया : हे गार्गी ! अव्य...

❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑪ ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑪ ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! सभी ब्राह्मणों से अनुमति पाकर " वाचकन्वी गार्गी " पुनः भूभिका बाँधते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछना आरम्भ किया । पहले वाचकन्वी गागी दिखाती है कि सर्वज्ञ याज्ञवल्क्य से वाद करने के लिये वह योग्य प्रतिपक्षी है : सभी लोग जानते हैं कि मैं " वचक्नु ऋषि " की कन्या " गार्गी " हूँ । { केवल याज्ञवल्क्य ही प्रसिद्ध नहीं ; मैं भी हूँ ! } यह तो प्रायः देखा ही जाता है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बौद्धिक क्षमता अधिक होती है । अविवेक , धीरज , कामना और क्रोध भी स्त्रियों में पुरुषों से ज्यादा होता है । स्त्री होने से यों ही मेरी बुद्धि पुरुषों से { अतः याज्ञवलक्य से भी } अधिक है और फिर मैंने ज्ञान सरस्वती की समानता प्राप्त की हुई है, इसलिये स्त्रियों में भी मुझे सर्वाधिक बुद्धिमती समझ लीजिये । { अविवेकादि पर मैंने विजय पा रखी है , स्त्रीसुलभ वे गुण मुझमें नहीं है । } मैं कोई शिल्पशास्त्रादि तुच्छ जानकारियों से स्वयं का आधिक्य नहीं कह रही , वरन्...
∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬ █░░░░░░░░░░░░░█ ❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑩ ═════ █░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! ज्ञात हो कि " वाचकन्वी गार्गी महर्षि के उत्तर से किंकर्तव्यविमूढ होकर वह तुरन्त ही " उद्दालक आरुणि के निकट बैठ गयी ताकि वे महर्षि याज्ञवल्क्य के समक्ष वे कोई प्रश्न उठायें । सभी ब्राह्मण और अन्तमें अतिप्रसिद्ध ब्रह्मवादिनी वाचकन्वी गागी भी याज्ञवल्क्य महर्षि से स्वयं को श्रेष्ठ नहीं कर पाये । यह देखकर " उद्धालक" को काफी क्षोभ था , अतः उन्होंने ऐसा गोपनीय प्रश्न पूछा जिसका उन्हें उपदेश किसी देवता ने दिया था । उन्होंने भूमिका बाँधते हुए कहा - याज्ञवल्क्य ! हमें बहुत - से ब्रह्मचारी , यज्ञप्रतिपादक वेदवाक्यों का अध्ययन करते हुए " मद्रदेश " में " पतञ्जल काप्य " के घर रहते थे । पतञ्जल की पत्नी पर गंधर्व { अग्नि } का आवेश था । पतञ्जल समेत हम सबने उससे पूछा " आप कौन हैं ? " स्त्री के शरीर पर आविष्ट उस गन्धर्व ने हमारे गुरु व हम सब ब्राह्मणों को बताया " मैं "आथर्वण ग्रोत्र " का " कवन्ध" नामक गन्धर्व ह...