! श्री वासुदेव श्रीकृष्णाय नमः !!
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" मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { २ } :
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आदरणीय गुरुदेव श्री सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र जी द्वारा आशीर्बाद रूप में प्राप्त
नारायण ! जब कभी हमारे सामने कोई पदार्थ आता है तो तुरन्त उभोग की कामना
होती है । बचपन से वृद्धावस्था तक यह क्रम चलता है । बच्चे बढ़ते - बढ़ते
युवा हो जाते हैं , हमारी मांस पेशियों मेँ प्रौढ़ता और पुष्टि आ जाती है ,
पर हमारे मस्तिष्क की स्थिति वही बनी रहती है जो बचपन में थी । जैसे बच्चा
किसी भी पदार्थ को देखता है तो तुरन्त उठाता है , उसे हाथ में लेकर खेलना
चाहता है , उसके ऊपर अधिकार जमाना चाहता है और यदि उस अधिकार में रुकावट
आती है तो अपने को अत्यन्त दुःखी समझता है और सोचता है कि हमारे सामने यह
रुकावट क्यों आ रही है , वैसे ही हम बड़े लोग भी करते हैं । जब कोई पदार्थ
हमारे सामने आता है , तो उस पर आधिपत्य जमाने के लिए दौड़ते हैं और यदि वह
हमारे हाथ में नहीं आ पाया तो बच्चे की तरह ही , सचमुच या काल्पनिक
विघ्नकारी विरोध करने लग जाते हैं । छोटा बच्चा जब दौड़कर किसी के जूते
उठाना चाहता है तो देखता है कि रास्ते में एक ऊंचा मेज रखा हुआ है और वह उस
पार नहीं जा सकता । अभी उसे इतनी बुद्धि नहीं है कि मेज के चारों तरफ
घूमकर जाने से भी जूते तक पहुँचा जा सकता है । बालक टेवल पर हाथ पटक कर
रोने लगता है । इस प्रकार अपना विरोध प्रदर्शन करने लगता है । क्या ठीक
यही स्थिति हमारी नहीं होती ? हम किसी उच्च पद के अभिलाषी हैं । अकस्मात्
देखते हैं कि हमारा अफसर किसी अन्य व्यक्ति को आगे बढ़ाना चाहता है । हमारे
नाम को वह पीछे कर देता है और उसके नाम को आगे कर देता है । तुरन्त हम यही
समझते हैं कि अफसर बहुत बुरा आदमी है । हम कभी विचार नहीं करते कि सम्भवतः
हमारे अन्दर कोई दोष होगा जिसके कारण वह ऐसा कर रहा है । अपने अपने हाथ पैर
नहीं पटकते क्योंकि हम जरा बड़े हो गये हैं , लेकिन मानस हाथ पैर मारते हैं
। जहां जाते हैं वहां उसकी बुराई करते हैं । हो सकता है कि उस अफसर ने
हमसे बीस साल अच्छा व्यवहार किया हो , और अब भी सम्भवतः हमसे मधुर भाषा में
बोलता है , पर हम इन सब बातों को भूल जाते हैं और उसकी बुराई ही याद करते
हैं । जहाँ जाते हैं उसे बुरा कहते हैं । उस बच्चे के रोने में और हमारे
रोने में कोई फर्क नहीं है । केवल हमारे गले के अन्दर बोलने की विशेष शक्ति
के कारण हम उसे भिन्न प्रकार से प्रकट करते हैं जिसे बच्चा रोकर प्रकट
करता है । यद्यपि हम बाह्य दृष्टि से बड़े होते चले जाते हैं पर भीतर से
बच्चे जैसे रहने के कारण आगे नहीं बढ़ पाते।
नारायण ! क्या हमारा
मानसिक विकास हो पा रहा है ? हमारे संस्कार अपूर्ण वासनाओं के हैं । हम जिन
पदार्थोँ को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते । हम
अनेक भावों को दूसरों के सामने प्रकट करना चाहते हैं , लेकिन कई कारणों से
प्रकट नहीं कर पाते । यदि हमारी इच्छा किसी व्यक्ति की भर्त्सना करने की हो
तो भी जब कारणवश हम उसको नहीं टांट पाते तब हमारे मन के अन्दर एक विरोध की
प्रवृत्ति उठती है जो अपनी छाप डाल जाती है । सम्भवतः पांच वर्ष बाद जब उस
व्यक्ति को हम दूसरी परिस्थिति में देखते हैं तो बिना कारण ही हम उसे कोई
