═════════
" मनुष्य बनो ! "
═════════
नारायण ! मनुष्य कौन ? जो स्वीकार करते हैं कि वेद ही धर्म और परमात्मा का ज्ञान दे सकता है वे मनुष्य हैं । मोटी भाषा में कहें , तो जो वर्णाश्रम - धर्म को मानने वाले हैं , अर्थात् सनातन - धर्मी हैं , वेद को प्रमाण मानते हैं वे मनुष्य हैं । चार वर्णोँ और चार आश्रमों के अनुसार जो जीवन - निर्माण करने के प्रयत्न में है , उन्हीं हम मनुष्य कहते हैं । मनुष्य शब्द " मनोर्जातावञ्यतो षुक् च " सूत्राकार भगवान् मनु की सन्तान अर्थ में व्युतपन्न होता है । मनु के वंश वाले को मनुष्य कहते हैं । परमात्मज्ञान की अतिदुर्लभता इसलिये है , कि पहले तो चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि मिलना ही दुर्लभ है । हम लोक जब चौरासी लाख योनियाँ कहते है तब उनके अवान्तर भेदों को पृथक नहीं गिनते , मछलियों के अन्दर आगे हजारों तरह के भेद हैं परन्तु मछली को हम एक योनि मान लेते हैं । इसी प्रकार अवान्तर भेद मिलाकर अनन्त योनियाँ हो जाती है । जितने संसार में प्राणी हैं , सब किसी - न - किसी योनि में होंगे ; सब योनियों में से शास्त्र में अधिकार मनुष्य को ही है । मनुष्य को ही शास्त्राधिकार है , बाकियों को नहीं । मनुष्य पैदा होना यह पहली दुर्लभता । अनन्त योनियों के अन्दर मनुष्य शरीर की प्राप्ति हो जाये यही पहले दुर्लभ है । बरसात में कितनी तरह के कीट - पतंग आ जाते हैं । ऐक - एक घर में उनकी संख्या लाखों में हो जाती है । गिनते चले जाएं तो एक मोहल्ले में ही इतने हो जायेंग , जितने सारे मनुष्य हैं ! यों गिनें तब पता लगता है कि मनुष्य जन्म मिलना कितना दुर्लभ है । इसलिये भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्कर देशिक जी ने कहा - " जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् " इतनी योनियों में मनुष्य योनि मिल जाये यह दुर्लभ है । आचार्य " दुर्लभं त्रयमेवैतत् " तीन चीजों को दुर्लभ मानते हैं " मनुष्यत्वम् , मुमुक्षुत्वम् , महापुरुषसंश्रयः " । ये दुर्लभ चीजें किससे मिलती हैं ? आचार्य श्रीशङ्कर देशिक कहते हैं " देवानुग्रहहेतुकम् " परमेश्वर के अनुग्रह से । परमेश्वर का अति अनुग्रह होता है तभी मनुष्य शरीर मिलता है । इस बात को अच्छी तरह समझना बड़ा जरूरी है । वर्तमान काल में चारों तरफ योरप वालों का किया हुआ प्रचार तो है कि " हम लोग बन्दर थे , पूंछ घिस गई , इसलिये आदमी हैं ! योरप वाले बन्दर रहे होंगे ; उनके चेहरे - मोहरे हैं तो बन्दरों की तरह ही , व्यवहार भी बन्दरों की तरह का ही है । परन्तु हम लोग न आज बन्दरों जैसे हैं , न हमारे पूर्वज थे । मनुष्य जीवन की दुर्लभता आजकल के लोग नकारना चाहते हैं । हम तो पशु पक्षियों की तरह ही हैं यह उनकी मान्यता है । किन्तु अगर मनुष्य पशु - पक्षियों की तरह हैं , तो उनके आचरणों के बारे में क्यों विचार करके कहते हैं , कि " इसने अमुक अपराध किया ? " शेर किसी को मारता है तो उसको फाँसी नहीं देते । आदमी मारता है तो फाँसी देते हें । आपके देश के अन्दर तो शेर भी रह रहा है । अगर मनुष्य की विशेषता नहीं मानते हो तो मनुष्यों के लिये विशेष नियम क्यों बनाते हो ? मनुष्य जीवन की दुर्लभता को बार - बार विचार कर मन में बैठाना बहुत जरूरी है - मेरे बाबा ।
