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अथ निदिध्यासनम्


<<अथ निदिध्यासनम् >>





नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है ।
" वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं :
" निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ ।
न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ "
आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर सकता । मान लें को कह दिया जाये कि" भाई ! तुम दुकान पर पहुँच जाना , मैं सत्संग करके पहुँच जाऊँगा । तुमसेहमें जो एजेन्सी लेनी है उसकी लिखा - पढ़ी कर देना । " अब सर्व - कर्म - त्याग तो हुआ नहीं । इसलिए उस दिनसत्संग में बीच - बीच में घड़ी के ऊपर आँख जाती है । यह कर्म का स्वरूप है ,स्वभाव है । निरन्त विचार नहीं हो पाएगा। क्योंकि दूसरी वृत्ति बनती रहेगी " बजे कितने ? " कईबार लोग सत्संग आदि को लिखने लगते हैं; इसका नाम निदिध्यास नहीं है । हम उन लिखने वाले लोगों से कहते हैं किज्यादा लिखोगे तो निदिध्यासन नहीं हो पाएगा क्योंकि वृत्ति आपकी लिखने में जाएगी ।कई लोग भजन भी कर रहते हैं और सत्संग भी । कई व्यक्ति तो इससे भी आगे बढ़ जाते हैं- यह भी देखने लगते हैं कि कौन - कौन किस - किस रंग के कपड़े पहनकर आया है ,किसने दाढ़ी कैसे बनाई ! बाद में कहतेहैं कि " अमुक आदमी दाढ़ी कैसे बनाकर आया था " ! औरइसी प्रकार अक्सर औरते साड़ी इत्यादि में वृत्ति लगाये रहतीहै। सत्संग का लाभ क्या मिला अगर वृत्ति कहीं और ही लगी रही ? यहसब होगा तो श्रवण " अंतरित" हो जायेगा । निरन्तर जो विचार है, बीच में कोई " अन्तर " न होवे , वही निदिध्यासन कहलाता है । जितना चित्त एकाग्र होगा उतना ही आपका निदिध्यासन बनेगा । चित्त की एकाग्रता का साधन क्या है ? " सर्वकर्मत्याग " । जब तक चित्त दूसरी चीजों की ओर लगा है तब तक निदिध्यासन की विद्या नहीं आती ।
कईबार मनुष्य कहते हैं कि कर्मों को त्यागने की जरूरत क्यो पड़ी ? कर्मत्याग अदृष्ट फल के लिए नहीं है । शास्त्रकार यह बताते हैं कि फल दो तरह के होते हैं - " दृष्ट " और " अदृष्ट " ।जैसे आपने दूध लेकर श्रीगङ्गा जी में पूजा के लिए डाला । उसका फल कैसा है?" अदृष्ट" । आपने एक गरीब के लड़के को दूध पिलाया , इसका फल कैसा है ? " दृष्ट " , क्योंकि लड़के को प्रतिदिन आप दूध पिलाते रहो , आप देखोगे कि लड़का और बलशाली हो रहा है । फल तो दोनों का है एक अदृष्ट और दूसरे दृष्ट फल हैं । वेदान्त शास्त्र दृष्ट फल बालामाना गया है । " धर्म - जिज्ञासा " और " ब्रह्म - जिज्ञासा " दो शास्त्र हैं । " महर्षि जैमिनि" ने " धर्म - जिज्ञासा" लिखी , और " महर्षि बादरायण " ने " ब्रह्म - जिज्ञासा " लिखी। " आचार्य बादरायण " ने समझाया कि वेदों का तात्पर्य ब्रह्म है । " धर्म - जिज्ञासा " का क्षेत्र अदृष्ट फल वाला है और " ब्रह्म -जिज्ञासा " का फल दृष्ट फल वाला । धर्म का फल मरने के बाद मिलेगा और ब्रह्मजिज्ञासा काफल यहीं मिलेगा । वेदान्ती यह कभी नहीं कहता कि " तुम यहाँ ब्रह्मजिज्ञासा करो और मरकर मुक्त होवो !" मान लें डॉक्टर ने एक रोगी कोऔषधि दी लेकिन रोग ठीक नहीं हुआ तो डॉक्टर यह नहीं कहता कि " इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ठीक होजाओगे ! " इसी प्रकारवेदान्त शास्त्र तो यहाँ फल देता है । वेदान्ती यह नहीं कहता कि " इस जन्म में श्रवण किया है तो चलो मरने के बादमुक्त हो जाओगे ! " यह ठीकहै कि श्रवणादि साधन करने पर भी फललाभ का अनुभव हुए बिना मर गये तो " न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति" आदि के अनुसार यहाँ किये श्रवणादि का फल आगे पर लोगे , लेकिन श्रुतिभगवती यह कहती है कि यदि यहाँ तुमको वह आनन्द मिल गया तब तो हमारे ब्रह्मनिष्ठ शास्त्र को सत्य मानो नहीं तो समझो बेकार ही कहा गया है " इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति"। इस प्रकार ब्रह्मजिज्ञासा और धर्मजिज्ञासामें फर्क है । एक में दृष्टफलता है दूसरे के अदृष्ट ।
