!! श्री वासुदेव श्रीकृष्णाय नमः !!
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" मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { १ } :
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नारायण ! समरसता का प्रभाव न होना ही मानसिक तनाव का कारण है ! कुछ लोग मानते हैं कि मानसिक तनाव का मूल कारण है अपने स्वरूप से दूर होते चले जाना और अन्य लोगों का कहना है कि संस्कृति के अन्दर होने वाला विकास तनाव का कारण है । जितना अधिक विकास होता है उतना संघर्ष अवश्यम्भावी है , ऐसी इस पक्ष की मान्यता है ।
नारायण ! हमारे अतिधन्य दार्शनिकों ने इस पर बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया । चित्त के स्वरूप को समझते हुए उन्होंने बतलाया कि चित्त की अनेक अवस्थायें देखने को मिलती है । योगसूत्रकार- भगवान् श्री पतञ्जली ने क्षिप्तता , मूढ़ता , विक्षिप्तता , एकाग्रता और निरुद्धता इन पाँच प्रकार की चित्त की अवस्थाओं को बतलाया है । इन पाँचों प्रकारों को न समझने के कारण ही हम स्वयं अपने चित्त के विषय में कुछ भी समझने में असमर्थ हो जाते हैं । अतिधन्य भगवान् श्री पतञ्जली चित्त के ऊपर सूक्ष्म विचार करते हुए बतलाते हैं कि चित्त की सामान्य स्थिति है क्षिप्त । क्षिप्त किसे कहते हैं ? क्षिप्त कहते हैं फैले हुए को । जिस अवस्था में मनुष्य सुख - दुःख के अनुभव के लिए निरन्तर दौड़ता रहता है , उसमें एक प्रकार का धावन होता है , और सुख भोग के अन्यतम साधन के लिये निरन्तर गतिशील रहता है उसे क्षिप्तावस्था कहते हैं । इसमें मनुष्य के मन में तनाव होना स्वाभाविक है । क्षिप्तावस्था में मनुष्य को यह भी पता नहीं कि वह वस्तुतः चाहता क्या है , जाना किधर चाहता है , उसका उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता ।
नारायण ! क्षिप्तावस्था से जब वह थक जाता है तो मूढ़ावस्था आती है । इसमें अविवेक का प्रवाह अधिक होता है , विवेक का अभाव होता है । क्षिप्तावस्था में सुख की खोज है , मुढ़ावस्था में राग और द्वेष का इतना अधिक आक्रमण हो जाता है कि वस्तुतः मनुष्य विवेक ही नहीं कर पाता कि क्या योग्य है और क्या अयोग्य । इस अवस्था में स्वयं अपनी और दूसरों की भी हानी कर देता है । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से इसी कारण कहा :
" यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः " ।
वस्तुतः जो आध्यात्मिक साधक है वह न स्वयं अपने कारण किसी में उद्वेग को उत्पन्न करता है और न स्वयं उद्विग्न होता है ।
नारायण ! भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं - ज्ञाननिष्ठा में प्रवृत्त साधक कोई कार्य ऐसा नहीं करता जिससे लोगों को किसी प्रकार का क्षोभ होवे । उसके आचरण से , व्यवहार से " लोकः " अर्थात् सामान्य लोग , प्राकृत लोग " न उद्विजते " उद्वेग को प्राप्त नहीं करते । उद्वेग किसे कहते हैं ? उद्वेग का अर्थ है गलत आचरण को देखकर मनुष्य के मन में उसके प्रति विरोधी भावना आती है । किसी को बहुत ही बुरा काम करते देखते हैं तो अपने को उससे जो क्षोभ होता है वह है " उद्वेग " ।
नारायण ! चित्त की क्षिप्तावस्था के कारण जो मूढ़ावस्था उत्पन्न होती है उसमें मनुष्य स्वयं अपने से भी उद्विग्न रहता है और दूसरों से भी । प्रायः हम अपने जीवन में यही स्थिति पाते हैं कि हम अनेक ऐसे कार्य करते हैं जिनसे हम स्वयं भी दुःखी होते हैं और दूसरे भी उसके कारण दुःखी बनते हैं । घर में हम ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिसमें पति या पत्नी को दुःख होने लगता है । बाद में स्वयं दुःखी होकर कहने लगते हैं अरे भाई ! पता नहीं उस समय हमारे मन में क्या हो गया था , हमने क्यों ऐसा किया कि तुम को दुःख की प्राप्ति हुई । जिसमें स्वतः दुःख का अनुभव होता है , इसी का नाम मुढ़ावस्था है । क्षिप्तावस्था में सुख दुःख का अन्वेषण है । मूढ़ावस्था में मनुष्य स्वयं अपनी हानि कर लेता है और जब अपनी हानि करेगा तो दूसरे की भी हानि करेगा इसमें कहना ही क्या है ?
