Skip to main content

Posts

Showing posts from June, 2013

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...

मानस रोग भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि

मानस रोग  भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि  (सर्वग्य शंकरेंद्र ) नारायण ! बहुत से लोक कहते हैं " महाराज " ! हमने दूसरों का कल्याण किया , दूसरों को बहुत फायदा पहुँचाया लेकिन जब हमारे ऊपरआपत्ति आयी तो वे सब हमारे दुश्मन हो गये । हम प्रायः उनसे कहा करते हैं" भाई " ! आप अपना मन को जड़ा टटोल कर देखें। आपने जो दया दिखाई थी उसमें घमण्ड का भाव था । आप सोच रहे थे कि उसके ऊपर दया कर रहा हूँ ,अतः वह मेरा हमेशा कृतज्ञ बना रहे । आपयह समझ रहे थे कि मैंने इसका बड़ा उपकार किया है । आपके हृदय में करुणा का भाव नहींथा । यह भाव आपके मन में नहीं था कि इसका उपकार किये बिना मैं नहीं रह सकता हूँ ।जब हमारे अन्दर करुणा का भाव होता है तो दूसरे के कष्ट से हमें दुःख होता है ।" वाशिंगटन " के जीवन की एक घटना है । वे एक बार कहीं जारहे थे तो उन्होंने देखा कि एक सूअर कीचड़ में फंसा हुआ तड़प रहा है । वे अपनी घोड़ागाड़ी से नीचे उतर पड़े और बड़े ही परिश्रम के द्वारा उन्होंने उस सूअर को बाहर निकालदिया । जब वे राष्ट्रपति भवन में पहुँचे तो लोगों ने देखा कि कीचड़ से लथपथ हैं ।सारी बात शहर में फैल ग...

“ दुःखवाद – भोगवाद से आनन्दवाद की ओर ”

“ दुःखवाद – भोगवाद से आनन्दवाद की ओर ”  (   सर्वज्ञ शङ्करे न्द्र  ) नारायण ! दो प्रकार के वाद इस समय विश्व में अपनी - अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्ध कररहे हैं । प्रथम है -" दुःखवाद और दूसरा है - " भोगवाद" । नारायण! थोड़ा सा विचार करियेगा । प्रायः संसार के अन्दर जितने भी मज़हब और मत मतान्तर हैंसब के सब " दुःखवाद " परआधारित है , हमें यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि भारतवर्षके अन्दर भी , कम से कम बुद्ध और जैन धर्म के बाद से जोपरम्परा चली वह " दुःखवाद " केऊपर आधारित रही ; वह हमें डराती रही और हमारे मन के अन्दर एकभय पैदा करती रही । कभी वह नरकाग्नियों का बड़े - बड़े विस्तार से वर्णन करके हमकोनरक से डराती रही और हमको हर प्रकार से भय ही देकर धर्म की तरफ प्रवृत्त किया जानेलगा । भयवाद ही दुःखवाद का मूल होता है । मध्यकालीन सन्तपरम्परा में भी हम इसीदुःखवाद को देखते हैं । हम जगत् की तरफ दुःखवाद की दृष्टि लेकर चलते हैं कि जगत्एक बड़ी बुरी चीज़ है , यहां तक कि हमारा शरीर भी बड़ी बुरी चीज़है। हमारे मन में भय बैठा हुआ है , हम हर एक से डरते हैं ,आध्यात्मिक जगत् म...

“ परमेश्वर – परसखा “

“ परमेश्वर – परसखा  “ “ परमेश्वर – परमसखा  “ : नारायण ! अतिधन्य -" ऋग्वेद " हमारे - आपके सामने एक बड़ा ही सुन्दर आदर्श रखता है : " द्वासुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते तयोरन्यः पिप्पलंस्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति " { ऋग्श्रुति 1 - 22 - 164 } श्रुतिभगवती यह बतला रही है कि " परमेश्वरऔर जीव " का सम्बन्ध दो मित्रों जैसा है । वे कैसे मित्र हैं ? जैसे एक ही वृक्ष के ऊपर बैठे हुए " दोपक्षी " । एक पक्षी इधर - उधर जा रहा है , फलों को खा रहा है , लेकिनदूसरे पक्षी का प्रेम इतना अधिक है कि वह निरन्तर अपने प्रिय पात्र को टकटकी लगाकरदेखता ही जा रहा है । नारायण ! ठीक वही हाल जीव और ईश्वर की है । हम समझते हैं कि जीव ईश्वर सेप्रेम करता है लेकिन अपने जीवन में आगे बढ़ने पर हमें अपने प्रेम की दरिद्रता काअनुभव होता है । जीव परमेश्वर से कितना प्रेम कर सकता है ? विचारक तो यहाँ तक कह देते हैं कि परमेश्वर को जीव केलिये जितनी भूख है जीव उसका हजारवां हिस्सा भी परमेश्वर के लिये यदि प्राप्त करलेतो परमेश्वर उसको खींचने के लिये तैयार बैठा...
सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ' "मौन " - ' मौनं चैवास्मि गुह्यानाम् ' : -   हमारे भीतर गहरे स्तर पर आनन्दस्वरुप आत्मा है, जो हमारा निजस्वरुप है। अभी मन उसकी ओर उन्मुख न होकर, बाहर भटक रहा ह ै और सुखाभास को सुख समझ रहा है। जब तक हम भीतर आनन्द के स्रोत को नहीं पा लेते, तब तक हम बाहर के सुख की खोज में भटकते ही रहते हैं। बाहर भोगों से आकृष्ट होकर उनमें भटकते रहने से भीतर चेतना नहीं सिमट सकती है। ध्यान के द्वारा रसमय प्रभु के साथ संबंध जुड़ जाने पर भोगैश्वर्य की प्रवृत्ति निवर्तमान हो जाती है, संस्कार भस्म हो जाते हैं और जीवन एक स्थायी सुख (आनन्द) हो जाता है। जब मन ठीक प्रकार से भीतर की ओर उन्मुख होता है, तब वह स्वयं जीवन के मूल स्रोत रस-सिन्धु की ओर तीव्रता से दौड़ता है, मानो ढलान पर दौड़ रहा हो। तब सहसा चंचल मन नीवातस्थ-दीपशिखा को भाँति स्थिर हो जाता है। अतिव धन्य श्री श्रीमदभगवद्गीता जी कहती है - 'जिस प्रकार शान्त वायु के स्थान में स्थित दीपक की शिखा चलायमान नहीं होती है , वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में संलग्न योगी के जीते हुए चित्त की भी कही गयी है। ' ...
भक्तो के आठ भाव जो श्री भगवान् को प्रिये है ! ***************************** १. अहिंसा (तन मन वचनसे न किसी का बुरा चाहना और ना ही करना )२.इन्द्रिये-निग्रेह (इन्द्रियोंको मनमाने विषेयोमें ना जाने देना )३. प्राणिमात्र पर दया (ये संत स्वभाव का भी लक्षण है ! संत हिरदये नवनीत समाना .....दुसरोके दुःख को अपना दुःख समझकर दूर करने की चेष्टा करना )४. शान्ति (किसी भी अवस्थामें चितका छुब्ध न होना)५. शम (मन का वशमें रहना)६.तप (स्वधर्म के पालन के लिये कष्ट सहना )७.ध्यान (अपने आराध्य देव में चित).)८.सत्य (सत्य तो अपने आपमें प्रगट है जिसे प्रगट करनेके लिये किसी सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती