सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र'
"मौन " - ' मौनं चैवास्मि गुह्यानाम् ' : -
हमारे भीतर गहरे स्तर पर आनन्दस्वरुप आत्मा है, जो हमारा निजस्वरुप है। अभी मन उसकी ओर उन्मुख न होकर, बाहर भटक रहा है और सुखाभास को सुख समझ रहा है। जब तक हम भीतर आनन्द के स्रोत को नहीं पा लेते, तब तक हम बाहर के सुख की खोज में भटकते ही रहते हैं। बाहर भोगों से आकृष्ट होकर उनमें भटकते रहने से भीतर चेतना नहीं सिमट सकती है। ध्यान के द्वारा रसमय प्रभु के साथ संबंध जुड़ जाने पर भोगैश्वर्य की प्रवृत्ति निवर्तमान हो जाती है, संस्कार भस्म हो जाते हैं और जीवन एक स्थायी सुख (आनन्द) हो जाता है। जब मन ठीक प्रकार से भीतर की ओर उन्मुख होता है, तब वह स्वयं जीवन के मूल स्रोत रस-सिन्धु की ओर तीव्रता से दौड़ता है, मानो ढलान पर दौड़ रहा हो। तब सहसा चंचल मन नीवातस्थ-दीपशिखा को भाँति स्थिर हो जाता है।
अतिव धन्य श्री श्रीमदभगवद्गीता जी कहती है - 'जिस प्रकार शान्त वायु के स्थान में स्थित दीपक की शिखा चलायमान नहीं होती है , वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में संलग्न योगी के जीते हुए चित्त की भी कही गयी है।
' 'यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचितस्य युञ्ञतो योगमात्मनः।' (गीता, ६/ १९)
जब मन ध्यान के द्वारा आनन्दस्वरुप आत्मा के सिन्धु में निमग्न होकर बाहर निकलता है, तब वह तृत्प एवं सशक्त हो जाता है। व्यक्ति को सीमित चेतना असीम चेतना के साथ जुड़कर परिष्कृत एवं दिव्य हो जाती है। मौन की सफलता होने पर ही ध्यान की सफलता होती है। गीता में श्रीवासुदेवकृष्ण कहते हैं-
' मौनं चैवास्मि गुह्यानाम् '
(गीता, १०/ ३८)
अर्थात् गुह्य रखने योग भावों में मौनभाव भी भगवान् का ही रुप है। मौन प्रभु-प्राप्ति का प्रमुख साधन है। महाभारत के उद्योगपर्व में " भगवानश्रीसनत्सुजात जी " धृतराष्ट्र से कहते हैं - कि परमात्मा का ही नाम “ मौन ” है, क्योंकि वेद भी परमात्मा को नहीं पहुँच पाते और परमेश्वर मौन-ध्यान करने से प्रकाश में आते हैं।
"यतो न वेदा मनसा सहैनमनप्रविशन्ति ततोऽथमौनम्।
यत्रोत्थितो वेदशब्दस्तथायं स तन्मयत्वेन विभाति राजन।"
(उद्योगपर्व, ४३.२)
मौन की महिमा महाभारत के उद्योगपर्व में मुहुर्मुहुः गायी गयी है:
"विदित्वेति सदाकार्य मौनं सद् ध्यानदीपकम्।
निहत्य सिद्धये निन्द्यं बाह्यवाग्जालमञ्ञसा॥
यतो मौनेन दक्षाणां स्वप्नेऽपि कलहोऽस्ति न।
मौनेनाशु हि म्रियन्ते रागद्वेषादयो रसाः॥
मौनेन गुणराशिश्च लभ्यते सकलागमम्।
मौनेन केवलं ज्ञानं मौनेन श्रुतमुत्तमम्॥"
अर्थात् बाह्य वाग्जाल को रोककर श्रेष्ठ ध्यान के लिए दीपक के समान मौनव्रत को धारण करें। मौन धारण करने से स्वप्न में भी कलह नहीं होता है। मौनव्रत धारण करने से रोगद्वेषादि शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। मौन से गुणराशि प्राप्त होती है, मौन से ज्ञान प्राप्त होता है। मौन से केवल ज्ञान प्रकट होता है। मौन से उत्तमश्रुत ज्ञान प्राप्त होता है। गीता ने मौन की प्रशंसा की है - "तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनीं।"
"मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।"
मन की वृत्तियों के ' मौन' को ही मौन कहा जाता है। मौनी के लिए स्तुति और निन्दा भी एक समान होते है, क्योकिं वह वृत्तियों के शमन द्वारा निन्दास्तुति से ऊपर उठ जाता है।
साधक मौन-ग्रहण के समय वर्तमान घटनाओं में रुचि न लें, कल की चिन्ता न करें और भविष्य में योजना भी न बनायें। निरन्तर रामनाम (प्रभुनाम) जपने और मन में राम इत्यादि (इष्टदेव) अथवा किसी सन्त के स्वरुप पर चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न करें। निद्रा आ जाय, तो लेटकर सो जायें। मौन का उद्देश्य है-मन में व्यक्तिगत घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और क्रोध से ऊपर उठने का संकल्प लेकर चित्त-शुद्धि करना, प्रेम तथा क्षमा को अपनाना और (जपादि द्वारा) मानसिक पवित्रता में स्थित होकर प्रभु के साथ आत्मसात् होना, आत्मसमर्पण-भाव में रहना, आध्यात्मिक प्रगति करना। यही अन्तर्मौन है। मौन से संकल्प-शक्ति आदि मानसिक शक्तियांए जागती हैं, किंतु मौन का उद्देश्य न शक्तियां जगाना है, न उनका अभिमान करना अथवा उनका प्रदर्शन करना। यथासंभव मौन के समय में शांतचित होकर जप और ध्यान ही करना चाहिए। मौन से वृत्तियों के शमन के द्वारा मानसिक शांति का अभ्यास होता है। अतएव मौन के समय मन में झुँझलाहट होना अथवा दुःखी होना असंगत ही है। प्रारंभ में मौन का अभ्यास एकान्त स्थल में तथा कुछ घण्टों तक ही करना उचित होता है।
मौनव्रती (मौन का अभ्यास करनेवाला साधक) उत्तेजना दिलाये जाने पर तथा उत्तेजना का कारण समुपस्थित होने पर भी अनुत्तेजित अवस्था में रहना जानता है। वह शान्तभाव में रहकर मन को सन्तुलित बनाये रखता है। विवेक और धैर्य उसका साथ नहीं छोड़ते हैं। वह जल्दबाजी और लापरवाही से निर्णय नहीं लेता
परमात्मा के उस पावनस्वरुप ' मौन ' को प्रणाम !
श्री नारायण हरिः !
अतिव धन्य श्री श्रीमदभगवद्गीता जी कहती है - 'जिस प्रकार शान्त वायु के स्थान में स्थित दीपक की शिखा चलायमान नहीं होती है , वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में संलग्न योगी के जीते हुए चित्त की भी कही गयी है।
' 'यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचितस्य युञ्ञतो योगमात्मनः।' (गीता, ६/ १९)
जब मन ध्यान के द्वारा आनन्दस्वरुप आत्मा के सिन्धु में निमग्न होकर बाहर निकलता है, तब वह तृत्प एवं सशक्त हो जाता है। व्यक्ति को सीमित चेतना असीम चेतना के साथ जुड़कर परिष्कृत एवं दिव्य हो जाती है। मौन की सफलता होने पर ही ध्यान की सफलता होती है। गीता में श्रीवासुदेवकृष्ण कहते हैं-
' मौनं चैवास्मि गुह्यानाम् '
(गीता, १०/ ३८)
अर्थात् गुह्य रखने योग भावों में मौनभाव भी भगवान् का ही रुप है। मौन प्रभु-प्राप्ति का प्रमुख साधन है। महाभारत के उद्योगपर्व में " भगवानश्रीसनत्सुजात जी " धृतराष्ट्र से कहते हैं - कि परमात्मा का ही नाम “ मौन ” है, क्योंकि वेद भी परमात्मा को नहीं पहुँच पाते और परमेश्वर मौन-ध्यान करने से प्रकाश में आते हैं।
