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!! श्री गुरुभ्यो नमः !!

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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १८ } ~~~

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नारायण ! श्रीगुरुदेव भगवान् कहते हैं " हे सौम्य ! " उपनिषद् जिस आत्मा को पुरुष कहती है वह पुरुष वास्तव में ब्रह्मस्वरूप है लेकिन " पुर्यष्टक " से घिरकर यह बार - बार शरीरों को ग्रहण करता व छोड़ता है अर्थात् जन्मता - और मरता है । इसकी विहारभूमियाँ 2 दो ही बताई गयी है : { 1 } यह लोक अर्थात् प्रत्यक्ष होता हुआ यह स्थूल देह । { 2 } परलोक अर्थात् जहाँ अभी मौजूद है उससे भिन्न शरीरादि । यह बात महर्षि याज्ञवल्क्य राजा जनक को बताते हुए आगे कहते हैं :

हे राजन् ! उसी आत्मा की तीसरी भोगभूमि स्वप्न है ऐसा कुछ लोग समझते हैं । विचारशील तो कहते हैं कि दोनों लोकों की संधि में उत्पन्न होने से वह तीसरा स्थान नहीं हो सकता जैसे दो गाँवों की संधि कोई तीसरा गाँव नहीं हो जाता ।

स्वप्न इहलोकरूप ही हो यह सम्भव नहीं क्योंकि उस अवस्था में पुरुष को इस स्थूल देह में स्फूट अभिमान नहीं रहता । देहवान् जब सपने में होता है तब यह स्थूल शरीर ज़मीन पर शव जैसा पड़ा हो तो भी वह इसे नहीं जानता । इसलिये सपने को इहलोक में नहीं समझ सकते । और न ही सपना परलोक ही है क्योंकि पुरुष ने स्थूल शरीर को हर तरह से छोड़ नहीं दिया है । इसका पता इससे चलता है कि सपना देखने वाले के स्थूल शरीर को पीडा दें तो वह दुःखी होता है , उसकी श्वासगति बदल जाती है , मुखाकृति बिगड़ जाती है आदि । इस प्रकार शरीर का पूरी तरह त्याग न होना रूप इहलोक का लक्षण भी स्वप्न में है और स्फुट अहङ्कार का त्याग रूप परलोक का लक्षण भी , जिससे पता चलता है कि स्वप्न दोनों लोक की संधि में उत्पन्न होता है । निर्मल आकाश में जब न तारे दीखें और न सूर्यबिम्ब दीखे तब वह समय दिन - रात की संधि कहलाता है तथा उस समय होने वाले पदार्थ को सान्ध्य कहते हैं । इसी तरह स्वप्न भी संधि में होने वाला है अतः स्वप्न भी सान्ध्य है ।

हे नरेश ! स्वप्न नामक सान्ध्य स्थान में विद्यमान पुरुष इहलोक व परलोक दोनों में होने वाले अर्थात् अतीत और अनागत पदार्थों को देख लेता है । इस शरीरधारी ने इस शरीर में जिन चीज़ों का अनुभव किया है और इससे पूर्व के देहों में जिनका अनुभव किया है उन्हें स्वप्न में देख लेता है । कभी ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति सपने में वह वस्तु भी देख लेता है जिसका अनुभव भविष्य में होना है । जिस तरह कोई देहली { दहलीज } पर बैठा हो तो घर और आंगन दोनों देख लेता है क्योंकि दोनों के संधिस्थान पर स्थित होता है । उसी तरह " हे राजन् ! " तेरा , मेरा व सभी जन्तुओं का आत्मा जब सान्ध्य स्थान { स्वप्न } में पहुँचता रहता है तब इस लोक और परलोग दोनों को देख लेता है । 

