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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ════ ④ ════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬

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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! " आर्तभाग " के प्रश्नों का उत्तर देते हुए याज्ञवल्क्य महर्षि महाभाग कहते हैं कि मन और इन्द्रियाँ मिलकर 11 ग्यारह ग्रह हैं और इतने ही इनके विषय अतिग्रह हैं तथापि प्रधानता की दृष्टि से यहाँ 8 आठ उल्लेख है । अथवा जो इन्द्रियाँ यहाँ नहीं कही हैं उनक त्वक् और हाथ में अन्तर्भाव समझ लेना चाहिये । उपस्थ का अन्तर्भाव त्वक् में है । स्त्रीसम्पर्क से " उपस्थ " में जो सुख होता है वह त्वक् से ही उत्पन्न होता है क्योंकि त्वगिन्द्रिय सारे शरीर में फैली है । { उपस्थ की कर्मेन्द्रियता तो क्रियासम्पत्ति से गतार्थ है , क्रियाकालिक सुख ज्ञानजनक त्वक् का ही फल है । } ऐसे ही पैरो से व " पायु " से अर्थात् गुदाद्वार से कोई - न - कोई क्रिया ही होती है , अतः हस्तेन्द्रिय के कथन से पायु और पाद अर्थात् पैर को भी कह दिया मान लेना चाहिये । किं च पायु , पैर और हाथों की नाडियाँ समान हैं क्योंकि मलत्याग करते समय और पैरों से चलते समय हाथों में सूक्ष्म या स्थूल क्रिया होती ही है । अतः हाथ कहने से पायु व पाद अर्थात् पैर का संग्रह उचित है ।

नारायण ! यों ग्रहप्रश्न का उचित उत्तर पाकर " आर्तभाग " ने पुनः पूछा - याज्ञवल्क्य ! जड - चेतन यह सारा विश्व मृत्यु का अन्न कहा गया है । मृत्यु जिसकी अन्न है - भक्ष्य है - यह देवता यहाँ कौन है ? { अभिप्राय है कि मृत्यु नामक हिरण्यगर्भ भी भूख , कामना से पिडित बताया जा चुका है अतः तद्रूप समस्त लोग ग्रह - अतिग्रह रूप मृत्यु द्वारा वैसे ही घिरा है जैसे भक्षक द्वारा अन्न घेर लिया जाता है । प्रश्न है कि उस मृत्यु का भी कोई समापक है या नहीं ? यदि हो तो पुनः उसका भी आगे समाधान होगा ताकि अनवस्था दोष हो जायेगा और यदि मृत्यु का समापक कोई नहीं तो मोक्ष के लिये प्रयत्न व्यर्थ है।}। 

नारायण ! महाभाग याज्ञवल्क्य महर्षि ने सोदाहरण जवाब दिया - सबको मानो खा जाने वाली वह्नि अर्थात् आग भी सदा जल से मानो खा ही ली जाती है , अतः मृत्यु का समापक कोई हो यह तो संगत ही है । अग्नि की तरह तापप्रद उक्त मृत्यु का समापक है " तत्त्वज्ञान " जो सुधा की मानो बाढ़ हो । अनवस्था दोष इसलिये नहीं कि जैसे " फिटकरी " पानी की मिट्टी के साथ स्शं को भी तले में बैठाकर पानी साफ कर देती है ऐसे ही तत्त्वज्ञान न केवल मृत्यु का वरन् स्वयं का भी उपशम करता है । { ब्रह्मसूत्र के भामती टीकाकार श्री वाचस्पति मिश्र महाभाग ने बताया है कि " ब्रह्मसाक्षात्कार ..... । स च निखिलप्रपञ्चमहेन्द्रजालसाक्षात्कारं समुन्मूलयन् आत्मानमपि प्रपञ्चत्वाविशेषाद् उन्मूलयतीति " । } ।