नारायण ! जब मनुष्य इससे आगे चलता है तो विक्षिप्तावस्था आती है । विक्षिप्तावस्था में भी मनुष्य सुख दुःख का अन्वेषण तो कर रहा है लेकिन उसके साधन व स्वरूप का विचार करके प्रवृत्त होता है । इस दृष्टि से विक्षिप्तावस्था को क्षिप्तावस्था से श्रेष्ठ माना गया है । क्षिप्तावस्था में हम अपने अन्तर्निहित वासनाओं और संस्कार से नियन्त्रित होकर निरन्तर गतिशील बन जाते हैं ; विक्षिप्तावस्था में हम उद्देश्यों का स्पष्टीकरण करते हैं और विचार करते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है ।
नारायण ! एक दृष्टान्त लीजिये । क्षिप्तावस्था में यदि किसी चीज को खाने की इच्छा मन में उत्पन्न हुई तो विचार तक नहीं किया कि इससे नुकसान होगा या फायदा और तुरन्त जाकर उस चीज को खाने में प्रवृत्त हो गये । विक्षिप्तावस्था में हम सोचते हैं कि हमको " मधुमेह " { diabetese} है । यदि हम चीनी खायेंगे तो नुकसान करेगी । यह विचार कर हम स्वभावतः चीनी से दूर हो जाते हैं और उसकी जगह पर " सेक्रीन " ले आते है और फिर उसका सेवन करके हमको मधुरिमा की भी प्राप्ति हो जाती है और चीनी खाकर होने वाला दुःख भी हमारे सामने नहीं आता । सुख - दुःख का अन्वेषण तो दोनों अवस्थाओं में है लेकिन विक्षिप्तावस्था में हमारा उद्देश्य स्पष्ट होता है जो क्षिप्त अवस्था में नहीं होता ।
लेकिन विक्षिप्तावस्था में भी सुख नहीं मिल पाता क्योंकि जहाँ खोज या अन्वेषण है वहाँ शान्ति की सम्भावना नहीं । जब शान्ति ही नहीं तो सुख की प्राप्ति सर्वथा असम्भव है । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण अपने श्रीगीता जी के गायन में कहते हैं :
" अशान्तस्य कुतः सुखम् " ।
नारायण ! विक्षिपतावस्था से आगे की अवस्था है चित्त की एकाग्रता । लेकिन यहाँ भी संधर्ष बना हुआ है । हमारी प्रवृत्तियाँ हमको चारों तरफ खींचती है और हम प्रयन्त करके उसे किसी एक स्थल पर आकृष्ट करते हैं , खींचते और बांधते हैं । यह प्रयत्न पूर्वक चेष्टा है ।
जब चित्त की एकाग्र अवस्था सिद्ध हो जाती है तो इसी को निरुद्धावस्था कहा जाता है । निरुद्ध अवस्था में चित्त का स्वाभाविक प्रवाह एक स्थल पर दृढ़ हो जाता है । अब वास्तविक सुख और शान्ति का अनुभव होने लगता है ।
चित्त की ये अवस्थायें क्यों होती है ? क्यों इन विभिन्न अवस्थाओं का संचार होता है ? इस पर हमारे " आगम शास्त्र " ने भी सूक्ष्म विचार किया है और आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी प्रचुर प्रकाश डाला है। हमारे यहाँ जिसको संस्कार कहा जाता है उसी को आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने " अचेतन मन " या Unconseious mind कहा है । अनकॉन्सन माइन्ड का वास्तविक अनुवाद संस्कार ही है । जब कोई भी पदार्थ हमारे सामने आता है तो उसका अनुभव हमारे चित्त में एक लीक या लकीर छोड़ जाता है जिसका प्रभाव बना रहता है । इसी को आजकल के मनोवैज्ञानिक " अचेतन मन " या " अनकॉन्शस माइन्ड " कहते हैं । कोई भी अनुभव ऐसा नहीं है जिसकी हमारे ऊपर छाप न पड़े , इसी छाप का नाम संस्कार है । चित्त के संस्कार ही हमको प्रवृत्त करते हैं । हम समझते हैं कि कोई आन्तरिक शक्ति हमें प्रवृत्त करा रही है , या हम मान लेते हैं कि कोई बाहर की चीज हमको ढकेल रही है । पर वास्तव में हमारे पूर्व अनुभव ही हमारे संस्कार रूप से सन्निहित होकर हमारे अन्दर छिपकर हमें प्रवृत्त करते हैं ।
सावशेष ......
