!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ३ } ~~~
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! श्रीगुरुदेव अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं : हे सौम्य ! राजा जनक ने जब अपनी कष्टमय स्थिति का उल्लेख किया तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने उन्हें ढाढस बँधाते हुए कहा " हे नरेश ! डरो मत । मैं तुम्हें तुम्हारा गन्तव्य अवश्य बताऊँगा । मैंने तुमसे जिस गन्तव्य के बारे में पूछा था उसमें एक रहस्य था । तुम धार्मिक , दानशील राजा हो अतः तुम्हें उसके बारे में समझाता हूँ : संसार में प्रश्न 2 दो तरह के होते हैं - अज्ञानी द्वारा पूछा गया और जानकार द्वारा पूछा गया । केवल गन्तव्य ही नहीं सभी विषयों यही बात है । ध्यान से सुन लो - जब जान कर प्रश्न किया जाता है तब वह 2 दो तरह का हुआ करता है - दूसरे के ज्ञान से अपने ज्ञान का मिलान कर निश्चय की दृढतरता के लिये प्रश्न - यह एक प्रकार है । दूसरा प्रकार है कि संदेहवश या भ्रमवश पूछा जाता है ताकि संदेह या भ्रम मिट जाये । अन्य के ज्ञान से मिलान करने के लिये किया प्रश्न भी 2 दो तरह का होता है : एक तो अपनी बुद्धि का सहीपन जाँचने के लिये और दूसरा अन्य की बुद्धि की सूक्ष्मता परखने के लिये । इन सब पक्षों को सोचकर प्रष्टा का गन्तव्य निश्चय कर तब बुद्धिमानों को चाहिये कि मार्ग बतायें , अन्यथा नहीं । यदि पूछने वाला गन्तव्य समझ कर पूछ रहा हो तो जवाब देने वाले को उसी से पता लगाना चाहिये कि वह कहाँ जाना चाह रहा है और उसी के अनुसार रास्ता बताये । अगर प्रष्टा अर्थात् पूछने वाले को गन्तव्य का भी अज्ञान है तो दयालु बुद्धिमान् को चाहिये कि उसे गन्तव्य समझाये और उसके मार्ग का भी विस्तृत परिचय दे । मैंने तुम्हारी स्थिति समझने के लिये ही तुमसे गन्तव्य का प्रश्न किया था । अब मैंने समझ लिया है कि तुम सर्वथा अज्ञान में हो अतः मैं गन्तव्य और वहाँ पहुँचने का उपाय दोनों सुस्पष्ट करूँगा इसमें संदेह मत रखो और सावधान हो सुनो ।
श्री गुरुदेव कहते हैं कि " हे सौम्य ! " इस पर आनन्दित मन से राजा ने विप्रराज भगवान् भास्कर के छात्र मुनि याज्ञवल्क्य से कहा - " हे भगवन् ! आप आदेश दें , उपदेश दें , मैं सावधान हूँ । " तब मुनि याज्ञवल्क्य ने सूर्य भगवान् से प्राप्त विद्या का राजा को उपदेश किया । वह जान आत्मा के साक्षात्कार का हेतु है । मुनि ने ज्ञान प्राप्त करने के अन्तरंग व बहिरंग साधनों का भी परिचय राजा को दिया ताकि उस मार्ग पर वह चल सके । { विविदिषा - उत्पादक साधन बहिरंग और ज्ञानोत्पादक शमादिसाधन अन्तरंग कहे जाते हैं । } । महानुनि याज्ञवल्क्य ने उपदेश प्रारम्भ किया : " हे सौम्य ! " सुनो : सभी को स्वरूपतः अपरोक्ष आत्मतत्त्व अविद्यावश देह में तादात्म्याभिमान कर देहधारी हुआ जब इन्दियों से विषय ग्रहण करता है तब उसे जाग्रद् अवस्था में विद्यमान समझा जाता है । यह आत्मा लौकिक प्रमाणों से निर्णेय स्वभाव वाला नहीं है । देहधारी शरीर में दो तरह उपस्थित हैं - एक इन्द्ररूप से और दूसरा इन्द्राणीरूप से । जिस भूत - भौतिक विश्व की आत्मदेव ने माया से सृष्टि की है उस सब को इसने देख लिया इसलिये आत्मा का नाम पड़ गया " इन्द्र " । यदि इदं अर्थात् विश्व का द्रष्टा से " इदन्द्र " कहलाना चाहिये तथापि पूज्यों का साक्षात् नाम लेना अनुचित होने से आत्मा "इन्द्र" ही प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार स्वप्रकाशात्मक दीप्ति वाला होने से इसे " इन्ध " कहना चाहिये लेकिन सीधे ही नाम लेना उचित नहीं इसलिये मन्त्रद्रष्टा ऋषियों " इन्द्र " ही नाम रखा है । { अर्थात् " इदन्द्र " ही नहीं " इन्ध " का भी ईषद् विकूत रूप इन्द्र- शब्द को समझना चाहिये । } संसार में विद्यमान जड - चेतन यह संसार इस आत्मा की स्फूर्ति से ही भासमान है जबकि यह आत्मदेव सूर्य , चन्द्र , सारे तारे , अग्नि , मध या शब्द से भी प्रकाशित नहीं होता , विषय नहीं किया जाता । ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ इस आत्मा को विषय करें यह सर्वथा असंभव है । यह देव सब का प्रकाशक है और ऐसा कहीं नहीं होता कि यह स्वयं भासमान न हो इसलिये विद्वान् इसे स्वप्रकाश कहते हैं , अन्यों से प्रकाशित न होकर प्रकाशमान होना ही स्वप्रकाश होना है । { यहाँ " प्रकाश से ज्ञान समझना चाहिये , चाक्षुष रोशनी नहीं समझनी चाहिये , वह तो तेजस्तत्त्व का गुण है , आत्मा का नहीं । } स्वयं ही प्रकाशमान आत्मा की स्वरूपभूत सुस्पष्ट दीप्ती से युक्त होने से यह " महेश्वर " है तो " इन्ध " कहलाने लायक पर देवता इसे इन्द्र कहते हैं । स्वप्रकाश आत्मा का सीधा नाम " इन्ध " , सात्त्विक लोग इसका परोक्ष नाम " इन्द्र " व्यवहार में लाते हैं । सात्त्विक स्त्री - पुरुष पिता , माता , गुरु, मालिक आदि का नाम सीधे ही कभी ग्रहण नहीं करते । ऐसा तो तामस लोग ही कर सकते हैं! सात्त्विक तो अन्यों के भी ऐसे व्यवहार को सह नहीं पाते जिसमें माननीयों के प्रत्यक्ष नाम का ग्रहण हो । पिता आदि पूज्यों को भी क्योंकि यही अच्छा लगता है कि पुत्रादि उनके साक्षात् नाम का उच्चारण न करें इसलिये सात्त्विक पुत्रादि पिता आदि के मुख्य नाम के समान किसी अन्य शब्द से ही उनका व्यवहार करते हैं । अग्नि आदि देवता तो सात्त्विकों के भी मूर्धन्य हैं । इसलिये वे " इन्ध " को " इन्द्र " नाम से कहते हैं । इन्द्र - नामक यह परम पुरुष जब जगने की अवस्था में होता है तब इन्द्रियों को वश में कर इस " दाँई आँख " में निवास करता है । जैसे स्वर्गस्थ इन्द्र " वैजयन्त " नामक महल में रहकर सभी देवताओं द्वार अर्पित भोग ग्रहण करता है वैसे ही चक्षुरादि अध्यत्मदेवों द्वारा बहुत तरह अर्पित नाना प्रकार के शुभ { और अशुभ } विषयों को दायीं आँख रूप महल में रहकर अध्यात्म इन्द्र { देहभाक् आत्मा } ग्रहढ करता है ।
हे सौम्य ! सामान्यतः दायीं आँख से अधिक साब दीखता है , बायीं आख से कम । इसीलिये बायीं आँख में जो विश्व का अर्थात् जीव का रूप है उसका " इन्द्राणी " रूप से ध्यान करना चाहिये , यह बताते हैं - स्वर्ग की सभा में स्थित इन्द्र की भोग्या इन्द्राणी इन्द्र के समान भोगों वाली होती है और इन्द्र के आस - पास ही किसी महल में रहती है । इन्द्र तो " वैजयन्त " नामक महल में रहता है। इसी तरह "जगदीश" जब जागरण अवस्था में परिच्छिन्न होते हैं तब उन आत्मरूप इन्द्र की पत्नी बायीं आँख में रहा करती है । स्थूल भोग भोगने वाले अपने पति के साथ यह इन्द्राणी नाना तरह से विराजती है , इसलिये उस इन्द्रप्रिया को विद्वान् " विराट् " भी कहते हैं । किं च 10 दस अक्षरों वाला " छन्द " का नाम भी " विराट् " है जिसे ध्यान में रखने से भी इन्द्र - पत्नी अर्थात् इन्द्राणी " विराट् " कहलाती है क्योंकि जैसे बाह्य 10 दसों इन्द्रियों का अधिष्ठाता है पुरुष या इन्द्र वैसे ही वह भी उनकी अधिष्ठात्री बनती है ।
{ मुख्य अधिष्ठाता पति होगा तो उसकी पत्नी भी तत्तुल्य होगी । वस्तुतस्तु अधिष्ठातृत्वोपाधिरूप वृत्ति पत्न्यंग हैं और उपहितरूप इन्द्रांश है । }
हे सौम्य ! महर्षि याज्ञवल्क्य आगे राजा जनक से कहते हैं कि सभी का आत्मा जाग्रत् अवस्था में यों इन्द्र - इन्द्राणी रूप से स्थित है । वह समष्टिरूप से समझा जाये तो एक ही है लेकिन भ्रान्तों की दृष्टि में वह व्यष्टिरूप से समझा जाता है , अतः लगता है मानो अनेक हो । चक्षु वाले सभी की इन्द्रिय के साथ अर्थात् इन्द्रियगोलकों में इन्द्राणी समेत इन्द्र रहता है । वह समष्टिरूप से अभिन्न होने पर भी व्यष्टिदृष्टि से अलग - अलग प्रतीत होता हैं । हे राजन् ! यही जागरण अवस्था है , जिसमें तुम राजा होकर नाना भोग भोगते हुए इस समय { इन्द्रिय- व्यापार के समय } मौजूद हो ।
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें बताया कि तुम लोकव्यवहार करने वाले हो तथा प्रत्येक शरीर में 2 दो तरह स्थित हो : भोता रूप से तुम अग्नि पुरुष हो एवं भोग्य रूप से तुम ही " सोम " और " स्त्री " हो । { इस तरह अग्नि - सोम रूप वैश्वानर से तुम्हारा भेद नहीं है यह तुम समझ लो । }
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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