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" धैर्याङ्कुश " - { १ }

 " धैर्याङ्कुश " - { १ } ( सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र )
  • नारायण ! अज्ञान को हटाने के लिये बड़े धैर्य की जरूरत पड़ती है । " भगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद जी " ने अनुग्रह करते कहा है :
  • " धैर्याङ्कुशेननिभृतं रभषादाकृष्य भक्तिश्रृंखलया ।
  • पुरहर चरणालाने हृदयमदेभं बधान चिद्यन्त्रैः ॥ "

  • यह तुम्हारा अज्ञान कैसा है ? कहते हैंयह हाथी की तरह है । हाथी को मारना सरल नहीं होता , पकड़ना भीसरल नहीं होता । धैर्य वाला ही इसे पकड़ सकता है । मदमत्त गजराज को पकड़ना बहुत हीमुश्किल होता है । किसी बड़े राजा को हटाना पड़े तो कितनी युक्ति से काम लेना पड़ेगा! यह अज्ञान तो राजाओं का भी राजा है । हाथी को नियन्त्रित करने के लिए अङ्कुशचाहिये । अङ्कुश के बिना हाथी हाथ में नहीं आयेगा । यहाँ अङ्कुश की जगह क्या है । " धैर्य" । लोग अधीरता के कारण हीवेदान्त - निष्ठा को प्राप्त नहीं करते। वेदान्त की विलक्षणता यह है कि यह अनुभवपहले कराता है बाकी साधन बाद में ।
  • नारायण! " ब्रह्म - विद्या " किसीनयी चीज़ का ज्ञान तो है नहीं , आपकी जानी हुई चीज़ का हीज्ञान है । खाली आपने इस चीज़ को मिला हुआ जाना है , बिनामिलावट के वह कैसी है , क्या है यह नहीं जान  सके ;" ब्रह्म - विद्या " उसके निख़ालिस स्वरूप का ज्ञान है, इतना ही तो फर्क है । यदि किसी अन्य अनुभव कोपाना होता तब तो कुछ करते तब मिलता । लेकिन यह तो प्राप्त की प्राप्ति है ।" ब्रह्म - विद्या " प्राप्त की प्राप्ति ही है , कोई नवीन चीज़ नहीं आनी है ।
  • नारायण ! पुराने अभ्यास से बीच - बीच में मनुष्य भूलता जाता है । अनादिकाल से अनात्मदर्शन का अभ्यास जो पड़ा हुआ है । आदमी दस - बीस साल बाद कहता है कि " जानता तो हूँ परन्तु समझ में नहीं आ रहा । " इसी प्रकार आदमी अधीर हो जाता है । यह अधीरता एकदूष्टि से तो ठीक है ,क्योंकि आप सोचने में प्रबल वेगसे लग सकते हैं, किन्तु यदि अधैर्य यह मार्ग छोड़ दिया , उभयान्तर में प्रवृत्त हो गये तो मौका चूक गये।
  • नारायण! आचार्य श्रीसर्वज्ञ शङ्कर भगवत्पाद् जी ने इसलिये कहा कि " धैर्य रूप अङ्कुश की आवश्यकता है " , जो धैर्यवाला है वह जान सकता है । यदि अनादिकाल से रहते हुए अज्ञान को एक क्षण के लिये भीहटाया तो इससे मुझे दो बातों पता चल खया । एक , अपनीसामर्थ्य का कि " मैं इसे हटा सकता हूँ " और दूसरी , कि ज्ञानरूप आत्मा की बात सत्य है ,क्योंकि अनुभव में आ गयी । प्रायः लोग कहा करते हैं" अरे तुम कैसे ब्रह्मज्ञान प्राप्तकर सकते हो ? बड़ा कठिन विषय है ।" हो सकता है कठिन हो । पर जबतुम्हारी समझ में ही आया नहीं तब कहते