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Showing posts from 2014

आत्मभाषा

लाख - लाख झोपड़ियों में तो छाई हुई उदासी है । सत्ता - सम्पत्ति के बंगलों में हँसती के पूरनमासी है ।। यह सब हम न चलने देंगे हमने कसमे खाई है .....! इस मनोहारी नारा को लगाने वालों में कांग्रेस को छोड़कर ज्यादा राजनेता भागे हुए - " जनता पार्टी " से ( भा ज पा ) वालों ने और लल्लू - मुल्लू ने भी खाई थी । न जाने कितनी बार कसमे खा - खाकर , बाद में सभी ने सत्ता का मलाई खाया । जनता फटेहाल और फटीचर ही आजतक  रही । सुना है " मोदी " जी भी आज उन्हीं नारों को " संस्कृत " में दोहराएंगे । और उनके पीछे - पीछे अंतरी - मंत्री भी दुहराएंगे । आज तक हमारे नेताओं ने " म्लेच्छ भाषा " में कसमे खाई । भोली भाली जनता सब देखती रही । सारे कसमे टूट गये । धुल धूसर हो गये । मेरे भाई - श्री मोदी " आप देवभाषा में संस्कारित भासा में कसमे खाने जा रहे हैं । जड़ा ऋषियों के आत्मभाषा की लाज रखना । फिर बन्दुक की नली पर जनतंत्र पले न , कलम चलाने वालों पर बंदूके चले न , रोजगार मांगने पर कारागार की हवा खानी पड़े न । कसमें टूटे न जनता रूठे न , ध्यान रखना । इसी में राष्ट्र का और आपका मंगल होग...

मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { २ }

! श्री वासुदेव श्रीकृष्णाय नमः !! ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ " मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { २ } : ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ आदरणीय गुरुदेव श्री सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र जी द्वारा आशीर्बाद रूप में प्राप्त  नारायण ! जब कभी हमारे सामने कोई पदार्थ आता है तो तुरन्त उभोग की कामना होती है । बचपन से वृद्धावस्था तक यह क्रम चलता है । बच्चे बढ़ते - बढ़ते युवा हो जाते हैं , हमारी मांस पेशियों मेँ प्रौढ़ता और पुष्टि आ जाती है , पर हमारे मस्तिष्क की स्थिति वही बनी रहती है जो बचपन में थी । जैसे बच्चा किसी भी पदार्थ को देखता है तो तुरन्त उठाता है , उसे हाथ में लेकर खेलना चाहता है , उसके ऊपर अधिकार जमाना चाहता है और यदि उस अधिकार में रुकावट आती है तो अपने को अत्यन्त दुःखी समझता है और सोचता है कि हमारे सामने यह रुकावट क्यों आ रही है , वैसे ही हम बड़े लोग भी करते हैं । जब कोई पदार्थ हमारे सामने आता है , तो उस पर आधिपत्य जमाने के लिए दौड़ते हैं और यदि वह हमारे हाथ में नहीं आ पाया तो बच्चे की तरह ही , सचमुच या काल्पनिक विघ्नकारी विरोध करने लग जाते हैं । छोटा बच्चा जब दौड़कर किसी के जूते उ...

प्रज्ञा अपराध

  प्रज्ञा अपराध पूज्य गुरुदेव आदरणीय श्री सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र जी द्वारा अशिर्बाद रूप में प्राप्त प्रज्ञापराध " ( महानाश का कारण )प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम् । मानव - बुद्धि का अनवधानता से होने वाली भूलेँ ही रोगोँ का मूल कारण है । मानसिक रोगोँ का हेतु तो निश्चित रुप से प्रज्ञापराध ही है । - " ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये । मनोविकाराऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजा "।। अर्थात - जो भी मन के विकार हैँ वे सब प्रज्ञापराध से ही उतप्न्न होते हैँ । मानसिक नीरोगता की प्राप्ति का सर्वोपरि उपाय यही है कि इच्छाओँ मेँ अधिक आसक्ति न रख कर जीवन की आवश्यकताओँ को सीमित करेँ और साधन - बहुलता एवं अतिसंग्रह से दुर रहें । निश्चय ही संतोष और संयम मानसिक प्रसन्नता के आवश्यक अंग हैँ । ऋषियोँ ने गाया है - " स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला । मनसि च सन्तुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्रो " ।। यानी मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता । तृष्णायुक्त धनवान दरिद्र से बुरा और तृष्णा विरत निर्धन , धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ रहता है । संतोष का सम्बल बहुत बड़ी शक्ति है । मन ...

" मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { १ }

सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र !! श्री वासुदेव श्रीकृष्णाय नमः !! ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ " मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { १ } : ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ नारायण ! समरसता का प्रभाव न होना ही मानसिक तनाव का कारण है ! कुछ लोग मानते हैं कि मानसिक तनाव का मूल कारण है अपने स्वरूप से दूर होते चले जाना और अन्य लोगों का कहना है कि संस्कृति के अन्दर होने वाला विकास तनाव का कारण है । जितना अधिक विकास होता है उतना संघर्ष अवश्यम्भावी है , ऐसी इस पक्ष की मान्यता है । नारायण ! हमारे अतिधन्य दार्शनिकों ने इस पर बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया । चित्त के स्वरूप को समझते हुए उन्होंने बतलाया कि चित्त की अनेक अवस्थायें देखने को मिलती है । योगसूत्रकार- भगवान् श्री पतञ्जली ने क्षिप्तता , मूढ़ता , विक्षिप्तता , एकाग्रता और निरुद्धता इन पाँच प्रकार की चित्त की अवस्थाओं को बतलाया है । इन पाँचों प्रकारों को न समझने के कारण ही हम स्वयं अपने चित्त के विषय में कुछ भी समझने में असमर्थ हो जाते हैं । अतिधन्य भगवान् श्री पतञ्जली चित्त के ऊपर सूक्ष्म विचार करते हुए बतलाते हैं कि चित्त की सामान्...

ब्रह्मचर्य और राष्ट्र रक्षा

सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र । श्री गुरुभ्यो नमः ।। " ब्रह्मचर्य और राष्ट्र रक्षा ! " : नारायण ! युद्ध में मनुष्य के साहस का जितना महत्त्व है उतना शस्त्रों के ढेर का नहीं है। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मशक्ति को पोषण मिलता है। व्यक्तियों का जीवन जब केवल काम-वासना के,सम्पत्ति जुटाने के या दोनों के चिंतन में व्यतीत होता है, तब ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त पर प्रहार होता है। जब ब्रह्मचर्य की उपेक्षा की जाती है, तब मनुष्य की आत्मशक ्ति क्षीणहोती है और उसकी सत्ता और सम्पत्ति शक्तिहीन बनती है। कारण कुछ भी हो – चाहे अश्लील साहित्य हो, चलचित्र हों या और कुछ, जिम्मेदार कोई भी हो –कलाकार हो या इन सब कामों का नेता, प्रकृति तो अपना काम करती है। जब राष्ट्र के युवक युवतियाँ ब्रह्मचर्य को छोड़ देते हैं और अपने को काम वासना में खो देते हैं, शिक्षा को सम्पत्ति व काम- वासना के पीछे अपनी बुद्धिमत्ता और ओजस्विता को लुटा देते हैं, तब राष्ट्र अस्त्र-शस्त्रों से कितना भी सुसज्जित हो पर अपना प्रभाव कायम नहीं रख सकता। उसके सारे क्रियाकलाप भ्रांतिमात्र साबित होते हैं। मजबूत आधार के बिना बन...

मनुष्य बनो

सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ═════════ " मनुष्य बनो ! " ═════════ नारायण ! मनुष्य कौन ? जो स्वीकार करते हैं कि वेद ही धर्म और परमात्मा का ज्ञान दे सकता है वे मनुष्य हैं । मोटी भाषा में कहें , तो जो वर्णाश्रम - धर्म को मानने वाले हैं , अर्थात् सनातन - धर्मी हैं , वेद को प्रमाण मानते हैं वे मनुष्य हैं । चार वर्णोँ और चार आश्रमों के अनुसार जो जीवन - निर्माण करने के प्रयत्न में है , उन्हीं हम मनुष्य कहते हैं । मनुष्य शब्द " मनोर् जातावञ्यतो षुक् च " सूत्राकार भगवान् मनु की सन्तान अर्थ में व्युतपन्न होता है । मनु के वंश वाले को मनुष्य कहते हैं । परमात्मज्ञान की अतिदुर्लभता इसलिये है , कि पहले तो चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि मिलना ही दुर्लभ है । हम लोक जब चौरासी लाख योनियाँ कहते है तब उनके अवान्तर भेदों को पृथक नहीं गिनते , मछलियों के अन्दर आगे हजारों तरह के भेद हैं परन्तु मछली को हम एक योनि मान लेते हैं । इसी प्रकार अवान्तर भेद मिलाकर अनन्त योनियाँ हो जाती है । जितने संसार में प्राणी हैं , सब किसी - न - किसी योनि में होंगे ; सब योनियों में से शास्त्र मे...