नारायण ! मृत्युभक्षक - विषयक शंका का समाधान हो जाने पर " महामुनि आर्तभाग " ने गहन अभिप्राय वाला एक और प्रश्न पूछा । इसमें ब्रह्मज्ञ की विशेषता पूछी गयी है अतः अभिप्राय की गहनता है । " जरत्कारवन " ने प्रश्न किया - हे याज्ञवल्क्य ! जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार हो चुका है वह जब शरीर छोड़ता है तब क्या अज्ञानी की तरह उसके शरीर से प्राण उत्क्रमण करते हैं या नहीं ? यदि प्राणों का उत्क्रमण होता है तो अज्ञानी के समान विद्वान् को भी लोकान्तर में शरीर धारण करना पड़ता होगा ! और अगर उत्क्रमण नहीं होता तो प्राणों के रहते विद्वान् मरता किस कारण से है ? महाभाग याज्ञवल्क्य ने जवाब दिया - विद्वान् का जब प्रारब्धकर्म समाप्त हो जाता है तब उसके प्राण शरीर के अन्दर ही विलीन हो जाते हैं , प्राण शरीर से उत्क्रमण नहीं करते क्योंकि उत्क्रान्ति के हेतुभूत अविद्या - कामना - कर्म बचे नहीं होते । क्योंकि अज्ञानी की तरह उत्क्रमण न होकर भीतर ही विलय होता है , इसलिये विद्वान् पुरुष पुनः शरीरान्तर धारण नहीं करता और क्योंकि व्यक्त होकर प्राण कार्यकारी नहीं रहते इसलिये " मर गया " यह व्यवहार भी उसके बारे में संगत है । प्राणविलय में याज्ञवलक्य मुनि ने कारण बताया देह का फूल जाना जिसको सम्भव करता है वायु का देह में भर जाना । जीवित शरीर उस तरह फूलता नहीं, अतः वह फूलना देह के मृत होने का चिह्न है । मरा शरीर " धनञ्जय " नामक वायु से फूलकर पड़ा रहता है मानो नगाड़ा हो ! जीवनकाल में यह स्थिति होती नहीं , अतः निश्चय होता है कि प्राण वही विलिन हैं । ब्रह्मज्ञ के प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता इसमें प्रमाण तो है शास्त्र , जो कहता है कि ब्रह्मवेत्ता सम्बन्धी 11 ग्यारहों इन्द्रियाँ और पाँचों प्राण पुरुष में उसी तरह लीन होते हैं जिस तरह समुद्र में नदियाँ । किं च प्राणों का उत्क्रमण माना जाये तो पुनः अन्य शरीर ग्रहण करना पड़ेगा और देहधारण की नियति रहते उसे मुक्त क्योंकर कहा जा सकेगा ? वेद भगवान् ने बताया है कि शरीराभिमान रहते सुख - दुःख के शिकंजे से छूटकारा नहीं । 

नारायण ! " आर्तभाग " ने एक और प्रश्न किया - हे याज्ञवल्क्य ! जब ब्रह्मवेत्ता विदेहमुक्ति प्राप्त करता है , जीवनमुक्त रहकर मरता है , तब वह क्या है जो इसे नहीं छोड़ता ? अर्थात् द्वैत का विलय होने पर आत्मेतर कुछ बचता है या नहीं ?

नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने लौकिक दृष्टि से जवाब दिया कि मरने पर भी विद्वान् को नाम नहीं छोड़ता ! जैसे आज तक हम " वामदेव " इस नाम से उन मुक्त ऋषि का स्मरण करते ही हैं । यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मुक्त लोग नाम - रूप - क्रिया - इस भेदसमूह की गिरफ्त में नहीं , तथापि जो स्वयं को बद्ध अनुभव कर रहे हैं वे उन मुक्तों का नाम ग्रहण करते ही हैं । मुक्त को भी न छोड़ने से नाम अनन्त है , अतः विश्वेदेवों के समान है । नाम का विश्वेदेवों से अभेद - ध्यान करने से अनन्त फल मिलता है । 

नारायण ! " जरत्कारव " ने ज्ञानिसम्बन्धी प्रश्न के वाद " अज्ञ " के बारे में पूछा । इस प्रश्न से उस कर्म के स्वरूप का निर्णय जिज्ञास्य है जिस कर्म के रहते अज्ञों को ग्रह - अतिग्रह कहलाने वाली मृत्यु बारम्बार ग्रसती है और ज्ञानाग्नि से जिस कर्म के जल जाने पर ब्रह्मस्वरूप का लाभ अर्थात् मोक्ष हो जाता है । प्रश्न है - सभी देह - धारी जब मरणासन्न होते हैं तब आध्यात्मिक वाणी आदि पर आधिदैविक अग्नि आदि का अधिष्ठातृत्व बन्द हो जाता है , जिसे वेद में यों कहा है कि वाणी अग्निरूप हो जाती है , प्राण वायुरूप हो जाते हैं , नेत्र आदित्यरूप , श्रोत्र दिग्रूप , मन चन्दरूप , शरीर पृथ्वीरूप , शरीर में स्थित आत्मा कहलाने वाला आकाश ब्राह्याकाशरूप , सभी लोभ औषधिरूप , केश वनस्पतिरूप एवं लोहित अर्थात् रक्त और रेतस् जलरूप हो जाते हैं । { यहाँ सर्वत्र परिच्छिन्न इन्द्रियादि का व्यापक देवभाव समझना चाहिये । आकाश , औषधि आदि देवता विवक्षित हैं । } उस अवस्था में अज्ञानी जीव किस आश्रय पर स्थित हुआ परलोक पाकर कर्मफल का भोग करता है ? । 