श्री नारायण हरिः ।
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" मानसिक तनाव का मूल कारण क्या है ? " { १ } :
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नारायण ! समरसता का प्रभाव न होना ही मानसिक तनाव का कारण है ! कुछ लोग मानते हैं कि मानसिक तनाव का मूल कारण है अपने स्वरूप से दूर होते चले जाना और अन्य लोगों का कहना है कि संस्कृति के अन्दर होने वाला विकास तनाव का कारण है । जितना अधिक विकास होता है उतना संघर्ष अवश्यम्भावी है , ऐसी इस पक्ष की मान्यता है ।
नारायण ! हमारे अतिधन्य दार्शनिकों ने इस पर बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया । चित्त के स्वरूप को समझते हुए उन्होंने बतलाया कि चित्त की अनेक अवस्थायें देखने को मिलती है । योगसूत्रकार- भगवान् श्री पतञ्जली ने क्षिप्तता , मूढ़ता , विक्षिप्तता , एकाग्रता और निरुद्धता इन पाँच प्रकार की चित्त की अवस्थाओं को बतलाया है । इन पाँचों प्रकारों को न समझने के कारण ही हम स्वयं अपने चित्त के विषय में कुछ भी समझने में असमर्थ हो जाते हैं । अतिधन्य भगवान् श्री पतञ्जली चित्त के ऊपर सूक्ष्म विचार करते हुए बतलाते हैं कि चित्त की सामान्य स्थिति है क्षिप्त । क्षिप्त किसे कहते हैं ? क्षिप्त कहते हैं फैले हुए को । जिस अवस्था में मनुष्य सुख - दुःख के अनुभव के लिए निरन्तर दौड़ता रहता है , उसमें एक प्रकार का धावन होता है , और सुख भोग के अन्यतम साधन के लिये निरन्तर गतिशील रहता है उसे क्षिप्तावस्था कहते हैं । इसमें मनुष्य के मन में तनाव होना स्वाभाविक है । क्षिप्तावस्था में मनुष्य को यह भी पता नहीं कि वह वस्तुतः चाहता क्या है , जाना किधर चाहता है , उसका उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता ।
नारायण ! क्षिप्तावस्था से जब वह थक जाता है तो मूढ़ावस्था आती है । इसमें अविवेक का प्रवाह अधिक होता है , विवेक का अभाव होता है । क्षिप्तावस्था में सुख की खोज है , मुढ़ावस्था में राग और द्वेष का इतना अधिक आक्रमण हो जाता है कि वस्तुतः मनुष्य विवेक ही नहीं कर पाता कि क्या योग्य है और क्या अयोग्य । इस अवस्था में स्वयं अपनी और दूसरों की भी हानी कर देता है । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से इसी कारण कहा :
" यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः " ।
वस्तुतः जो आध्यात्मिक साधक है वह न स्वयं अपने कारण किसी में उद्वेग को उत्पन्न करता है और न स्वयं उद्विग्न होता है ।
नारायण ! भगवान् श्री वासुदेव कृष्ण कहते हैं - ज्ञाननिष्ठा में प्रवृत्त साधक कोई कार्य ऐसा नहीं करता जिससे लोगों को किसी प्रकार का क्षोभ होवे । उसके आचरण से , व्यवहार से " लोकः " अर्थात् सामान्य लोग , प्राकृत लोग " न उद्विजते " उद्वेग को प्राप्त नहीं करते । उद्वेग किसे कहते हैं ? उद्वेग का अर्थ है गलत आचरण को देखकर मनुष्य के मन में उसके प्रति विरोधी भावना आती है । किसी को बहुत ही बुरा काम करते देखते हैं तो अपने को उससे जो क्षोभ होता है वह है " उद्वेग " ।
नारायण ! चित्त की क्षिप्तावस्था के कारण जो मूढ़ावस्था उत्पन्न होती है उसमें मनुष्य स्वयं अपने से भी उद्विग्न रहता है और दूसरों से भी । प्रायः हम अपने जीवन में यही स्थिति पाते हैं कि हम अनेक ऐसे कार्य करते हैं जिनसे हम स्वयं भी दुःखी होते हैं और दूसरे भी उसके कारण दुःखी बनते हैं । घर में हम ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं जिसमें पति या पत्नी को दुःख होने लगता है । बाद में स्वयं दुःखी होकर कहने लगते हैं अरे भाई ! पता नहीं उस समय हमारे मन में क्या हो गया था , हमने क्यों ऐसा किया कि तुम को दुःख की प्राप्ति हुई । जिसमें स्वतः दुःख का अनुभव होता है , इसी का नाम मुढ़ावस्था है । क्षिप्तावस्था में सुख दुःख का अन्वेषण है । मूढ़ावस्था में मनुष्य स्वयं अपनी हानि कर लेता है और जब अपनी हानि करेगा तो दूसरे की भी हानि करेगा इसमें कहना ही क्या है ?
