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प्रज्ञा अपराध

 प्रज्ञा अपराध
पूज्य गुरुदेव आदरणीय श्री सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र जी द्वारा अशिर्बाद रूप में प्राप्त
प्रज्ञापराध " ( महानाश का कारण )प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम् । मानव - बुद्धि का अनवधानता से होने वाली भूलेँ ही रोगोँ का मूल कारण है । मानसिक रोगोँ का हेतु तो निश्चित रुप से प्रज्ञापराध ही है । - " ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये । मनोविकाराऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजा "।। अर्थात - जो भी मन के विकार हैँ वे सब प्रज्ञापराध से ही उतप्न्न होते हैँ । मानसिक नीरोगता की प्राप्ति का सर्वोपरि उपाय यही है कि इच्छाओँ मेँ अधिक आसक्ति न रख कर जीवन की आवश्यकताओँ को सीमित करेँ और साधन - बहुलता एवं अतिसंग्रह से दुर रहें । निश्चय ही संतोष और संयम मानसिक प्रसन्नता के आवश्यक अंग हैँ । ऋषियोँ ने गाया है - " स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला । मनसि च सन्तुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्रो " ।। यानी मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता । तृष्णायुक्त धनवान दरिद्र से बुरा और तृष्णा विरत निर्धन , धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ रहता है । संतोष का सम्बल बहुत बड़ी शक्ति है । मन संतोषी होगा तो उसमेँ विकार उत्पन्न होने का कारण ही नहीँ । " ध्यायतो विषयान् पुसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृति भ्रशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। भगवद्गीता ।। विषयोँ पर निरन्तर ध्यान जमा रहने से वही मन मेँ रम जाते हैँ । मन और विषयोँ के इस संग - संयोग से कामवासना उत्पन्न होती है , और उसमेँ किँचित् भी व्यवधान पड़ा कि क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से सम्मोह अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य की अज्ञानता उत्पन्न होती है , उससे स्मृति का नाश हो जाता है । फिर यह ज्ञान नही रहता कि अमुक अहित आचरण से अमुक हानि हुई थी अथवा अमुक वस्तु खाने से अमुक दुःख हुआ था । इस प्रकार का ज्ञान न रहने से मनुष्य बार - बार भूलेँ करता है , उसे ही स्मृति नाश कहते हैँ । स्मृतिनाश से बुद्धिनाश हो जाता है और फिर सर्वनाश निश्चित् है । " रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति " ।। मनुष्य की बुद्धि राग - द्वेष से विमुक्त हो कर विषयोँ का सेवन करे तो अन्तरात्मा मेँ संतोष होता है , मनुष्य को स्वभाविक शान्ति सुलभ रहती है । मनःशान्ति और बुद्धि - नियमन आहार - विहार मेँ - नियमित होने से प्राप्त होते हैँ । " आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलाभे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ।। योगसुत्र ।। आहार की शुद्धता अर्थात खान - पान मेँ नियमित रहने से सत्त्व ( मन ) शुद्धि होती है । सत्त्व शुद्धि से स्मृति अर्थात बुद्धि संतुलित होती है । स्मृति शुद्ध से आत्मज्ञान वढ़ता है , जिससे मानसिक ग्रन्थीयोँ ( Complexes ) का पराभव होता है ।आहार नियम के अतिरिक्त मानसिक आरोग्य के लिए मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोपरि है । मनोनिग्रह विषयासक्ति से निश्चित छुटकारा मिलता है । मनोनिग्रह सात्त्विक आचरणोँ से सुगमता पूर्वक साध्य होता है । सात्त्विक आचरणोँ की भूमिका का निर्माण संध्या - वन्दन , अग्निहोत्र , ध्यान , जप और दान आदि आदर्श प्रवृतियोँ से होता है । शरीर और मन का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है । शारीरिक क्षीणता से जब मस्तिष्क कमजोर होता है तो अनिद्रा ,अस्थिरता , भ्रभ , अशान्ति , भय , घबड़ाहट आदि लक्षण उत्पन्न होते है जो मानसिक उद्वेगोँ को बढ़ाते हैँ । बाल्यकाल मेँ हीँ वेदोक्त स्वस्थवृत का अभ्यास रहे तो रात - दिन परिश्रम करने पर भी शारीरिक क्षीणता नही होती और जीवन मेँ मानसिक आनन्द बना रहता है । छात्र जीवन आजकल कुछ विचित्र होता जा रहा है । शिक्षक गुरुओँ के प्राचीन दायित्व से कतराते हैँ और और छात्रोँ का संग भी कुछ विकृत होता जा रहा है , इस कारण बहुत पहले से हीँ बालक या तरुण का मानसिक और शारीरिक विकाश यथोचित नही हो पा रहा । इसलिए माता - पिता या अभिभावक को बालक के विकाश की ओर विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है ताकि उससे * प्रज्ञपराध * न बन पावे । " मानसिक स्वास्थ हमारे शारिरीक स्वास्थ की आधारशिला है " । स्वस्थ मन के बिना स्वस्थ शरीर की कल्पना गलत है । वस्तुतः शरीर की प्रमुख संचालिका गति - शक्ति मन हीँ तो है । मन ही मस्तिष्क है । शरीर उसका आवरण मात्र है। मेरे मित्र । भीतर के तत्त्व का सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव आवरण पर होता है। मेरे मित्र । मन की स्थिति का प्रतिबिम्ब शरीर पर निश्चित पड़ता है । यही कारण है कि क्रोधी , लोभी , कामी और ईष्यालु मनःस्थिति वाले मनुष्योँ की आकृति एवं शारीरिक स्थिति मेँ स्पष्ट विभिन्नता दिखाई देती है । क्रोधी व्यक्ति का शरीर सुखा - सा और मुखाकृति रूखी एवं कठोर देखने मेँ आती है । जिसका अन्तःकरण स्वस्थ होगा , उसका शरीर निश्चित ही स्वस्थ होगा । " मन तो बिज है। मेरे मित्र । बिज के अनुरुप ही बृक्ष और फल होता है । अशक्त बीज से सशक्त बृक्ष और फल मिलता हीँ नहीँ । इसलिए शारीरिक स्वास्थ की उत्तमता के लिए मानसिक स्वास्थ की उत्कृष्टता निश्चित ही अनिवार्य है । इस लिए ,मेरे मित्र हमारा मन सदा स्वस्थ रहे , इसके लिए दैनिक जीवन मेँ संयम - नियम , संतोष और मनोनिग्रह का अभ्यास निरन्तर करना चाहिए । इस अभ्यास का सर्वोत्तम साधन अध्यात्म - भावना पूर्वक परमात्मा की उपासना करना है । इसके लिए आपको कोई धन खर्च करना न पड़ेगा , बस थोड़ा ध्यान , थोड़ा स्मरण और थोड़ा अपने तरफ लोटने का प्रयत्न करना है । ( प्रिये श्री अश्वनी मिश्र जी , सप्रेम वन्दे । बहुत ही पूर्व प्रज्ञापराध पर उपरोक्त एक छोटासा एक विचार लिखा था ) 

Comments

  1. अत्यन्त उपयोगी एवं अनुकरणीय लेख।
    साधुवाद

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