दुर्लभ मनुष्य शरीर मिल भी गया तो " सहस्रेसु " उनमें हजारों में कोई एक आत्मजिज्ञासु होगा । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण भी अपने श्रीमुख से कहते हैं :
" मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यति सिद्धये । "
नारायण ! संस्कृत भाषा के अन्दर ऐसे प्रसंगों में सहस्र का मतलब होता है बहुत , अनगिनत ; अतः अनेक मनुष्यों में कोई ही साधक बनेगा , भगवान् का यही भाव है । अनेक मनुष्यों में कोई एक परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है , प्रवृत्त होता है । इसलिये आचार्य पाद् ने कि जैसे मनुष्य होना दुर्लभ है , वैसे ही मनुष्यों में परमात्मा की इच्छा करने वाला ममुक्षु होना दुर्लभ है । संसार में बाकी सब चीजों के लिये हम लोगों को निरन्तर प्रयत्न करना अनुकूल और आवश्यक होता है , कौन - सी चीज हम हमेशा टालते हैं ? मर कर जहाँ जाना है उसका इन्तजाम करना हमेशा टालते रहते हैं । क्योंकि परमेश्वर संसारियों की तरह डंडा लेकर आप से कुछ वसुल करने को खड़ा नहीं होता ! किसी को लाख रुपये देने हैं और आपने समय पर व्याज नहीं दिया , तो वह डंडा लेकर पहुँच जाता है , " क्या बात है ? दो माह हो गये , तुमने हमारा व्याज नहीं दिया । " जब से जन्में हैं हम - आप - सभी तब से अब तक हम - आप - सभी भगवान् का दिया पानी पी रहे हैं, भगवान् की जमीन पर रह रहे हैं , भगवान् की धूप से गर्मी और प्रकाश पा रहे हैं । पर हम लोगों सवेरे उठकर भगवान् सूर्यदेव को अर्घ्य देने के लिये समय नहीं है ! अगर आप इलेक्ट्रिक बोर्ड़ को पैसा न दे तो वह कनेक्शन काट देगा । लेकिन आपने अर्घ्य नहीं दिया तो आज से प्रकाश बन्द , ऐसा तो भगवान् नहीं करते । पानी के बिल का पैसा नहीं जमा करें तो पानी वाले कनेक्शन काट देते हैं कि पानी नहीं मिलेगा । इसलिये पानी का बिल समय पर दे देते हैं , पर दिन भर में , यहाँ तक कि स्नान के समय भी जल वंदना करने की हमें फुर्सत नहीं मिलती । और एक दिन नहीं , सालों - साल कभी समय नहीं है । जब कभी हम भजन करने का लोगों को कहते हैं तो लोग यही कहते हैं, " बाबा जी ! करना तो बहुत चाहते हैं , समय नहीं मिलता । " पानी कम्पनी को कोई नहीं कहता " जी , हम तुम्हारे पैसे तो देना चाहते थे , लेकिन हमारे पास समय अभी नहीं है । इसलिये अभी नहीं देंगे । " उसको कोई भी नहीं कहेंगे । जमीन पर निरन्तर खड़े हैं , लेटते हैं , सब कुछ जमीन के सहारे करते हैं । हम जब लोगों से कहते हैं कि प्रातःकाल उठकर भूमि को नमस्कार करो , बोल सको तो मंत्र बोलो -
समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।
नारायण ! यदि इतना भी न बोल सकें तो मन्त्र न भी बोलें , नमस्कार तो करें । पर यह भी करना नहीं चाहते । हमेशा परमात्मा की तरफ वृत्ति बनाने को हम टालते रहते हैं । इसलिये श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने कहा " कश्चिद्यतति सिद्धये " , परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले ही लोक बहुत कम हैं ।
