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“ परमेश्वर – परमसखा  “ :

नारायण ! अतिधन्य -" ऋग्वेद " हमारे - आपके सामने एक बड़ा ही सुन्दर आदर्श रखता है :
" द्वासुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते तयोरन्यः पिप्पलंस्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति "
{ ऋग्श्रुति 1 - 22 - 164 }
श्रुतिभगवती यह बतला रही है कि " परमेश्वरऔर जीव " का सम्बन्ध दो मित्रों जैसा है ।
वे कैसे मित्र हैं ?
जैसे एक ही वृक्ष के ऊपर बैठे हुए " दोपक्षी " । एक पक्षी इधर - उधर जा रहा है , फलों को खा रहा है , लेकिनदूसरे पक्षी का प्रेम इतना अधिक है कि वह निरन्तर अपने प्रिय पात्र को टकटकी लगाकरदेखता ही जा रहा है ।
नारायण ! ठीक वही हाल जीव और ईश्वर की है । हम समझते हैं कि जीव ईश्वर सेप्रेम करता है लेकिन अपने जीवन में आगे बढ़ने पर हमें अपने प्रेम की दरिद्रता काअनुभव होता है । जीव परमेश्वर से कितना प्रेम कर सकता है ? विचारक तो यहाँ तक कह देते हैं कि परमेश्वर को जीव केलिये जितनी भूख है जीव उसका हजारवां हिस्सा भी परमेश्वर के लिये यदि प्राप्त करलेतो परमेश्वर उसको खींचने के लिये तैयार बैठा है ।
जीवतो एक के बाद दूसरे फलों को चखता चला जा रहा है । कभी माता से प्रेम  करताहै कभी पिता से , फिर कभीहमजोलियों से । उन सब से धोखा खाते हुए भी बार - बार उसी तरफ जाता है । उनको हीअपने जीवन का केन्द्र बनाना चाहता है । यह है चेतन जगत् का साम्राज्य । जड़ जगत्में भी कभी धन से प्रेम करता है , कभीअन्य वस्तुओं से तो कभी प्रतिष्ठा से ।
परमेश्वर किससे प्रेम करता है ?
श्रुतिभगवती कह रही है -
" अनश्नन्नन्यअभिवाकशीति " कि वह निश्चय करके बैठा हुआ है कि जीव केअतिरिक्त मेरा प्रेम पात्र कोई नहीं , अतः यहसंसार के किसी भी पदार्थ से प्रेम न कर के केवल जीव की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है। प्रेम का स्वरूप ही यह है कि हम अपने प्रिय पात्र को अपनी आँखों से ओझल होनेदेना नहीं चाहते । इस दृष्टि की पूर्णता परमेश्वर परमशिव में है । जो नीचे गिराहुआ व्यक्ति है उसके अन्दर भी परमेश्वर सदाशिव बैठा हुआ निरन्तर आवाज लगाता रहताहै कि तू अमुक काम ठीक कर रहा है और अमुक काम गलत । मनुष्य हजारों बार झूठ बोलताहै लेकिन फिर भी जब झूठ बोलने में प्रवृत्त होता है तो एक धीमी सी आवाज आती जरूरहै कि अरे ! तू झूठ बोल कर गलत काम कर रहा है ।
परमात्मापरमशिव कभी थकते नहीं हैं । पर ऐसा नहीं कह सकते कि  वहजीव की परीक्षा नहीं लेता । परमेश्वर सदाशिव जब जीव की तरफ जाते हैं तो परीक्षा भीलेते हैं । परमेश्वर और जीव का खेल एक रसमय साम्राज्य है । वह विचित्र खेल है ।
नारायण ! दक्षिण भारत में" नायनार " नामक एक बहुत ही बड़े सन्त हुए हैं । वे कविता के बड़ेभारी समालोचक थे । उस समय" तालिल संघ " बना हुआ था । आज से करीब आज के करीब प्रायः 3050 वर्ष पूर्व यह हुआ करता था कि जब किसी कविता कीसमालोचना की जाती थी तो सारे लोग मिलकर इस बात का निर्णय करते थे कि यह कविता आगेसमाज में चलाने लायक है अथवा नहीं ।
एकगरीब शिव भक्त था । उसने सोचा कि यदि तामिल संघ के लोग मेरी कविता स्वीकार कर लेतो मुझे भी कुछ धन मिल जाय । इस अभिलाषा से वह शिव भक्त भगवान् श्रीसाम्ब - सदाशिवसे प्रार्थना की कि आप मेरे लिए एक कविता की रचना कर दें तो मुझे भी धन मिल जाय ।भगवान् श्रीआशुतोष जो दया के करुणामूर्ति हैं उन्होंने उस पर अपनी करुणा कटाक्ष करतेहुए कुछ कविताओं की रचना करके अपने उस भक्त से कहा कि इन्हें ले जाओ । कवितायेंबड़ी अनोखी तथा सुन्दर थी । भगवान् भोलेनाथ के भोले भक्त ने पूछा भगवन् यदि इनकविताओं के विषय में किसी ने  कोई प्रश्न किया तो मैं क्या कहूँगा ? मैं तो समझता नहीं कि इनके अन्दर क्या लिखाहुआ है । भगवान् करुणाकर दयामूर्ति शिव ने कहा कि मैं खुद ही तुम्हारे साथ चलताहूँ। यदि कोई प्रश्न होवे तो तुम कह देना कि यह मेरा शिष्य है , यही जवाब देगा । भगवान् शङ्कर अपने उस भोलेभक्त के साथ हो लिये ।