नारायण ! जब मनुष्य इससे आगे चलता है तो विक्षिप्तावस्था आती है । विक्षिप्तावस्था में भी मनुष्य सुख दुःख का अन्वेषण तो कर रहा है लेकिन उसके साधन व स्वरूप का विचार करके प्रवृत्त होता है । इस दृष्टि से विक्षिप्तावस्था को क्षिप्तावस्था से श्रेष्ठ माना गया है । क्षिप्तावस्था में हम अपने अन्तर्निहित वासनाओं और संस्कार से नियन्त्रित होकर निरन्तर गतिशील बन जाते हैं ; विक्षिप्तावस्था में हम उद्देश्यों का स्पष्टीकरण करते हैं और विचार करते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है ।
नारायण ! एक दृष्टान्त लीजिये । क्षिप्तावस्था में यदि किसी चीज को खाने की इच्छा मन में उत्पन्न हुई तो विचार तक नहीं किया कि इससे नुकसान होगा या फायदा और तुरन्त जाकर उस चीज को खाने में प्रवृत्त हो गये । विक्षिप्तावस्था में हम सोचते हैं कि हमको " मधुमेह " { diabetese} है । यदि हम चीनी खायेंगे तो नुकसान करेगी । यह विचार कर हम स्वभावतः चीनी से दूर हो जाते हैं और उसकी जगह पर " सेक्रीन " ले आते है और फिर उसका सेवन करके हमको मधुरिमा की भी प्राप्ति हो जाती है और चीनी खाकर होने वाला दुःख भी हमारे सामने नहीं आता । सुख - दुःख का अन्वेषण तो दोनों अवस्थाओं में है लेकिन विक्षिप्तावस्था में हमारा उद्देश्य स्पष्ट होता है जो क्षिप्त अवस्था में नहीं होता ।
लेकिन विक्षिप्तावस्था में भी सुख नहीं मिल पाता क्योंकि जहाँ खोज या अन्वेषण है वहाँ शान्ति की सम्भावना नहीं । जब शान्ति ही नहीं तो सुख की प्राप्ति सर्वथा असम्भव है । भगवान् श्री वासुदेव श्रीकृष्ण अपने श्रीगीता जी के गायन में कहते हैं :
" अशान्तस्य कुतः सुखम् " ।
नारायण ! विक्षिपतावस्था से आगे की अवस्था है चित्त की एकाग्रता । लेकिन यहाँ भी संधर्ष बना हुआ है । हमारी प्रवृत्तियाँ हमको चारों तरफ खींचती है और हम प्रयन्त करके उसे किसी एक स्थल पर आकृष्ट करते हैं , खींचते और बांधते हैं । यह प्रयत्न पूर्वक चेष्टा है ।
जब चित्त की एकाग्र अवस्था सिद्ध हो जाती है तो इसी को निरुद्धावस्था कहा जाता है । निरुद्ध अवस्था में चित्त का स्वाभाविक प्रवाह एक स्थल पर दृढ़ हो जाता है । अब वास्तविक सुख और शान्ति का अनुभव होने लगता है ।
चित्त की ये अवस्थायें क्यों होती है ? क्यों इन विभिन्न अवस्थाओं का संचार होता है ? इस पर हमारे " आगम शास्त्र " ने भी सूक्ष्म विचार किया है और आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी प्रचुर प्रकाश डाला है। हमारे यहाँ जिसको संस्कार कहा जाता है उसी को आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने " अचेतन मन " या Unconseious mind कहा है । अनकॉन्सन माइन्ड का वास्तविक अनुवाद संस्कार ही है । जब कोई भी पदार्थ हमारे सामने आता है तो उसका अनुभव हमारे चित्त में एक लीक या लकीर छोड़ जाता है जिसका प्रभाव बना रहता है । इसी को आजकल के मनोवैज्ञानिक " अचेतन मन " या " अनकॉन्शस माइन्ड " कहते हैं । कोई भी अनुभव ऐसा नहीं है जिसकी हमारे ऊपर छाप न पड़े , इसी छाप का नाम संस्कार है । चित्त के संस्कार ही हमको प्रवृत्त करते हैं । हम समझते हैं कि कोई आन्तरिक शक्ति हमें प्रवृत्त करा रही है , या हम मान लेते हैं कि कोई बाहर की चीज हमको ढकेल रही है । पर वास्तव में हमारे पूर्व अनुभव ही हमारे संस्कार रूप से सन्निहित होकर हमारे अन्दर छिपकर हमें प्रवृत्त करते हैं ।
सावशेष ......
श्री नारायण हरिः ।
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