हानी पहुंचाना चाहते हैं। कायन यह है कि पहले जब हम उसको हानि पहुंचाने की
इच्छा कर रहे थे तो उस समय नहीं पहुंचा पाये । उसके संस्कार हमारे अन्दर
दबे हुए हैं यह सौ टक्के सच्ची बात है । वे अब हमको प्रवृत्त कराते हैं ।
हमारा प्राचीन अनुभव हमारे सभी संस्कार और वासनाओं के मूल में है । यहां पर
शास्त्रीय दृष्टि और आधुनिक मनोविज्ञान में एक मतभेद अवश्य है । आधुनिक
मनोविज्ञान जीवन को केवल गर्भावस्था से प्रारम्भ करता है । हमारी सनातन
धर्म दृष्टि उससे अधिक विशाल है । हमारे अतिधन्य शास्त्रकार हमको बताते
हैं कि मनुष्य कोई आकस्मिक घटना नहीं है जो अकस्मात् पैदा हो गया हो ।
अनादिकाल से यह अपने संस्कारों की गुत्थियां लिये हुए चला आ रहा है । अपने
संस्कारों और वासनाओं को हृदय की ग्रन्थि में बांधकर जहां जाता है वहां
अपने शरीर को ठीक उसी प्रकार से बदल देता है जिस प्रकार हम अपने मकान बदलते
हैं ।
नारायण ! एक समाज सेवक ने कुछ वर्ष पूर्व हमें बताया था
कि सरकार मजदूरों के लिये बहुत अच्छे मकान बन दिये , पर मजदूरों ने उन्हें
एक ही साल के अन्दर गन्दा कर दिया । हमने उन महानुभाव से कहा कि इसमें
मजदूरों की कोई गलती नहीं । यद्यपि मजदूर एक मकान से दूसरे मकान में लाये
गये पर उनकी वासनायें और संस्कार तो वही रहे । जहां भी वे जायेंगे उन्हीं
क्रियाओं को करेंगे जिन्हें वे पहले करते थे । उनके संस्कारों को बदलने की
आपने क्या चेष्टा की ?
नारायण ! ठीक यही स्थिति हमारी भी है । हम एक
शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में जाते हैं । हमारे संस्कार और वासनायें जाते
हैं । इसलिये मनुष्य शरीर की समानता होने पर भी एक दूसरे में बड़ा भेद नजर
आता है । कोई उच्च कुल में पैदा होता है लेकिन उनका व्यवहार दरिद्री का सा
होता है । दूसरी तरफ अत्यन्त गरीब के घर में पैदा हुआ है लेकिन उनका हृदय
बड़ा ही उदार होता है । जहां पर विद्वता है उसी घर में ऐसा भी पुत्र उत्पन्न
होता है कि पढ़ने के लिये प्रवृत्ति ही नहीं करता । दूसरी तरफ जहां विद्या
का नाम निशान भी नहीं ऐसे घर में पैदा हुए लोग भी पढ़कर बड़े विद्वान् हो
जाते हैं । ऐसा क्यों होता है ? क्या केवल बाह्य वातावरण के कारण ही मनुष्य
में परिवर्तन आ रहे हैं ?
नारायण ! आधुनिक मनोविज्ञान इसका उत्तर
देने में अत्यन्त असमर्थ सिद्ध हुआ है । अन्त में घूम- फिर कर इस वात पर आ
जाता है कि यदृच्छा अर्थात् अंग्रेजी भाषा में chance , accident को कारण
मान लो । लेकिन हम यदि यदृच्छा को मान ले तो वस्तुतः विज्ञान खोखला हो जाता
है , उसे आधार ही नहीं मिल पाता । विज्ञान के अन्दर दृढ़ता तभी आयेगी जब
कार्य - कारण भाव को स्वीकार किया जाय । यदि एक जगह कार्य - कारण भाव का
बहिष्कार करके बिना कारण के कार्य को स्वीकार किया तो सर्वत्र ही कार्य -
कारण भाव का लोप अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा । दार्शनिक दृष्टि से कार्य -
कारण भाव की निवृत्ति का जो भी उपयोग हो व्यावहारिक और विशेषकर वैज्ञानिक
क्षेत्र में तो यह हमें पीछे हटा देगा । इस दृष्टि से यह मानना पड़ता है कि
आज दीख पड़ने वाले मानव में जन्म - जन्मान्तर के संस्कार और वासनाये बैठी
हुई है । उन्हीं के कारण आज भी उन प्रवृत्तियों को करता है जिनको वह पीछे
करता आया था । नया मकान या नया शरीर मिलने से कोई चरित्र परिवर्तन नहीं हो
जाता ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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