Skip to main content

“ दुःखवाद – भोगवाद से आनन्दवाद की ओर ”

“ दुःखवाद – भोगवाद से आनन्दवाद की ओर ” ( सर्वज्ञ शङ्करे
न्द्र )

नारायण ! दो प्रकार के वाद इस समय विश्व में अपनी - अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्ध कररहे हैं । प्रथम है -" दुःखवाद और दूसरा है - " भोगवाद" ।
नारायण! थोड़ा सा विचार करियेगा । प्रायः संसार के अन्दर जितने भी मज़हब और मत मतान्तर हैंसब के सब " दुःखवाद " परआधारित है , हमें यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि भारतवर्षके अन्दर भी , कम से कम बुद्ध और जैन धर्म के बाद से जोपरम्परा चली वह " दुःखवाद " केऊपर आधारित रही ; वह हमें डराती रही और हमारे मन के अन्दर एकभय पैदा करती रही । कभी वह नरकाग्नियों का बड़े - बड़े विस्तार से वर्णन करके हमकोनरक से डराती रही और हमको हर प्रकार से भय ही देकर धर्म की तरफ प्रवृत्त किया जानेलगा । भयवाद ही दुःखवाद का मूल होता है । मध्यकालीन सन्तपरम्परा में भी हम इसीदुःखवाद को देखते हैं । हम जगत् की तरफ दुःखवाद की दृष्टि लेकर चलते हैं कि जगत्एक बड़ी बुरी चीज़ है , यहां तक कि हमारा शरीर भी बड़ी बुरी चीज़है। हमारे मन में भय बैठा हुआ है , हम हर एक से डरते हैं ,आध्यात्मिक जगत् में डरते हैं , आधिदैविक जगत्में डरते हैं , देवताओं से भय खाते हैं । एक हिन्दू यदि किसीकब्र के सामने से निकलता  है तो भय खाता है , सोचता है चलो दो - चार आने की रेवड़ी इसको भी चढ़ा दो ,क्या पता यही हमको हानी पहुँचा दे याहमको किसी भय की प्राप्ति करा दे , किसीवृक्ष के सामने जाता है या और जहाँ कहीं जाता है वहाँ मत्था टेक देता है । ऐसा हमप्रायः कहते हैं कि हमारे यहाँ का धर्म धीरे - धीरे " मत्था टेक - धर्म " हो गया है । जहाँ जाओ वहाँ मत्था टेको । मत्था टेको ,मत्था टेको , करते - करते हमारी यह स्थिति हो गई है कि हम केवलमत्था टेकना ही सीख पाते है और इसी को धर्म मानने लग गये हैं, इसी को श्रद्धा का रूप मानने लग गये हैं ।हमने मान लिया है कि इसके द्वारा ही सारी समस्या हल हो जायेगी ।
नारायण! विचार करिये , मत्था उसके सामने टेकना चाहिये जिसके सामनेमत्था टेकने के बाद और कहीं मत्था टेकना न पड़े । यदि हमने सिर को झुकाया और फिरदूसरी जगह भी सिर झुकाना पड़ा तो सिर झुकाने का लाभ क्या हुआ ? हिन्दू धर्म के अन्दर एक मत्था टेक भावना आ गई , औरसर्वत्र हम अपने को नीचा करने लग गये । हमारा आर्दर्श है - " ब्रह्म " , " आनन्द " और " ईश्वर " । आपकेअन्दर ज्ञान - क्रिया - शक्ति उतनी ही प्रस्फुटित है , उतनीही पूर्ण है ,  जितनी ईश्वर में है। हम तो परमेश्वर के सामने भी खड़ेहोने का साहस रखते हैं । श्रुतियों ने हमारे सामने आदर्श रखा , क्या आदर्श रखा ? परमेश्वर के साथ मित्रता का आदर्श रखा । गिड़गिड़ाने कानहीं रखा । भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्करभगवत्पाद् कहते हैं - " न भृत्यवद्याचे " । और बाद में हमारी यह स्थिति हो गई कि हम जहाँ भीजाते वहाँ गिड़गिड़ने लग गए । हमारी आत्मिक भावना इतनी हीन हो गई , इतनी कमजोर हो गई कि उन सबका आच्छादन करने केलिये हमने एक बड़ा भारी बवण्डर खड़ा कर दिया कि व्यावहारिक जगत् के अन्दर भय खातेरहो , पारमार्थि जगत् में तुमअभय रहो । यदि व्यवहार के अन्दर ही हमारा अभय नहीं आ पा रहा है , यदि व्यवहार में ही हमको आनन्द का अनुभव नहींहो रहा है तो पारमार्थिक आनन्द का क्या विश्वास है ? हमसे यह कहा जा रहा है और इस दुःखवाद का यहां तक नतीजाहोता चला जा रहा है कि हमसे कहा जाता है कि तुम अपनी कमर को कस लो , इस समय भूखे मर लो , इसलिये कि आगे आने वाली औलादें सुखी होगी । क्या हमनेदेखा है कि आगे आने वाली औलादें सुखी होंगी या नहीं ? यदि इस क्षण हम सुख की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं तोफिर आगे आने वाली औलाद  सुखी होगी इसका क्या विश्वास हो सकता है ?इस जन्म में परजन्म में हम सुख ढूंढ़नेलगे गये ! इतना ही नहीं , अबयहां तक स्थिति आगई है कि हम आगे आने वाली पीढ़ियों का सुख और अभय सोचते हैं ,स्वयं अपना नहीं सोच पाते ! हमारे सामनेदुःखवाद की एक परम्परा , दुःखवादका एक नारा लगता चला जा रहा है ।
जब हम वेदो को देखते हैं तो उनमें हम विचित्र चीज़ पाते हैं :
" एतरेयोपनिषद " में कहा जाता है कि भगवान् गौ , घोड़े इत्यादि अनेक शरीरों को बनाया तो देवताओं ने कहाकि " नोयमलम् " येहमारे निवास का स्थान नहीं है । अन्त में जब मानव शरीर का निर्माण करके लाया गयातो कहा " सुकृतं पुरुषः " कियह हमारे निवास का है ।
नारायण ! विचार करिये ,हमारे शास्त्र कह रहे हैं :
" देहोदेवालयः प्रोक्तो देही देवो निरञ्जनः ।
अर्चितः सर्वभावेन स्वानुभूत्या विराजते ॥ "
                                        { मैत्रेय्यु 2 / 2 }
इस शरीर को तो हमारे सनातन धर्म ने देवता का घर माना है । सनातन धर्म नेइस शरीर को पीप का गोला या घृणित पदार्थ नहीं कहा । विचार करिये । हम सोचते कि यहशरीर हमें किसी पाप के फलस्वरूप प्राप्त हो गया है जो बड़ी बुरी चीज़ है , किसी तरह हम इसमें से निकल जायें ।
नारायण ! कई लोग कहते हैं , स्वामी जी ! किसी तरह इस शरीर से छूट जाये तो हमाराकाम बन जाय ।
प्रार्थना के प्रारम्भ श्रुति कहती है :
" पश्येमः शरदः शतम् , श्रृणुयामः शरदः शतम् "
" नन्दामः शरदः शतम् मोदामः शरदः शतम्" ।
अथर्व श्रुति कहती है हम आनन्द करें हम प्रसन्न होंवे ,मोद से रहें , सुखी रहें , हम देखते रहें , शरदःशतम् , सौ वर्षो तक हम जीवितरहें । यहाँ तक हमारी विचारधारा थी। हम इस दृष्टि को , इस आनन्दवाद को सामने रखना चाहते थे । लेकिन फिर हमदुःखवाद केचक्कर में क्यों पड़ गये ?
श्री नारायण हरिः ।