नारायण ! भगवान् ने तो यहाँ तक कहा कि जो सिद्धि के प्रयत्न में लगते हैं उनमें भी " कश्चिन्मां तत्त्वतो वेत्ति " कोई एक ही सत्य को समझ पाता है । साधना में लगने वालों में भी जब तक सत्य को नहीं जान लें तब तक लगे ही रहें ऐसे लोग और कम हैं । थोड़ा प्रयत्न किया , दो चार महीने किया , चित्त शान्त नहीं हुआ तो हताश हो जाते हैं कि " बहुत मुश्किल है , हम से नहीं होगा । " जब तक साक्षात्कार नहीं हो जाये परमात्मा का जो प्रत्यगात्मा से अभिन्न रूप है उस तत्त्व को जब तक जान न लेवें , तब तक लगे रहने वाले लोग बहुत ही कम हैं । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से एक बड़ी जबरदस्त बात कही है । " यततामपि सिद्धानां " सिद्ध का मतलब होता है जिसने चीज को प्राप्त कर लिया । भगवान् ने प्रयत्न करने वालों को ही सिद्ध कह दिया ! " साधकानां " नहीं कहकर " सिद्धानां " कह दिया । भगवान् ने श्रीगीता जी में अपने श्रीमुख से स्पष्ट कहा है कि मेरे रास्ते पर चल पड़ा तो आज नहीं तो कल , कल नहीं तो परसों , जरूर मुझे प्राप्त कर लेगा , जरूर सिद्धि को प्राप्त कर लेगा । परमात्मा के तरफ आप भी चलने के लिये जितने कदम उठाओगे , वे सब आपको आगे ही बढ़ायेंगे , कभी भी पीछे नहीं सरकायेंगे । इसलिये भगवान् ने कहा कि जो अभी साधक है वह सिद्ध ही है ।
ऐसे परम साधक जिन्होंने परमात्मा के तरफ अपना कदम बढ़ाया है वे वन्दन योग्य हैं । मैं उन समस्त साधको प्रणाम करता हूँ ।
नारायण स्मृतिः
" मनुष्य बनो ! "
═════════
नारायण ! मनुष्य कौन ? जो स्वीकार करते हैं कि वेद ही धर्म और परमात्मा का ज्ञान दे सकता है वे मनुष्य हैं । मोटी भाषा में कहें , तो जो वर्णाश्रम - धर्म को मानने वाले हैं , अर्थात् सनातन - धर्मी हैं , वेद को प्रमाण मानते हैं वे मनुष्य हैं । चार वर्णोँ और चार आश्रमों के अनुसार जो जीवन - निर्माण करने के प्रयत्न में है , उन्हीं हम मनुष्य कहते हैं । मनुष्य शब्द " मनोर्जातावञ्यतो षुक् च " सूत्राकार भगवान् मनु की सन्तान अर्थ में व्युतपन्न होता है । मनु के वंश वाले को मनुष्य कहते हैं । परमात्मज्ञान की अतिदुर्लभता इसलिये है , कि पहले तो चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि मिलना ही दुर्लभ है । हम लोक जब चौरासी लाख योनियाँ कहते है तब उनके अवान्तर भेदों को पृथक नहीं गिनते , मछलियों के अन्दर आगे हजारों तरह के भेद हैं परन्तु मछली को हम एक योनि मान लेते हैं । इसी प्रकार अवान्तर भेद मिलाकर अनन्त योनियाँ हो जाती है । जितने संसार में प्राणी हैं , सब किसी - न - किसी योनि में होंगे ; सब योनियों में से शास्त्र में अधिकार मनुष्य को ही है । मनुष्य को ही शास्त्राधिकार है , बाकियों को नहीं । मनुष्य पैदा होना यह पहली दुर्लभता । अनन्त योनियों के अन्दर मनुष्य शरीर की प्राप्ति हो जाये यही पहले दुर्लभ है । बरसात में कितनी तरह के कीट - पतंग आ जाते हैं । ऐक - एक घर में उनकी संख्या लाखों में हो जाती है । गिनते चले जाएं तो एक मोहल्ले में ही इतने हो जायेंग , जितने सारे मनुष्य हैं ! यों