नारायण ! महाभाग याज्ञवल्क्य महर्षि जानते थे कि यह प्रश्न ऐसे तत्त्व को विषय करता है और अत्यन्त गोपनीय है अतः इसका उत्तर उस " ब्रह्मसंसद " में न देकर वे " आर्तभाग मुनि " का हाथ पकड़कर उसे एकान्त में ले गये और वहाँ उसे उत्तर दिया । { शास्त्र से निर्णय किया जा सकने वाला प्रश्न सभा में विचारा जायेघा तो अधिक तर्क - वितर्कों की बौछार होने पर उस अतर्क्य वस्तु का निश्चय सम्भव न होगा यह याज्ञवल्क्य महर्षि का भाव था । } किं च महामुनि ने यह भी सोचा कि मृत व्यक्ति व्यवस्थित फल कर्मानुसार पाता है यह बात बच्चे व ग्वाले भी जानते हैं ! अतः इसी बारे में प्रश्न - उत्तर हैं यह देखकर लोगों को इस प्रश्न की गरिमा नहीं समझ आयेगी। एकान्त में निर्णय करने पर लोग समझेंगे कि जरूर कुछ प्रक्रियारहस्य पूछा व बताया गया है , अतः प्रश्न - उत्तर के प्रति आदर होगा। { तात्पर्य है कि यद्यपि सर्वप्रसिद्ध है कि कर्मानुसार जीवगति होती है तथापि यह बात है केवल शास्त्र से सिद्ध , चाहे अधिक प्रचारवश शास्त्र से बेखबर लोग भी इसे जानते हों । शास्त्रीय - चर्चा में जब कर्म को निष्कर्ष रूप से कहेंगे तब अल्पप्रज्ञ को लग सकता है " शास्त्र में इतना ही बताया है जो हम भी जानते हैं " , क्योंकि उसे यह समझ नहीं आयेगा कि वह जो जानता है उसका आधार शास्त्र ही है । एवं च शास्त्रीय निर्णय के बारे में अनादर न हो इसलिये गोपनियता रखी गयी । } 

नारायण ! वेदपुरुष याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया - जैसे जीवित दशा में शरीरधारी कर्मों पर आश्रित रहता है ऐसे ही यह देही स्शं पूर्व में किये पुण्य - पापों पर आश्रित हुआ ही रहता है । भोगलाभ में निर्णायक कारण पुण्य - पाप ही हैं । जिसने अत्यधिक पाप किये होते हैं वह नरक जाता है , पुण्याधिक्य से उसके फलस्वरूप देवभाव आदि पाता है और जिसके पुण्य - पाप प्रायः समान हों वह मानुष आदि शरीर प्राप्त करता है , जहाँ सुख - दुःख बराबर है । जन्तु अर्थात् जीव स्वरूपतः अधिक नहीं है - अत्यधिक सुखोपभोक्ता नहीं ; और न ही न्यून है - अत्यधिक दुःखोपभोक्ता नहीं । वह सम भी नहीं अर्थात् सुख - दुःख का बराबर मात्रा में भोक्ता नहीं । अपने कर्मों के वश से अर्थात् उस उपाधि से ही जीव अधिक , सम या न्यून हो जाता है । पुण्यात्मा अधिक बन जाता है , हिरणगर्भ - पर्यन्त सद्गति पा लेता है । पापी न्यून हो जाता है , वृक्ष - पर्यन्त अधोगति पाता है । पुण्य - पाप दोनो बटोरने वाला मिश्रित रूप से सुख - दुःख पाता है , सम होता है । यह प्रक्रिया बिना अन्तराल के चलती रहती है । शरीर , मन या वाणी से दूसरे व्यक्ति को जो सुख या दुःख दिया जाता है वह कालान्तर में स्वयं को अवश्य मिल जाता है । जैसे देश - काल में , जैसे निमित्त से , जिस प्रकार , जितना , जैसा , जैसे शरीर से जो पुरुष दूसरे के प्रति सुख - दुःख जो करता है वह पुनः वैसी ही विशेषताओं वाले सुख - दुःख स्वयं भी पाता है । { अर्थात् उसी तरह की परिस्थितियों में उसे भी सुख - दुःख मिलता है । यह जन्मान्तरीय फल का प्रसंग है , अतः लोक में क्रूर को सुखी , सर्वसेवक को दुःखी आदि देखकर इस व्यवस्था पर शंका नहीं करनी चाहिये । } चाहे इसी लोक में हो या परलोक में , सभी जगह यह नियत है कि कर्मकर्ता को उतना ही फल मिलता है जितना पुण्य या पाप उसने कर रखा है जो फलोन्मुख है । देश , काल आदि के सम्बन्ध से कर्म का फल करोड़ों गुणा बढ़ भी जाता है , जैसे खेत की जमीन उपजाऊ हो और बरसात में बुआई की हो तो धान अधिक मात्रा में मिलते हैं जबकि मौसम व जमीन के अन्तर से उतनी ही मेहनत का फल कम होता है ।

{ जरत्कारव के प्रश्नों का महामुनि द्वारा दिये गये शेष उत्तर को अगले क्रम में बताते हुए विदेहराज के ब्रह्मसंसद में हुए सत्संग का और लाभ लेंगे : } सावशेष .

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