नारायण! जब वहाँ पहुँच कर सब लोगों के सामने कविता रखी गई तो सबने कविका की प्रशंसा कीपर कविता के समालोचक - " नयनार " ने नहीं की । " नायनार"  ने अपना सिर हिलातेहुए कहा कि कविता के अन्दर मुझे अमुक - अमुक दोष दिख रहे हैं । अन्ततोगत्वा भगवान्शङ्कर भी उसे जवाब नहीं दे सके कि कविता शुद्ध कैसे है क्यों कि " नयनार " ने गलतियां ठीक निकाली थीं । भगवान्शङ्कर को गुस्सा आया कि मैंने कविता रची और उसी में यह गलतियां निकाल रहा है । तो" नयनार " की तरफ देख कर उसे अपनातीसरा नेत्र दिखाने लगे ताकि वे समझ जाय कि वे भगवान् हैं और कह दे कि कविता ठीकहै । " नायनार"  कहने लगा भगवन्!चाहे आप तीसरा नेत्र पूरा खोलें चाहे आधा , कविता तो बना केलाये हो वह ठीक होने वाली नहीं , वह तो गलत ही रहेगी। भगवान्शङ्कर ने विचार किया कि इसने  तो भरी सभा में खुल कर के कह दिया । अतः वेअन्तर्धान हो गये । अन्त में " नायनार " नेसंघ से कहा कि यह कविता तो ठीक नहीं है लेकिन हमें इस शिव भक्त को कुछ धन अवश्यदेना चाहिये क्यों कि जो भगवान् का इतना बड़ा भक्त है कि स्वयं शिव ने उसके लियेकविता की रचना की उसे तो आगे बढ़ाने के लिये प्रवृत्ति होनी ही चाहिये । अतः उस शिवभक्त को धन दे दिया गया । कुछ समय बाद " नायनार " तपस्या कर रहे थे । भगवान् ने विचार किया कि एक दिन इसने मेरी बदनामी कीथी , तो मैं भी इसकी बदनामी करूँ। " नायनार " दीर्घ काल से समाधि लगा कर बैठे थे । अकस्मात्देखा कि तालाब में एक ऐसा सुखा पत्ता गिर पड़ा है जो आधा पानी के बाहर और आधा पानीके भीतर चला गया । पानी के अन्दर वाला भाग तो " मेढक " बन गया और बाकी हिस्सा वैसा ही सुखा रह गया । देख कर आश्चर्य हुआ कि पत्तातो पूरा बना है पर आधा मेढक और आधा पत्ता है । इस घटना से उसका ध्यान टूट गया ।ध्यान टूटते ही दूत लोग आकर नायनार को एक गुफा में उठा ले गये । वहाँ अनेकतपोभ्रष्ट ऋषि तपस्या कर रहे थे । नायनार ने प्रार्थना की कि भगवन् आपने मुझे भीतपोभ्रष्ट कर दिया क्यों कि मैंने आपकी कविता को भ्रष्ट किया। अब हमदोनों एक समान हो गये । अब आप हमको यहाँ से छुड़ा देवें और हम भी आगे से यह नहींकहेंगे कि भगवान् को छन्द बनाना नहीं आता । फिर से दोनों में समझौता हो गया ।
नारायण! ऐसी घटना से जाना जाता है कि भगवान् के साथ कितना घनिष्ठ सम्बन्ध हो सकता है ।भक्त को किसी प्रकार का भय नहीं रहता । इस दृष्टान्त से यह भी पता चलता है कि मनुष्यसबसे पहले जब परमेश्वर की तरफ बढ़ता है तो किस दृष्टि को लेकर बढ़ता है । पहले उसकीदृष्टि भय की होती है , वह भयाक्रान्त होकर सोचता है कि यदिहम भगवान् की भक्ति नहीं करेंगे तो शायद हमको नरक भोगना पड़े , आगे दुःख भोगने पड़ें । लेकिन भय तो प्रेम नहीं है । भय के द्वारा हमारीप्रवृत्ति हुई , उससे जब कुछ आगे बढ़ते हैं तो भगवान् के लियेएक प्रसन्नता का भाव आता है । एक सम्मान की दृष्टि बनती है । विचार करने से पताचलता है कि जहाँ पर प्रशंसा और सम्मान है वहाँ पर प्रेम की पूर्णता नहीं है ।श्रुतिभगवती ने कहा कि " सखाया " नाता मित्रता का है । मित्रता आदमी में कितना ही बड़ा हो , या छोटे से छोटा हो , बड़े छोटे की भावना नहीं रहती ।श्रीकृष्ण और अर्जुन की मित्रता का दृष्टान्त समझ लीजिये । अर्जुनकृष्ण के साथ एक ही बिछौने पर बैठता था , साथ खाता था और खेलता था , उन्हेंकृष्ण , यादव नामों से बुलायाकरता था। वहाँ पर प्रेम का भाव था , सखा का भाव था । यह भाव तभी उत्पन्न होता है जब परमेश्वर से भय करना छोड़दे और परमेश्वर की प्रशंसा या महत्ता का भाव भी भूल जाय। तभी प्रेम पूर्णता कोप्राप्त कर सकता है ।
श्री नारायण हरिः ।

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