Comments

Popular posts from this blog

गायत्री मन्त्र का अर्थ

गायत्री मन्त्र का अर्थ ॐ भूर्भुवः स्वः " तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् " । =========================================== जप के पूर्ण फल को या इष्ट की असीम कृपा का भाजन बनने के लिए और जप के समय मन को अनेक कल्पनाओं से विरत करने का साधन मन्त्रार्थ चिन्तन है । इस परम शक्तिशाली गायत्री मन्त्र का अर्थ मैने अनेक लोगों के दूवारा लिखा देखा है । और उन पर व्यंगबाणों की बौछार भी । जो आप सब मनीषी इससे पूर्व पोस्ट में देख चुके हैं । इस मन्त्र का " तत् " और "यो " तथा " भर्गो " शब्द विद्वत्कल्पों की जिज्ञासा के विषय बने रहे । आलोचकों का मुहतोड़ उत्तर दिया जा चुका है । उससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का शमन भी हुआ होगा । पर कुछ अनभिज्ञों ने तो "भर्गो " की जगह " भर्गं " करने का दुस्साहस भी किया ; क्योंकि " भर्गं " उन्हे द्वितीया विभक्ति का रूप लगा और " भर्गो " प्रथमान्त पद । पहले हम भर्ग शब्द पर चर्चा करते हैं --- भर्ग शब्द हमारे सामने हिन्दी रूप में उपस्थित होता है और जब उसका संस्कृत रूप में...

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...