Skip to main content

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { ९ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ९ } ~~~
█░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█
नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं –
हे सौम्य ! विवेकशील राजा ने माना कि मैं महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा प्रदत्त " वरकवच " से सुरक्षित हो गया हूँ अतः प्रश्न पूछने पर मुनि क्रोधित नहीं होंगे । अतः उन्होंने प्रश्न पूछने प्रारम्भ किये शरीर - इन्द्रियादि के संघात से विलक्षण आत्मा के बारे में ताकि स्वयंप्रकाश असंग वस्तु सुस्पष्ट हो ।
विदेहराज जनक ने प्रश्न किया –
" हे मुने ! हे प्रतिज्ञापालक ! दिन रहते जाग्रत् अवस्था वाला यह पुरुष किस प्रकाश वाला होता है यह कृपापूर्वक बताइये । " { " यह पुरुष " में " यह " से स्थूल - सूक्ष्मशरीरों का संघात ही कहा जा सकता है । " जाग्रत अवस्था " में तदनुकूल देश - कालादि समझने चाहिये । " किस प्रकाश " अर्थात् संघात के अन्तर्गत कोई वस्तु इसे भासित करती है या उससे बहिर्भूत ? } प्रश्न में जिसके प्रकाशक की जिज्ञासा है , उसके विशेषणों पर विचार कर मुनिवर्य याज्ञवल्क्य ने प्रश्न के अनुसार उत्तर दिया " वह आदित्य इसकी ज्योति है । " राजा ने पूछा , " जगत् का प्राणभूत यह आदित्य जब अस्त हो जाता है तब यह पुरुष किस प्रकाश वाला होता है ?"
हे सौम्य ! मुनिवर्य याज्ञवल्क्य ने कहा " तब अग्नि रूप प्रकाश वाला यह होता है । " { अर्थात् तब दीपक जला कर व्यक्ति देख सकता है । } वर का कवच पाकर निडर हुए राजा ने पुनः प्रश्न किया " आग भी बुझ जाये तब इसकी ज्योति क्या होती है ? " मुनिश्वर ने भी सहज उत्तर दिया " वाक् । " { अर्थात् ऐसे सूर्य - चन्द्र - वह्निरहित अंधकार में शब्द के सहारे व्यवहार हो जाता है । } इस प्रकार महर्षि ने राजा को सूर्य , चन्द्र , अग्नि और वाक् { शब्द } इन 4 चार को पूर्वपूर्व के अभाव में नियमतः प्रकाश बताया और वे प्रकाशन किस तरह करते हैं यह भी समझाया { कि आदित्यादि तत्तत् ज्योति से यह पुरुष उठने - बैठने चलने आदि का कार्य करता है } । लोग में आदित्य , चन्द्र या अग्नि में से किसी एक प्रकाश द्वारा सर्प आदि से वर्जित अनुकूल स्थान देखकर व्यक्ति वहाँ बैठता है, घर खेत आदि भूतल पर चलता है और ऐहिक आमुष्मिक फल देने वाले कर्म करता है तथा खेत आदि से लौट कर घर भी आ जाता है । जिस घनघोर अंधेरे में अपना हाथ भी नहीं सूझता वहाँ भी बैठना आदि सभी काम वाणी से कर ही लेता है । कोई बता देता है " यह जगह बैठने के अनुकूल है " तो व्यक्ति वहाँ आराम से बैठ जाता है । इसी तरह अंधेरे में घूमना फिरना भी हो जाता है । इसीलिये प्रकाशक - समुदाय में मुनि ने वाणी को भी गिन लिया क्योंकि प्रकाश का कार्य अंधकार में व्यवहार संपादन वाणी भी कर लेती है । शास्त्र भी शब्द को अग्नि आदि की तरह ज्योति मानता है , इससे भी मुनि ने यहाँ उसे गिन लिया । { यज्ञादि से सम्बद्ध द्रव्यादि का प्रकाशन मन्त्र करते हैं ऐसा कर्मकाण्ड में माना गया है , अतः प्रकाशन करने वाले होने से शब्दरूप मन्त्र ज्योति कहे जाने योग्य हैं । } राजा ने भी हर प्रश्न के उत्तर में जिस ज्योति का नाम सुना उसे इस पुरुष के प्रकाशक रूप से स्वीकार किया । { आत्मरूप प्रकाश के लिये आदित्यादि का प्रकाश उदाहरण है यह राजा समझ रहा था , अतः उनकी प्रकाशता में विवाद करने नहीं लगा । } 
पूर्वविचार से नियम स्थापित हुआ कि पुरुष के सभी व्यवहार पुराषातिरिक्त प्रकाश के रहते ही सम्पन्न होते हैं , जैसे जाग्रदवस्था के उठना - बैना आदि व्यवहार । जाग्रत्कालिक प्रकाशों का निर्णय अधिक कठिन नहीं किन्तु स्वप्न में प्रकाश किसका है यह निश्चय मुश्किल है , अतः राजा ने तद्विषयक प्रश्न किया " हे सौम्य ! " यह बताते हैं : राजा ने जाग्रदवस्था की अनेक ज्योतियों के बारे में पूछने के बाद बुद्धियुक्त पुरुष के स्वप्न जो प्रकाशक होता है , उसके बारे में प्रश्न उठाया " हे मुनिश्वर ! जहाँ वाणी भी उपशान्त हो जाती है उस स्वप्न अवस्था में पहुँचा पुरुष किस प्रकाश वाला कहा गया है ? " ।