गिनें तब पता लगता है कि मनुष्य जन्म मिलना कितना दुर्लभ है । इसलिये भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्कर देशिक जी ने कहा - " जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् " इतनी योनियों में मनुष्य योनि मिल जाये यह दुर्लभ है । आचार्य " दुर्लभं त्रयमेवैतत् " तीन चीजों को दुर्लभ मानते हैं " मनुष्यत्वम् , मुमुक्षुत्वम् , महापुरुषसंश्रयः " । ये दुर्लभ चीजें किससे मिलती हैं ? आचार्य श्रीशङ्कर देशिक कहते हैं " देवानुग्रहहेतुकम् " परमेश्वर के अनुग्रह से । परमेश्वर का अति अनुग्रह होता है तभी मनुष्य शरीर मिलता है । इस बात को अच्छी तरह समझना बड़ा जरूरी है । वर्तमान काल में चारों तरफ योरप वालों का किया हुआ प्रचार तो है कि " हम लोग बन्दर थे , पूंछ घिस गई , इसलिये आदमी हैं ! योरप वाले बन्दर रहे होंगे ; उनके चेहरे - मोहरे हैं तो बन्दरों की तरह ही , व्यवहार भी बन्दरों की तरह का ही है । परन्तु हम लोग न आज बन्दरों जैसे हैं , न हमारे पूर्वज थे । मनुष्य जीवन की दुर्लभता आजकल के लोग नकारना चाहते हैं । हम तो पशु पक्षियों की तरह ही हैं यह उनकी मान्यता है । किन्तु अगर मनुष्य पशु - पक्षियों की तरह हैं , तो उनके आचरणों के बारे में क्यों विचार करके कहते हैं , कि " इसने अमुक अपराध किया ? " शेर किसी को मारता है तो उसको फाँसी नहीं देते । आदमी मारता है तो फाँसी देते हें । आपके देश के अन्दर तो शेर भी रह रहा है । अगर मनुष्य की विशेषता नहीं मानते हो तो मनुष्यों के लिये विशेष नियम क्यों बनाते हो ? मनुष्य जीवन की दुर्लभता को बार - बार विचार कर मन में बैठाना बहुत जरूरी है - मेरे बाबा ।
दुर्लभ मनुष्य शरीर मिल भी गया तो " सहस्रेसु " उनमें हजारों में कोई एक आत्मजिज्ञासु होगा । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण भी अपने श्रीमुख से कहते हैं :
" मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यति सिद्धये । "
नारायण ! संस्कृत भाषा के अन्दर ऐसे प्रसंगों में सहस्र का मतलब होता है बहुत , अनगिनत ; अतः अनेक मनुष्यों में कोई ही साधक बनेगा , भगवान् का यही भाव है । अनेक मनुष्यों में कोई एक परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है , प्रवृत्त होता है । इसलिये आचार्य पाद् ने कि जैसे मनुष्य होना दुर्लभ है , वैसे ही मनुष्यों में परमात्मा की इच्छा करने वाला ममुक्षु होना दुर्लभ है । संसार में बाकी सब चीजों के लिये हम लोगों को निरन्तर प्रयत्न करना अनुकूल और आवश्यक होता है , कौन - सी चीज हम हमेशा टालते हैं ? मर कर जहाँ जाना है उसका इन्तजाम करना हमेशा टालते रहते हैं । क्योंकि परमेश्वर संसारियों की तरह डंडा लेकर आप से कुछ वसुल करने को खड़ा नहीं होता ! किसी को लाख रुपये देने हैं और आपने समय पर व्याज नहीं दिया , तो वह डंडा लेकर पहुँच जाता है , " क्या बात है ? दो माह हो गये , तुमने हमारा व्याज नहीं दिया । " जब से जन्में हैं हम - आप - सभी तब से अब तक हम - आप - सभी भगवान् का दिया पानी पी रहे हैं, भगवान् की जमीन पर रह रहे हैं , भगवान् की धूप से गर्मी और प्रकाश