"यतो न वेदा मनसा सहैनमनप्रविशन्ति ततोऽथमौनम्।
यत्रोत्थितो वेदशब्दस्तथायं स तन्मयत्वेन विभाति राजन।"
(उद्योगपर्व, ४३.२)
मौन की महिमा महाभारत के उद्योगपर्व में मुहुर्मुहुः गायी गयी है:
"विदित्वेति सदाकार्य मौनं सद् ध्यानदीपकम्।
निहत्य सिद्धये निन्द्यं बाह्यवाग्जालमञ्ञसा॥
यतो मौनेन दक्षाणां स्वप्नेऽपि कलहोऽस्ति न।
मौनेनाशु हि म्रियन्ते रागद्वेषादयो रसाः॥
मौनेन गुणराशिश्च लभ्यते सकलागमम्।
मौनेन केवलं ज्ञानं मौनेन श्रुतमुत्तमम्॥"
अर्थात् बाह्य वाग्जाल को रोककर श्रेष्ठ ध्यान के लिए दीपक के समान मौनव्रत को धारण करें। मौन धारण करने से स्वप्न में भी कलह नहीं होता है। मौनव्रत धारण करने से रोगद्वेषादि शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। मौन से गुणराशि प्राप्त होती है, मौन से ज्ञान प्राप्त होता है। मौन से केवल ज्ञान प्रकट होता है। मौन से उत्तमश्रुत ज्ञान प्राप्त होता है। गीता ने मौन की प्रशंसा की है - "तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनीं।"
"मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।"
मन की वृत्तियों के ' मौन' को ही मौन कहा जाता है। मौनी के लिए स्तुति और निन्दा भी एक समान होते है, क्योकिं वह वृत्तियों के शमन द्वारा निन्दास्तुति से ऊपर उठ जाता है।
साधक मौन-ग्रहण के समय वर्तमान घटनाओं में रुचि न लें, कल की चिन्ता न करें और भविष्य में योजना भी न बनायें। निरन्तर रामनाम (प्रभुनाम) जपने और मन में राम इत्यादि (इष्टदेव) अथवा किसी सन्त के स्वरुप पर चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न करें। निद्रा आ जाय, तो लेटकर सो जायें। मौन का उद्देश्य है-मन में व्यक्तिगत घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और क्रोध से ऊपर उठने का संकल्प लेकर चित्त-शुद्धि करना, प्रेम तथा क्षमा को अपनाना और (जपादि द्वारा) मानसिक पवित्रता में स्थित होकर प्रभु के साथ आत्मसात् होना, आत्मसमर्पण-भाव में रहना, आध्यात्मिक प्रगति करना। यही अन्तर्मौन है। मौन से संकल्प-शक्ति आदि मानसिक शक्तियांए जागती हैं, किंतु मौन का उद्देश्य न शक्तियां जगाना है, न उनका अभिमान करना अथवा उनका प्रदर्शन करना। यथासंभव मौन के समय में शांतचित होकर जप और ध्यान ही करना चाहिए। मौन से वृत्तियों के शमन के द्वारा मानसिक शांति का अभ्यास होता है। अतएव मौन के समय मन में झुँझलाहट होना अथवा दुःखी होना असंगत ही है। प्रारंभ में मौन का अभ्यास एकान्त स्थल में तथा कुछ घण्टों तक ही करना उचित होता है।
मौनव्रती (मौन का अभ्यास करनेवाला साधक) उत्तेजना दिलाये जाने पर तथा उत्तेजना का कारण समुपस्थित होने पर भी अनुत्तेजित अवस्था में रहना जानता है। वह शान्तभाव में रहकर मन को सन्तुलित बनाये रखता है। विवेक और धैर्य उसका साथ नहीं छोड़ते हैं। वह जल्दबाजी और लापरवाही से निर्णय नहीं लेता
परमात्मा के उस पावनस्वरुप ' मौन ' को प्रणाम !
श्री नारायण हरिः !
Comments
Post a Comment