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महामृत्युंजय मंत्र


महामृत्युंजय मंत्र


मंत्रो का हमारे जीवन में अत्यधिक प्रभाव है , मंत्रो के शुद्ध उच्चारण से मनुष्य एवं जीव जंतुओं के जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ता है , किन्तु अशुद्ध बोले गए मन्त्र अपना उचित प्रभाव नहीं छोड़ पाते एवं अनिष्ट का भय बना रहता है |
महामृत्युंजय मंत्र एक ऐसा महा मन्त्र है जो मानव जीवन पर सर्वाधिक मंगलकारी है | शोक , मृत्यु भय , अनिश्चता , रोग , दोष का प्रभाव कम करने में , सर्वनाश करने में महामृत्युंजय मन्त्र अत्यंत लाभकारी है | जिन मनुष्यों में अपनी मृत्यु को लेकर सदैव भय बना रहता है और जो सांसारिक मोहमाया का परित्याग नहीं करना चाहते ऐसे मनुष्यों के लिए यह मन्त्र अत्यंत लाभकारी है | किन्तु महामृत्युंजय मन्त्र को अशुद्ध बोलने से ना तो इस महा मन्त्र का लाभ मिलता है बल्कि अनिष्ट होने का भय भी होता है | यदि महा मृत्युंजय मन्त्र के बाद में गायत्री मन्त्र का जाप किया जाए तब महामृत्युंजय मन्त्र का प्रभाव अत्यधिक बढ़ जाता है एवं अशुद्ध रूप से बोले जाने पर अनिष्ट का भय भी समाप्त हो जाता है |
इस महा मन्त्र की महिमा एवं इसके साथ बोले जाने वाले अन्य लाभकारी मन्त्र उपासना का विवरण निचे दिया जा रहा है | स्वयं ज्ञान के आधार पर यह जानकारी सही मानते हुए एक विद्वान के ब्लॉग से लिया गया है |
महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। यह मंत्र निम्न प्रकार से है-
एकाक्षरी(1) मंत्र- 'हौं'
त्र्यक्षरी(3) मंत्र- 'ॐ जूं सः'
चतुराक्षरी(4) मंत्र- 'ॐ वं जूं सः'
नवाक्षरी(9) मंत्र- 'ॐ जूं सः पालय पालय'
दशाक्षरी(10) मंत्र- 'ॐ जूं सः मां पालय पालय'

(
स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो 'मां' के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)
वेदोक्त मंत्र-
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ' लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे 'त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।
इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।
मंत्र विचार :
इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
शब्द बोधक शब्द बोधक
'
त्र' ध्रुव वसु 'यम' अध्वर वसु
'
' सोम वसु 'कम्‌' वरुण
'
' वायु '' अग्नि
'
' शक्ति 'हे' प्रभास
'
सु' वीरभद्र '' शम्भु
'
न्धिम' गिरीश 'पु' अजैक
'
ष्टि' अहिर्बुध्न्य '' पिनाक
'
र्ध' भवानी पति 'नम्‌' कापाली
'
' दिकपति 'र्वा' स्थाणु
'
रु' भर्ग '' धाता
'
मि' अर्यमा '' मित्रादित्य
'
' वरुणादित्य 'न्ध' अंशु
'
नात' भगादित्य 'मृ' विवस्वान
'
त्यो' इंद्रादित्य 'मु' पूषादिव्य
'
क्षी' पर्जन्यादिव्य '' त्वष्टा
'
मा' विष्णुऽदिव्य 'मृ' प्रजापति
'
तात' वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।
शब्द की शक्ति-
शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-
शब्द शक्ति शब्द शक्ति
'
त्र' त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र '' यम तथा यज्ञ
'
' मंगल '' बालार्क तेज
'
कं' काली का कल्याणकारी बीज '' यम तथा यज्ञ
'
जा' जालंधरेश '' महाशक्ति
'
हे' हाकिनो 'सु' सुगन्धि तथा सुर
'
गं' गणपति का बीज '' धूमावती का बीज
'
' महेश 'पु' पुण्डरीकाक्ष
'
ष्टि' देह में स्थित षटकोण '' वाकिनी
'
र्ध' धर्म 'नं' नंदी
'
' उमा 'र्वा' शिव की बाईं शक्ति
'
रु' रूप तथा आँसू '' कल्याणी
'
' वरुण 'बं' बंदी देवी
'
' धंदा देवी 'मृ' मृत्युंजय
'
त्यो' नित्येश 'क्षी' क्षेमंकरी
'
' यम तथा यज्ञ 'मा' माँग तथा मन्त्रेश
'
मृ' मृत्युंजय 'तात' चरणों में स्पर्श
यह पूर्ण विवरण 'देवो भूत्वा देवं यजेत' के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।
महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ। मंत्र निम्नलिखित हैं-
तांत्रिक बीजोक्त मंत्र-ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥
संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।
महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

1.
जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
2.
एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
3.
मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
4.
जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
5.
रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
6.
माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
7.
जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
8.
महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
9.
जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
10.
महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
11.
जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
12.
जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
13.
जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
14.
मिथ्या बातें न करें।
15.
जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
16.
जपकाल में मांसाहार त्याग दें।
कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है-

(1)
ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2)
किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3)
जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4)
हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5)
राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6)
धन-हानि हो रही हो।
(7)
मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8)
राजभय हो।
(9)
मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10)
राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11)
मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12)
त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।
महामृत्युंजय जप मंत्र
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
महामृत्युंजय जपविधि - (मूल संस्कृत में)
कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये।
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।
भूतशुद्धिः
विनियोगः
ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।
आसनः
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥
अथ प्राण-प्रतिष्ठा
विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।
डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।

एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥
॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥जप‍
अथ महामृत्युंजय जपविधि
संकल्प
तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।
विनियोग
अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।
अथ यष्यादिन्यासः
ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।
॥ इति यष्यादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट् ।
॥ इति करन्यासः ॥
अथांगन्यासः
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥
अथाक्षरन्यासः
त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,कं नमः,यं नमः,जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,सुं नमः,गं नमः,धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,रुं नमः,कं नमः,मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,धं नमः,नां नमः,मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥
अथ पदन्यासः
त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं दृशोः ।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः गुह्ये ।
मुक्षय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥

मृत्युंजयध्यानम्‌
----------------

हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥
अथ बृहन्मन्त्रः-

ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
समर्पण
एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥
॥ इति महामृत्युंजय जपविधिः ॥

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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...