पा रहे हैं । पर हम लोगों सवेरे उठकर भगवान् सूर्यदेव को अर्घ्य देने के लिये समय नहीं है ! अगर आप इलेक्ट्रिक बोर्ड़ को पैसा न दे तो वह कनेक्शन काट देगा । लेकिन आपने अर्घ्य नहीं दिया तो आज से प्रकाश बन्द , ऐसा तो भगवान् नहीं करते । पानी के बिल का पैसा नहीं जमा करें तो पानी वाले कनेक्शन काट देते हैं कि पानी नहीं मिलेगा । इसलिये पानी का बिल समय पर दे देते हैं , पर दिन भर में , यहाँ तक कि स्नान के समय भी जल वंदना करने की हमें फुर्सत नहीं मिलती । और एक दिन नहीं , सालों - साल कभी समय नहीं है । जब कभी हम भजन करने का लोगों को कहते हैं तो लोग यही कहते हैं, " बाबा जी ! करना तो बहुत चाहते हैं , समय नहीं मिलता । " पानी कम्पनी को कोई नहीं कहता " जी , हम तुम्हारे पैसे तो देना चाहते थे , लेकिन हमारे पास समय अभी नहीं है । इसलिये अभी नहीं देंगे । " उसको कोई भी नहीं कहेंगे । जमीन पर निरन्तर खड़े हैं , लेटते हैं , सब कुछ जमीन के सहारे करते हैं । हम जब लोगों से कहते हैं कि प्रातःकाल उठकर भूमि को नमस्कार करो , बोल सको तो मंत्र बोलो -
समुद्रवसने देवी ! पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।
नारायण ! यदि इतना भी न बोल सकें तो मन्त्र न भी बोलें , नमस्कार तो करें । पर यह भी करना नहीं चाहते । हमेशा परमात्मा की तरफ वृत्ति बनाने को हम टालते रहते हैं । इसलिये श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने कहा " कश्चिद्यतति सिद्धये " , परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले ही लोक बहुत कम हैं ।
नारायण ! भगवान् ने तो यहाँ तक कहा कि जो सिद्धि के प्रयत्न में लगते हैं उनमें भी " कश्चिन्मां तत्त्वतो वेत्ति " कोई एक ही सत्य को समझ पाता है । साधना में लगने वालों में भी जब तक सत्य को नहीं जान लें तब तक लगे ही रहें ऐसे लोग और कम हैं । थोड़ा प्रयत्न किया , दो चार महीने किया , चित्त शान्त नहीं हुआ तो हताश हो जाते हैं कि " बहुत मुश्किल है , हम से नहीं होगा । " जब तक साक्षात्कार नहीं हो जाये परमात्मा का जो प्रत्यगात्मा से अभिन्न रूप है उस तत्त्व को जब तक जान न लेवें , तब तक लगे रहने वाले लोग बहुत ही कम हैं । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से एक बड़ी जबरदस्त बात कही है । " यततामपि सिद्धानां " सिद्ध का मतलब होता है जिसने चीज को प्राप्त कर लिया । भगवान् ने प्रयत्न करने वालों को ही सिद्ध कह दिया ! " साधकानां " नहीं कहकर " सिद्धानां " कह दिया । भगवान् ने श्रीगीता जी में अपने श्रीमुख से स्पष्ट कहा है कि मेरे रास्ते पर चल पड़ा तो आज नहीं तो कल , कल नहीं तो परसों , जरूर मुझे प्राप्त कर लेगा , जरूर सिद्धि को प्राप्त कर लेगा । परमात्मा के तरफ आप भी चलने के लिये जितने कदम उठाओगे , वे सब आपको आगे ही बढ़ायेंगे , कभी भी पीछे नहीं सरकायेंगे । इसलिये भगवान् ने कहा कि जो अभी साधक है वह सिद्ध ही है ।
ऐसे परम साधक जिन्होंने परमात्मा के तरफ अपना कदम बढ़ाया है वे वन्दन योग्य हैं । मैं उन समस्त साधको प्रणाम करता हूँ ।
नारायण स्मृतिः
Comments
Post a Comment