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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { १० } ~~~
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नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं –
हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश्वर होने से वे उसे स्वयं में ही विलीन भी कर लेते हैं । केवल उत्पात में ही { उत्पत्ति क्रिया में ही } ईश्वरतुल्यता नहीं , उत्पाद्य भी वैसा ही होता है जैसा ईश्वरसृष्ट जगत् है । { इसलिये निश्चित होता है कि जीव उसी प्रकार ब्रह्म है जैसे ईश्वर । ईश्वर की माया और जीव की माया में कुछ भेद भले ही हो , जीव ईश्वर में भेद नहीं । दोनों की माया है तो अज्ञानरूप ही । दृष्टिसृष्टि या वाचस्पत्य प्रक्रिया में तो स्पष्ट ही जगद्धेतुता जीव में रह जाती है । उन प्रक्रियाओं में जीव - ईश्वर दो पदार्थों का अभेद कैसे ? इसका उत्तर है कि उनमें जीव ही ईश्वररूप से सृष्टि आदि करता है अतः पदार्थभेद प्रसिद्ध हो जाता है । सर्वथापि स्वप्न में स्पष्ट होता है कि केवल अज्ञान का सहारा लेकर आत्मा दृश्य का निमित्त - उपादान बन सकता है और उस दृश्यादि से आत्मा में द्वैत भी आता नहीं , कारण कि वह द्वैत आत्मा से स्वतन्त्र सत्ता वाला नहीं होता । इसीलिये यहाँ याज्ञवल्क्य महर्षि ने स्वप्न का विचार किया है । }
हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य महर्षि बताते है कि " हे राजन् ! " धककती हुई आग से अग्नि के समान रूपादि वाले अग्निकण अर्थात् चिन्गारियाँ जैसे निकलते हैं वैसे स्वप्न में स्वप्नद्रष्टा आत्मा से स्वप्नदृश्य प्रमाता उत्पन्न हो जाते हैं । जीव की सृष्टि में क्रम भी उसी तरह होता है जिस तरह ईश्वर की सृष्टि में है । सारे संसार का कारण ब्रह्म जगत् की सृष्टि का प्रसंग होने पर सबसे पहले वह मन पैदा करते हैं जो आगे पैदा होने वाले स्थूल भूतों और उनके कार्यों से युक्त होता है । वह मन ही " हिरण्यगर्भ " का रूप है । यह पैदा हो जाने पर ईश्वर नाम - रूप वाले स्थूल व सूक्ष्म जगत् को विस्पष्ट समझ लेते हैं जो उक्त मन व्यक्त होने से पहले ईश्वर में छिपे हुए थे क्योंकि ईश्वर की उपाधि वे नाम - रूप हैं जो व्यक्त नहीं हैं , छिपे हैं । जैसे ईश्वर वैसे जीव जब गहरी नींद में रहता है तब उसकी उपाधि व्यष्टि { सीमित } अज्ञान होता है और वह अकेला ही , अन्य सहायक के बिना , व्यष्टि { अर्थात् केवल अपने } मन को उत्पन्न कर लेता है और उत्पादित एवं खुद से { आत्मा से } भासित उस मन से वही सब कुछ पैदा कर लेता है।
इस प्रकार महर्षि ने समाझा कि सृष्टि - उत्पादकता आदि की समानता से जीव - ईश्वर में अभेद संगत है ।
हे सौम्य ! महर्षि अब स्पष्ट करते हैं कि वाक्यार्थभूत अभेद निरुपाधि आत्मरूप है जिससे वाक्य के अभिप्राय में संदेह का कोई स्थान नहीं । विविध प्रमाता - अर्थात् जीव - ब्रह्म से अलग प्रतीत होते हैं इसमें हेतु बनते हैं सूक्ष्म शरीरों समेत स्थूल शरीर । जैसे छोटा घटा और बड़ा घर दोनों ही आकाश की उपाधि बन जाते हैं , ऐसे ही दोनों तरह के शरीर आत्मा की उपाधि बन जाते हैं । आकाश बाहर , घर में व घट में विद्यमान होने पर भी आकाश में कोई विलक्षणता नहीं आ जाती है , वह एकरूप ही बना रहता है । सारा भेद घर , घड़ा आदि उपाधियों में ही होता है । इसी तरह स्थूल व सूक्ष्म शरीरों में विषमताएँ मौजूद हैं , स्वरूपतः चिद्रूप परम ब्रह्म में कहीं कोई भेद है ही नहीं ।
यद्यपि उपहित ही अभिन्न - स्वरूप है तथापि विचार करें तो उपाधियाँ भी किसी सत्य भेद से लांछित नहीं हैं । हर प्रमाता के लिये व्यापार करने वाला एक - एक मन है जो सूक्ष्म शरीर का प्रधान अंग है , अतः " मन " शब्द से सूक्ष्मशरीर भी कह दिया जाता है । अव्यक्त उपाधि वाले ब्रह्म { ईश्वर } का सूक्ष्म - शरीर जैसे पूर्वोक्त " हिरण्यगर्भ " है , उसी तरह जीव का सूक्ष्मशरीर है मन । जैसे ईश्वर उस हिरण्यगर्भात्मक धागे से स्थूल संसार रूप कपड़ा बुन लेता है वैसे ही व्यष्टिउपाधि वाला पुरुष स्वप्न आदि में ऐसे संसाररूप कपड़े को बुन लेता है जिसमें धागा होता है सिर्फ मन ! { इसलिये ईश्वर व जीव की उपाधियाँ भी एक ही हैं क्योंकि वे करती इतना ही हैं कि आत्मा स्थूल प्रपञ्च पैदा कर ले।}
बड़ी - छोटी होने पर भी उपाधियाँ कोई सर्वथा अलग पदार्थ नहीं हैं । आग के रहते हुए भी धक - धक जले तो अनेक समूहों में पुनः - पुनः चिनगारियाँ निकलने लगती हैं । चिनगारी भी है तो अग्नि ही लेकिन उड़ते हुए पार्थिव अंश जब उपाधिरूप से आग से सम्बद्ध होते हैं तब उसे उतना छोटा प्रतीत कराते हैं जितने वे स्वयं हैं । ऐसे ही सूत्रात्मारूप एक परमात्मा से जन्तुओं के मन निकल आते हैं अर्थात् स्थूलशरीररूप उपाधियों से युक्त होकर ऐसे हो जाते हैं कि शरीरभेद के कारण वे भी विभिन्न समझे जाते हैं और नाना प्रकारों के कार्यों में हेतु बनते हैं ।
जैसे बड़ी आग जलाती है और प्रकाशित करती है वैसे ही चिनगारियाँ भी जलती और प्रकाशित करती हैं , भले ही उनका दाह्य और प्रकाश्य अत्यल्प हो ! सूत्रात्मा जैसे विश्व को उत्पन्न - विलीन - रक्षित करता है ऐसे ही सभी देहधारियों के मन शयनावस्था में स्वप्न जगत् को उत्पन्न करते हैं , व्यवस्थित रखते हैं और समाप्त कर देते हैं ।
हे सौम्य ! महर्षि से यहाँ तक बताया कि समष्टि { ईश्वर } और व्यष्टि { जीव } के तटस्थ लक्षण में - सृष्टिहेतुता में - पूरी समानता है । अब बता देते हैं कि इनके स्वरूपभूत लक्षण में भी कोई अन्तर नहीं । आग का अपना आकार या स्वरूप है तेज { गर्मी } और लाल रंग { प्रकाश } । यह स्वरूप जैसा ज्वाला में है वैसा चिनगारी में भी । इसी तरह सूत्रात्मा और मन का भी स्वरूप जो सूक्ष्मतादि हैं , वे सर्वथा एक है । सूक्ष्म समष्टि की दृष्टान्तभूत वह्नि और व्यष्टि की दृष्टान्तभूत चिनगारियाँ दोनों अपने कारणभूत तेजोरूप महाभूत के समान हैं क्योंकि इनके धर्म व कार्य वे ही हैं जो तेजतत्त्व के । ऐसे ही सूत्रात्मा और मन दोनों का कारण है कारणोपाधिक ईश्वर । ईश्वर जैसे सृष्टि आदि सामर्थ्य वाला है वैसे ही सूत्र और मन भी , अतः उसी के समान हैं । ज्वाला और चिनगारी तेजोरूप तो एक - से हैं , उनमें भेद उनकी उपाधियों का ही है । उनका निजी रूप जो तेजस्त्व है उसमें कोई अन्तर नहीं । लम्बा आकार आदि जिस उपाधि से है वह लकड़ी आदि लम्बी होती है , छोटा आकार आदि जिसमें है वह उपाधि पार्थिव - कण छोटा होता है । उपाधियों का ही भेद है , वह्नि एक ही है । इसी तरह सूत्रात्मा और मन का स्वरूप एक ही है , उसमें भेद नहीं । भेद तो समष्टि - स्थूलरूप विराट् शरीर और व्यष्टि - स्थूलरूप स्थूलशरीर - इन उपाधियों से है । विराट् एक है अतः सूत्रात्मा एक प्रतीत होता है , मन अनन्त हैं तो प्रमाता { जीव } अनन्त प्रतीत होते हैं । विचार से तो जैसे अव्यक्तोपाधि अज्ञानरूप है वैसे ही मन भी अज्ञानरूप ही है , इसमें कोई भेद नहीं ।
सावशेष ......

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