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मानस रोग भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि

मानस रोग  भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि (सर्वग्य शंकरेंद्र )
नारायण ! बहुत से लोक कहते हैं " महाराज " ! हमने दूसरों का कल्याण किया , दूसरों को बहुत फायदा पहुँचाया लेकिन जब हमारे ऊपरआपत्ति आयी तो वे सब हमारे दुश्मन हो गये । हम प्रायः उनसे कहा करते हैं" भाई " ! आप अपना मन को जड़ा टटोल कर देखें। आपने जो दया दिखाई थी उसमें घमण्ड का भाव था । आप सोच रहे थे कि उसके ऊपर दया कर रहा हूँ ,अतः वह मेरा हमेशा कृतज्ञ बना रहे । आपयह समझ रहे थे कि मैंने इसका बड़ा उपकार किया है । आपके हृदय में करुणा का भाव नहींथा । यह भाव आपके मन में नहीं था कि इसका उपकार किये बिना मैं नहीं रह सकता हूँ ।जब हमारे अन्दर करुणा का भाव होता है तो दूसरे के कष्ट से हमें दुःख होता है ।" वाशिंगटन " के जीवन की एक घटना है । वे एक बार कहीं जारहे थे तो उन्होंने देखा कि एक सूअर कीचड़ में फंसा हुआ तड़प रहा है । वे अपनी घोड़ागाड़ी से नीचे उतर पड़े और बड़े ही परिश्रम के द्वारा उन्होंने उस सूअर को बाहर निकालदिया । जब वे राष्ट्रपति भवन में पहुँचे तो लोगों ने देखा कि कीचड़ से लथपथ हैं ।सारी बात शहर में फैल गई । लोगों ने आकर जब उनको मुबारकवादी दी कि आपके हृदय केअन्दर कितनी दया भरी हुई है तो कहने लगे कि मेरे अन्दर दया नहीं है ,बल्कि उस दुःख की अवस्था देखकर यदि मैंचला जाता तो मेरे मन को दिन भर दुःख होता रहता कि उस सूअर की क्या हालत होगी।मैंने सोचा कि कपड़े ही तो गंदे होंगे , यदि मैं आधा घंटा परिश्रम कर लूं तो कहीं अच्छा है बजाय इसके कि दिन भरबैठा हुआ उसकी चिन्ता करता रहूँ । मैंने अपने मन को शान्ति देने के लिये यह कामकिया , किसी पर दया करने के लियेनहीं ।
नारायण ! यह है करुणा का भाव । जब हम देखते है कि हम जिन पर उपकार करते हैं, जिनके ऊपर दया करते हैं , धन देते हैं , सब कुछ करते हैं , वे अंत में हमसे सहयोग नहीं करतेबल्कि विरोधी बन जाते हैं तो हम इसीलिये दुःखी होते हैं कि हमने वास्तव में उनकेप्रति करुणा का भाव नहीं रखा था । आप यह समझते थे कि मैं बड़ा हूँ इसलिये इसके ऊपर उपकार कर रहा हूँ । तो अब इसके मन मन मेँ भी वही भाव आया कि इसके पास उपकार करनेको धन था तब इसने उपकार किया , आज यह दुःखी है तो रहने दो ,हमारा क्या ? यह दृष्टि क्यों आई ? यदि आपके अन्दर वास्तविक करुणा होती तो करुणा की प्रतिध्वनि मिलती । आज हमारे व्यक्तिगत , पारिवारिक और सामाजिक जीवन में करुणा की भावना का  अन्त होता चला जा रहा है । इससे एक सामाजिक दृष्टि भीसम्बन्धित है ।
नारायण ! आप थोड़ा इसे संक्षेप में समझ लीजिये । हमारे यहां सामाजिक परिस्थिति यह बन गई है कि हमने करुणा का सारा भार राज्य के ऊपर देना स्वीकार करलिया है। हमने राज्य को भूति" Welfare State " मानलिया है हमारा राज्य सारी करुणा का कार्य करे, हम न करें। इसलिये हम सारा धन देते है राज्य को और राज्य उसको वितरित करता है । आज विलक्षणचीज़ देखने में आती है। यदि सरकार बाध्य करती है तो हम अपने नौकरों का वेतन बढ़ानेके लिये तैयार हैं । हम अपनी तरफ से बढ़ाने के लिये तैयार नहीं। सरकार को हम टैक्सदेंगे । उससे सरकार ही मजदूरों के लिये मकान बना देगी लेकिन हम यह करने को तैयारनहीं कि पहले ही मजदूरों के ऊपर इतना खर्च कर दें कि हम को सरकार के पास जाने की जरूरत न पड़े । हम यह नहीं कह रहे हैं कि केवल व्यापारी ही इसके अपराधी हैं । यह सामाजिक दृष्टि ही अपराधी है कि हम राज्य को केन्द्र बनाते चले जा रहे हैं । यहबहुत ही निकृष्ट और गलत दृष्टि है । इसमें करुणा उत्पन्न नहीं हो पाती ।
इसलियेराज्य चाहे जितना उपकार करे , फिर भी लोगों के मन में राज्य  केप्रति यह सद्भावना उत्पन्न नहीं हो पाती है । हम यह नहीं कहते कि हमारे हमारेराजागण उत्तम कार्य करने के लिये परिश्रम नहीं कर रहे हैं । लेकिन उसका फल क्योंनहीं होता ? लोगों के अन्दरक्यों विपरीत भावना बनती चली जा रही है ? क्योंकि राज्य हृदयहीन पदार्थ है एवं राजपुरुष के हृदय में करुणा नहीं है। उनके हृदय के अन्दर एक दूसरी दृष्टि है । वह यह कि हम इनके ऊपर उपकार करते हैं ,ये हमारे उपकार को मानें और हमारी वाहवाही करें।
पर मनुष्य का स्वभाव है कि जब इस प्रकार के उपकार को प्राप्त करता है तो उसके विरुद्ध विप्लव करता है । वह नहीं चाहता कि यह अनुभव करे कि कोई मेरे से उच्चहै । जब माहात्म्यभाव आता है तो उसकी प्रतिक्रिया अपने ऊपर आती है कि मैं हीन हूँ। ऐसा हीन भाव स्वाभाविक है । ये दोनों आपस में मेल नहीं रख सकते । अतः करुणा की भावना को बढ़ाने की जरूरत है ।
नारायण! सारे सामाजिक जीवन को देखिये । यदि कहीं बाढ़ आती है तो यह भावना नहीं होती कि हमजाकर बाढ़ पीडित को एक धोती दे आयें । हम चाहते हैं कि एक चैक काट कर किसी संस्थाको दे दें । उस संस्था वाले नौकर को रख कर वहाँ धोती बांट आयेँ । परिणाम क्या  हुआ ?आपने दिया अवश्य , पर जिसे मिला उसे करुणा द्वारा नहीं मिला । तो नतीजा वही होता है कि कुछ आप करते हैं फिर लोग आपके उपकार को नहीं मानते । यही चीजघर के अन्दर भी होती है । केवल समाज में या राष्ट्र में ही नहीं , व्यक्ति के जीवन में भी यही होता है। पतिपत्नी को कुछ देना चाहता है इस कारण नहीं कि मेरी पत्नी है इस लिये दे दूं । उसके अन्दर भी यही दृष्टि होती है कि वह अच्छा कपड़ा पहनेगी तो समाज में मेरी अच्छी स्थिति बनेगी । पति पत्नी , पिताऔर पुत्र में इन विचारों का संग्रह होता चला जा रहा है। नतीजा क्या होता है ?सब कुछ होता है , पर सब कुछ करने पर भी जो प्रेम का भाव होता है वह नहींबन पाता ।
नारायण! " भगवान् महर्षि पतञ्जली " ने मुदिता , करुणा और उपेक्षा का विधान किया । यदि इनको अपना कर हम आगे चलते हैं तो हमारे " मानस तनाव" दूर हो सकेंगे । मानस रोगों से ही हमारे शरीर में रोग आतेहैं । आज अनेक रोग आते चले जा रहे हैं । जहां भी देखें यही सुनने में आता है किउनकी हृदय गति बन्द हो गई । हृदय रोगों का सम्बन्ध वैज्ञानिक दृष्टि से मानस जगत्से सिद्ध हो चुका है। उसी प्रकार और भी कई रोग आज आते  हैं- जैसे एक्जिमा । स्थूल रूप से हम शारीरिक रोग समझते हैं । पर इनके बारे में भी वैज्ञानिकों ने अन्वेषण करके सिद्ध कर दिया है कि इसका सम्बन्ध मानस जगत् से है ।
मन के अन्दर किसी प्रकार का तनाव ही इन शारीरिक रोगों में अभिव्यक्त होताहै । जिनको हम अत्यन्त स्थूल रोग समझते हैं उनका सम्बन्ध भी किन्हीं मानसिक तनावोंके साथ है ।
जब हमारी दृष्टि धार्मिक बनती है , आत्म -केन्द्रित न रह कर परमात्म - केन्द्रित हो जाती है , जब हमारीदृष्टि के अन्दर सारा विश्व एक" अयुत सिद्धवयव " बन जाता है तो हम मानिसक तनावों से छूट जाते हैं । 

" मुदिता " , " करुणा " और " उपेक्षा " काजो सूत्र " भगवान् श्रीपतञ्जलि " ने हमें देते हुए जो हम पर अनुग्रह किया है । " भगवान् पतञ्जलि " केइन दिव्य सूत्रों के द्वारा हमारे अन्दर एक ऐसी दृष्टि बन जाती है , एक ऐसा जीवन - दर्शन बन जाता है कि स्वभावतः हम रोगोंसे मुक्त हो जाते हैं । हम स्वयं भी सुखी हो जाते और जिनके साथ रहते हैं उनको भीसुखी कर सकते हैं ।

परमात्मा परमशिव हमारे और आप सबके अन्दर " मुदिता ", " करुणा " और " उपेक्षा " के परम भाव को संचारित करें यही उस परमशिव से  प्रार्थना करता हूँ ।
समाप्त ......
आप सबका परम मङ्गल हो ।
श्री नारायण हरिः ।

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