नारायण! वेदान्त शास्त्र में बार - बार कहा जाता है कि कर्म का त्याग आवश्यक है . कर्मके त्याग से कोई अदृष्ट फल ही होता है ऐसा नहीं , दृष्ट फलभी होता है । कर्म का त्याग करनेसे आपकी वृत्ति अन्य किन्हीं चिन्ताओं की तरफ नहीं जाती इसलिए आपका निदिध्यासन बनजाता है । कई बार लोग यह कहते हैं कि " जनक तो राजा बने रहे , उनको ज्ञान प्राप्त कैसे हो गया ? " राजा थे तो क्या! कोई योग्य मन्त्री मिल गयाहोगा जो उनको राज्यकार्य देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी ! यहाँ तो दृष्ट फल हैइसलिये " वार्तिकार भगवान श्रीसुरेश्वर " ने स्पष्टकरते हुए कह दिया है कि जनक गृहस्थ रहकर जीवन्मुक्त भले ही हो गये हों पर उत्सर्ग- सामान्य नियम यही है कि " सर्वकर्मत्यागी" की बुद्धि अत्यधिक स्वस्थ रहपाती है । आप आज दुकान के मालिक हो । आपको अच्छा मुनीम मिल गया , तो आपका काम बन गया । आपका काम चल रहा है परसारी चिन्ता मुनीम के सिर पर छोड़कर आप निरन्तर सत्संग कर लेते हैं । लेकिन लोग यहीकहेंगे कि " केवल दुकानदारी करते ही ज्ञान हो गया ! " इसके विपरीत यदि आप पान की दुकान करते हैं , उस दुकान पर आपको दिन भर काम करना पड़ता है , तो ज्ञान कैसे होगा ? आपको भी दुकानदारी करते हुए ज्ञान नहीं हुआ । ऐसी बातजो लोग कहते है कि " दुकानदारीकरते हुए ज्ञान हो गया " वेभूल जाते हैं कि जो दुकानदार को ज्ञान हुआ या राजा को ज्ञान मिल गया वह ज्ञान राज्य करते रहने से नहीं , दुकानदारी करते रहने से नहीं मिला । दुकानदारी तो योग्य मुनीमों ने की तब दुकानदार को ज्ञानहुआ ।
नारायण ! सर्व - कर्म - त्याग का फल दृष्ट है ,हमें अन्य विचारों से निर्मुक्त होकर आत्मानुसन्धान में ही लगना है । मान लें कोई नौकर है । नौकरी नहीं छोड़ सकता है ,काम भी करना पड़ रहा है । लेकिन साल मेंदो महीने की छुट्टियाँ ले सकता है । साल में दो महीने की छुट्टि लेकर वेदान्त श्रवण में लग गया तो निदिध्यासन कर लेगा । यह जरूरी नहीं कि नौकरी से इस्तीफा देकरही होगा । यदि किसी की शाम को छह बजे प्रतिदिन आफिस से छुट्टी हो जाती है और कोईविशेष काम उसे छह बजे के बाद नहीं है और उसने नियम बना लिया कि शाम को वेदान्त श्रवण करना है , और वेदान्त -श्रवण में लग गया तो इस प्रकार उसने निदिध्यासन कर ही लिया । अतः सर्व - कर्म -त्याग के फल को ही निदिध्यासन कहा गया है । किसी भी प्रकार से अन्य चिन्ताओं सेनिर्मुक्त होने पर जो चीज़ समझी जाती है , उसे मनुष्य सही और हमेशा के लिए समझ जाता है ।
नारायण ! अन्य चिन्ताओं के रहते जो सूक्ष्म तत्त्वहोता  वह जल्दी समझ में नहीं आता। दो तरह की सुइयाँहोती है - एक सुई बोरा - थैला सीने की और एक होती है सितारे लगाने या कपड़े आदि सीने की । बोरा - थैला सीने वाली सुई करीब - करीब पाँच इन्च की होती है और सितारे लगाने वाले या कपड़े सीने वाली सुई केवल आधे इन्च की होती है । यदि आपको बोरा - थैला सीनेवाली सुई में धागा डालना है तो आप दूसरों के साथ गप्प मारते हुए भी उसमें धागा डाल सकते हैं । लेकिन आधे इंच की सुई मेँ , जिसका छेद अत्यन्त ही छोटा है , धागा डालते समय यदि आप दूसरों से गप्प मारते रहेंगे तो उसमें धागा डलनेवाला नहीं । अर्थात् सलमा - सितारे लगाने वाली सुई में धागा डालने के लिए एकाग्रता की आवश्यकता है । इसी प्रकार इनकम टैक्स की रिटर्न भरनी है तो मनः स्थिति स्थिरहोने पर ही भर सकते हैं । जो चीज़ जितनी सूक्ष्म होगी उसके लिए आपको उतनी ही एकाग्रता अपेक्षित होगी । आत्मा क्योंकि सूक्ष्मतम है इसलिए उसके लिए सर्वाधिक एकाग्रता की आवश्यकता होती है । सलमा - सितारे की सुई का काम करते समय आपको आवश्यकताहै एकाग्रता की । इसका क्या मतलब कि आप दिन भर उस दिन किसी से बात नहीं करेंगे ?