जैसे जागरण में नेत्र हमेशा ज्योति नहीं बनता क्योंकि आदित्यादि के प्रकाश के बिना अंधकार से मानो ढका होने पर देख नहीं पाता , जैसे ही मन स्वप्न में विद्यमान होने पर भी आवरण के अभिभावक सहकारियों के अभाव में ज्योति या प्रकाशक नहीं बन पाता । रूपादि विषय ग्रहण करने में नेत्र पर अनुग्रह करने वाले जैसे सूर्य , चन्द्र व अग्नि हैं वैसे ही मन ग्रहण कर सके इसके लिये सहायक इन्द्रियाँ हैं और वे स्वप्नदशा में विलीन रहती हैं , कार्यकारी होती नहीं । किं च स्वप्नावस्था में पहुँचा मन तो मिट्टी जैसा हो जाता है क्योंकि स्वप्नदृश्य सभी पदार्थों का वह उपादान होता है ! { एवं च घटोपादान मिट्टी जैसे घटप्रकाशक नहीं होती वैसे ही स्वाप्नोपादान मन स्वाप्नों का प्रकाशक नहीं हो सकता ।} मन को स्वप्न में नेत्रतुल्य मानो चाहे मिट्टी के तुल्य , वह तब विद्यमान होकर भी अपने से भिन्न ज्योति के बिना प्रकाशक बन नहीं सकता । इसलिये स्वप्न के सब ज्ञान कराने वाला प्रकाश क्या है ? यह राजप्रश्न का अभिप्राय है । { स्वप्न में मन नेत्रतुल्य इस दृष्टि से है कि समने के दृश्यों का उपादान अज्ञान माना जाता है तो जाग्रत् के संस्कारों का धारण करना रूप व्यापार वाला करण मन स्वीकारा जाता है । तब भी जैसे नेत्र प्रकाशापेक्ष है ऐसे मन को भी स्वातिरिक्त प्रकाश की अपेक्षा रहेगी ही । स्वाप्न वस्तुओं का उपादान मन ही है ऐसी भी एक प्रक्रिया है , तब तो उपादानत्व में उपक्षीण मन जरूर प्रकाशाकांक्ष हो यह उचित है । प्रक्रियाविरोध इसलिये नहीं कि मन भी अविद्या की ही एक अवस्थाविशेष है । }
हे सौम्य ! इस प्रश्न पर भी "पूर्वोक्त आत्मोपदेश " का स्मरण दिलाते हुए राजा को मुनि ने समझाया कि स्वप्न में वह आत्मा ही प्रकाशरूप है जो मन को बिना व्यवधान के जानता है , स्वतः दीप्तिमान् है । यह जीव सपने में आत्मप्रकाश से ही बैठता है , घर आदि में घूमता है , इहामुष्मिक - फलक कर्म करता है । जैसे जागरण में खेतादि से घर तक , सूर्यादि के सहारे लौटता है , वैसे ही सपने में जिस प्रकाश के सहारे लौटता है वह आत्मा ही है ।
इस प्रकार " हे सौम्य ! " महामुनि ने उसी अभय - आत्मतत्त्व को ज्योतिरूप से स्पष्ट कर पुनः समझाया जिसे पहले " इन्ध " नाम से प्रतिपादित किया था क्योंकि स्वप्न में अन्य कोई प्रकाश अर्थात् ज्ञानोपाय न रहने पर भी परापेक्षारहित प्रकाश होने से नाना रूपों वाली बुद्धि को प्रकाशित करते हुए वही कार्य सम्पन्न करता है जो कहीं भी प्रकाश किया करता है ।
हे सौम्य ! यद्यपि आत्मा प्रकाशरूप है यह जाग्रदवस्था में समझा सकते हैं तथापि स्पष्टतर होने से सुगम है अतः स्वप्न में आत्मा के उस स्वस्वरूप का श्रुति ने उपन्यास किया है । सब का उत्पादक और बुद्धि का इकलौता प्रकाशक आत्मा है यह स्वप्न में सभी को स्वीकारना सरल होता है । यों सर्वहेतु - प्रकाशता उस अवस्था में लेने पर जाग्रद् में भी वैसा ही है यह ज्ञान होना आसान है ।
हे सौम्य ! जैसे ईश्वर सभी कुछ रच देता है ऐसे ही हम सभी को साक्षात् यह आत्मा स्वप्नावस्था में प्रकाशकरूप से प्रतीयमान रवि , चन्द्र , अग्नि, वाणी आदि और प्रकाश्यरूप से प्रतीयमान रथ , मार्ग आदि सभी को रच देता है । सूर्यादि जिन पर अनुग्रह करते हैं उन नेत्रादि सभी इन्द्रियों को , महाभूत , देश , काल , दिशाये , स्थावर - जंगम ऊँचे - नीचे प्राणी , समुद्र, नदियाँ , द्वीप , मेरु , आदि पर्वत , पातालादि नीचे के सातों व भूः आदि ऊपर के सातों विशाल लोक - इन सभी को स्वप्न में आत्मा उत्पन्न कर लेता है । विभिन्न वैभवों से अलंकृत इन्द्रादि लोकपालों की सृष्टि भी स्वप्नलोक में हो जाती है । लोकपाल हैं : इन्द्र , अग्नि , यम , रक्षः , वरुण, पवन { वायु } , कुवेर , महेश , ब्रह्मा और शेषनाग । स्वप्न में उत्पन्न होने वाले इतने ही नहीं , विष्णु आदि अन्य देवदेह एवं विभिन्न पशु - पक्षी - वनस्पति आदि जातियों के राजा भी वहाँ पैदा होते हैं । स्थूल, सूक्ष्म , अपरोक्ष , परोक्ष ब्रह्माण्ड आदि जो कुछ भी है उस सब को यह अकेला आत्मा ही उत्पन्न करता है । ऐसा भगवान श्री याज्ञावल्क्य ने राजन को समझाया ! सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