देहधारी के वर्तमान स्थूल शरीर का त्याग हो चुकने पर उसे जैसा शुभ या अशुभ शरीर मिलेगा वैसा ही शरीर यह इस जन्म में ही सपने में ग्रहण कर पुण्य - पापवश सुख - दुःख भोग लेता है । पुण्य करने वाला सुख और पापी दुःख भोगता है । इस प्रकार यह परमेश्वर आत्मा दोनों लोक देख लेता है । { आत्मा के इहलोक - परलोक दो स्थान हैं - यह कहने पर शंका हुई कि परलोक में क्या प्रमाण ? तो स्वप्न को देहान्तर में प्रमाण बताया क्योंकि सपने में ऐसा बहुत कुछ दीखता है जो इस जन्म में एकत्र हुए संस्कारों से दीखना संगत नहीं । श्रुति , स्मृति आदि अन्य प्रमाण तो इस बारे में प्रसिद्ध ही हैं । आधुनिक मनोवैज्ञानिक गर्भकालिक अनुभवों तक को स्वप्न के प्रति हेतु मान लेते हैं , उससे पूर्व अभी उनकी गति नहीं हुई है । भविष्य भी वर्तमान के स्वप्न का हेतु बनता है यह प्रकृत औपनिषद संकेत है । प्रसंगवश याद रखना चाहिये कि यहाँ सपना सत्य नहीं कहा जा रहा है। यहाँ इतना ही समझा रहे हैं कि सपना उक्त ढंग से सिद्ध करता है कि वर्तमान से अन्य भी शरीरों में हमने अनुभव एकत्र किये हैं । भविष्य - शरीर के अनुरूप शरीर देखना भी असंगत नहीं क्योंकि भविष्यता कोई निरपेक्ष धर्म नहीं है , एक दृष्टि से भविष्य रहते हुए ही वह अन्य दृष्टि से विद्यमान हो सकता है । किं च ईश्वरसंकल्प में तो हमारा भाविदेव भी स्फुट है ही , अतः उसके आधार पर भी हम उसका स्वप्न में प्रारूप देख सकते हैं।}

हे राजन् ! स्थूल शरीर को पहले " यह लोक " भी कहा था क्योंकि यह सबका भोग्य बनता है । इसे छोड़कर इह - पर दोनों लोकों का दर्शन करने के लिये आत्मा जब " सन्ध्या " नामक सपने के स्थान को जाता है तब स्थूलदेह - सम्बन्धी इन्द्रियों सहित विषयों को { वासनारूप से } साथ लेकर ही जाता है जैसे राजा अपने अनुचर साथ लेकर जाता है । लोक में बालक बालू आदि में खेलता है तो बालू से अनेक खिलौने बनाते - तोड़ते हुए काफी समय तक लगातार खेलता ही रहता है । इसी तरह सपने में पहुँचा आत्मदेव अपने स्वयंप्रकाश विज्ञान के बल पर स्वप्न के विषयों को बनाते - बिगाड़ते हुए अनेक सपने देख लेता है । जिस देव को आत्मज्योति बताया था वह यही पुरुष है जो स्वप्न देखते हुए बिना रुके खेल करता रहता है , अर्थात् नाना पदार्थों को विषय करना ही इसका खेल है । स्वप्न में जो यह पदार्थों को विषय करता है उसके लिये इसका अपना स्वप्रकाश विज्ञान ही पर्याप्त है , वहाँ इसे कोई ज्ञानसाधन नहीं चाहिये । स्वरूपभूत स्वप्रकाश विज्ञान वाले आत्मा को छोड़कर क्योंकि उसे किसी प्रकाश की अपेक्षा नहीं , इसलिये पुरुष " स्वयंज्योति " कहा जाता है । बालक के खिलौनों का कारण जैसे बालू होती है , वैसे ही स्वप्न देखने वाले के सपने का कारण होता है मन । जैसे बालक अपने सामने पड़ी नाना आकार ग्रहण की हुई बालू देखता है वैसे ही स्वयंप्रकाश आत्मा स्वप्नघटक पदार्थों के आकार में उपस्थित मन को दृश्यतया ही देखता है । अतः स्वप्न में मन को प्रकाश करने वाला नहीं मान सकते । स्वप्नावस्था में अविद्या भी मौजूद है लेकिन वह तो आवृत करने के स्वभाव वाली है , कभी किसी को प्रकाशित नहीं करती , अतः उस अवस्था में उसे भी प्रकाशक नहीं कह सकते । मन तो स्वप्नद्रष्टा के लिये घड़े की तरह दृश्य है , न कि दर्शनसाधन कि उसे प्रकाशककोटि में रखा जा सके । जाग्रत् की तरह स्वप्न में इन्द्रियाँ , सूर्य , चन्द्र , अग्नि , वाणी आदि कोई भी नहीं होते , जिन्हें पहले तेजोरूप अर्थात् ज्योतिरूप कहा था । अतः वहाँ आत्मा ही प्रकाश है यह निःसंदिग्ध है । मन तो दृश्य है यह सुस्पष्ट है क्योंकि जाग्रत् में ही उसका दृश्यरूप से अनुभव होता है " मेरा मन अन्यत्र गया था " इत्यादि । एवं च जाग्रत् में ही वह प्रकाश नहीं प्रकाश्य है , तो स्वप्न में वह प्रकाश नहीं इसमें कहना क्या ! 

कोई आस्तिक तो मन को चेतन मानता नहीं । जो वादी इसे चेतन कहे उससे पूछना चाहिये कि क्या यह मन आत्मरूप है या अनात्मरूप ? 

सावशेष ......

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