ऐसी बात नहीं है । सितारे की सुई मेंधागा डालते समय ही एकाग्रता की जरूरत है , पूरे दिन नहीं । कार्य सम्पन्न हो जाने पर आप किसी से भी बात कर सकते हैं। इसलिए सर्व - कर्म - त्याग का मतलब यह नहीं कि आप कार्य करें ही नहीं । जिस समय आत्म विचार करना है उसी समय के लिए एकाग्रचित्त रखना पड़ेगा । जब कार्य समाप्त होगया तो और कोई भी काम करें ।
नारायण ! इसका मतलब ज्ञान - कर्म - समुच्चय नहीं ! ज्ञान करते हुए मी तो कर्म किया जाता है । केवल लोग " करते हुए " का अर्थ नहीं समझते । ज्ञान - काल में ही कर्म करें तब समुच्चय है । यह सम्भव नहीं । ज्ञान से पहले तो कर्म जरूरी ही है , जिस ज्ञान को प्राप्त करते हैं वह आगे कर्मकालमें बना रहता है क्योंकि ज्ञान के बाद भी लोकसंग्रह के लिए कर्म सम्भव है ।ज्ञानकाल में कर्म नहीं करना चाहिए । कर्मकाल में ज्ञान रहेगा ही । यदि महानुभावोंका संपर्क नहीं होता है तो उसी बात को पढ़कर आदमी उलटा समझ लेता है । "श्रीमद्भगवद्गीताजी " में " भगवान् श्रीवासुदेव श्रीकृष्ण " ने कहा कि " अधर्म को धर्म समझने की जो बुद्धि है , वह तमोगुणी है " । इसी तरह कर्मत्याग के वारे में समझ ले । मैं अपनेलाभ - हानी को तब देखता हूँ जब मेरे अन्दर ब्रह्म - दृष्टि नहीं रहती क्योंकि नफा- नुकासान परिच्छिन्न दृष्टि से दीख सकता है , व्यापक अद्वय दृष्टि से नहीं । अतः ब्रह्मदृष्टि पानेके लिए परिच्छिन्न दृष्टि छोड़नी ही पड़ेगी , लाभ - हानी की दृष्टि छोड़नी ही पड़ेगी , अर्थात् कर्मत्याग जरूरी हुआ । लाभ - हानी कोसच्चा भी मानते रहें और अद्वैत ब्रह्म भी समझ लें यह होने वाला नहीं । एक सज्जनसुना रहे थे , " स्वामी जी ,रुपया तो हम एक दल को देते हैं ,लेकिन हम उसको अच्छा नहीं समझते ,बोट तो दूसरे दल को ही देंगे" । हम समझ गये कि उनके चित्त मेंएकाग्रता नहीं है , एक निर्णय नहीं है । जिस दिन एक निर्णय होगा , उस दिन यह नहीं होगा कि जगत् को सत्य भी मान लें और मिथ्या भी । जगत् -सत्यत्वादी यह देखता है कि मेरे को क्या मिलेगा । मेरा कौन है ? शरीर , मन और इन्दियाँ । जगद् - मिथ्यात्ववादी मैं को देखता है , मैं को , " आत्मा " को क्या मिलेगा। जब तक किसी भी कार्य को करने मेंआपमें यह भाव रहे कि शरीर , मनऔर उसके सम्बन्धियों को क्या मिलेगा , तब तक समझ लें कि वेदान्त श्रवण का कार्य निदिध्यासन नहीं है । जब निदिध्यासन पूर्वक वेदान्त श्रवण होगा तब शरीर आदि से दृष्टि हटकर आत्मा का चिन्तन करेगा ।
नारायण ! इस प्रकार यह कर्मत्याग दृष्टफलक है ,दृष्ट फल होने के कारण जितना कर सकेउतना तो अवश्य करें । जितना समय निकाल सकें उतना ही फल देगा । लेकिन उतने काल तक" निदिध्यासन " आवश्यक है ।
                                               ॥ आनन्द ब्रह्मणे नमः ॥
                                                  श्री नारायण हरिः        साभार  
सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र
सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र

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