Comments

Popular posts from this blog

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

गायत्री मन्त्र का अर्थ

गायत्री मन्त्र का अर्थ ॐ भूर्भुवः स्वः " तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् " । =========================================== जप के पूर्ण फल को या इष्ट की असीम कृपा का भाजन बनने के लिए और जप के समय मन को अनेक कल्पनाओं से विरत करने का साधन मन्त्रार्थ चिन्तन है । इस परम शक्तिशाली गायत्री मन्त्र का अर्थ मैने अनेक लोगों के दूवारा लिखा देखा है । और उन पर व्यंगबाणों की बौछार भी । जो आप सब मनीषी इससे पूर्व पोस्ट में देख चुके हैं । इस मन्त्र का " तत् " और "यो " तथा " भर्गो " शब्द विद्वत्कल्पों की जिज्ञासा के विषय बने रहे । आलोचकों का मुहतोड़ उत्तर दिया जा चुका है । उससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का शमन भी हुआ होगा । पर कुछ अनभिज्ञों ने तो "भर्गो " की जगह " भर्गं " करने का दुस्साहस भी किया ; क्योंकि " भर्गं " उन्हे द्वितीया विभक्ति का रूप लगा और " भर्गो " प्रथमान्त पद । पहले हम भर्ग शब्द पर चर्चा करते हैं --- भर्ग शब्द हमारे सामने हिन्दी रूप में उपस्थित होता है और जब उसका संस्कृत रूप में...

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~~~~~~~~~ { १ } ~~~~~~~~~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~~~~~~~~~ { १ } ~~~~~~~~~~~   █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! बृहदारण्यक उपनिषद् में आता है कि शिष्य ने गुरु के मुख से आत्मा के अनुभव से संबद्ध अनेक प्रकार की कथायें सुनकर पुनः जिज्ञासा प्रकट की : हे भगवन् ! आपने कृपाकर महर्षि ऐतरेय द्वाना प्रतिपादित , महामुनि कौषितकि द्वारा एवं भगवान् आदित्य द्वारा उपदिष्ट नाना प्रकार के इतिहासों और कथाओं समेत आत्मज्ञान मुझे सुनाया । पहले अधिकारिजनों ने आपस में क्या विचार किया , किस निश्चय पर पहुँचे यह बताया । फिस महाराजा इन्द्र ने प्रतर्दन को , राजर्षि अजातशत्रु ने बलाकि गार्ग्य को , महर्षि दध्यङ्ङाथर्वण ने अश्विनिकुमारों को जिस तरह परमात्मा का उपदेश दिया वह क्रमशः सुस्पष्ट किया । तदनन्तर ऋषिप्रवर याज्ञवल्क्य का विविध ऋषियों से जो ब्रह्मज्ञान - विषयक संवाद हुआ वह आपने विस्तार से समझाया । सभी प्रसंगों में तरह - तरह से परमात्मा के साक्षात् स्वरूप का और उसके साक्षात्कार के उपायों का यथाशास्त्र युक्तियुक्त वर्णन आपने किया । भगवन् मेरी अभिलाषा है कि आपकी कृपा से मैं ...