कैसे हो कि कठिन है ? जो अपना अनुभव होता है , चाहे वह क्षण भर को भी होवे , उसमें जैसी दृढता होती है वैसी किसी दूसरे के अनुभवमें नहीं होती । मान लें हमने एक अंधे व्यक्ति को सड़क पर जाते देखा , मोटर पर तेजी से जा रहे थे इसलिये क्षणभर केलिये ही देखा । उसका नाम था गोपी । हमें दूसरा व्यक्ति कहता है कि " गोपी अंधा तो मेरठ चला गया । " हम कहेंगे कि " नहीं जी , अभी कल ही तो हमने देखा है । " चाहे हमने क्षण भर के लिये देखा है , फिर भी हमें उसके मेरठ जाने की बात नहींजँचेगी । यदि वह व्यक्ति कहे कि " मैंने तो उसे मेरठ में ताश खेलते देखा है । " तो दुविधा की स्थिति रहेगी , संदेह होगा , किन्तु निश्चय नहीं होगा क्योंकि " दिल्ली में है " यह अपना अनुभव है। इसी प्रकार क्षण भर के लिये भी यदियह समझ लिया कि " इस शरीरआदि का मैं द्रष्टा हूँ " तोउस क्षण भर के अनुभव यह आग्रह ढीला पड़ जायेगा कि " मैं शरीरादिसंघात ही हूँ , कर्ता - भोक्ता ही हूँ । "  फिरकोई कहे कि " तुझे चाँटामारता हूँ , तो दर्द होता है ?" " होता है । "" फिर तू शरीर से एक है ?" तो कहेगा कि " सचमुच में एक नहीं हूँ , भले ही अभी एक - मेक हुआ लग रहा हूँ ।" अनुभूति - रूप ज्ञान देहादि सेतादात्म्य को शिथिल करता है , यहनिश्चय होता है कि सचमुच देहादि से एक नहीं । अभी अपने - आप की शुद्धता का हर क्षणमें निश्चय नहीं कर पा रहा है : मन में राग द्वेष होगा । दूसरा पूछे कि" तू रागी हे ? " कहेगा कि " इस समय मन के साथ एक हो गया , लेकिन मैं सचमुच उससे एक नहीं हूँ । " यह जो दृढ तादात्म्य और उसके शैथिल्य का भेदहै इसे हृदय की विशेष स्थिति ही बतलायेगी । " ठीक है , मेरी गलती है , मैं मनसे एक हो गया लेकिन हूँ नहीं " - जब तक इन दो बातो का ख्याल करेगा तब तक इस मार्ग में धैर्य रहेगा ।
  • नारायण ! धैर्य है अङ्कुश ,इसके द्वारा अज्ञान नियन्त्रणमें आयेगा । अज्ञान तुम्हें बार - बार पथ से भष्ट करवायेगा , वह अपनी कला दिखायेगा उसे देखकर तुम अधीर हो जाओगे। जोलोग दृढ निश्चय वाले है कि" हम जीव ही हैं " वे अज्ञानी अपना पाठ पढाएँगे कि " यह सब कुछ नहीं जी , तुम तोकर्ता ही हो ।" बहुत बाते लोग कहते हैंउनसे घबराना नहीं । जो व्यक्ति दिन में एक क्षण भी अपने द्रष्टा - भाव को शरीर , मन आदि से दूर नहीं करता , खुद को शरीरादि से पृथक नहीं समझता वह व्यक्ति दूसरायदि चौबीस घंटे में एक घन्टा भी अपने द्रष्टा - भाव को शरीर मन आदि से दूर रखता है, तो उसे याद दिलाता है कि " तेइस घण्टे याद क्यों नहीं रखते ? " जो अज्ञान के आधार वाले होंगे वे अज्ञान पर ज़ोर देंगे। इसलिये आचार्य शङ्कर ने कहा कि धैर्य द्वारा नियन्त्रण करना है।
  • फिरहाथी को जंजीर बाँधनी है । कैसी जंजीर ? दृढ़ लोहे की । यदि  बाँधीजाएँगी डोरियाँ तो काम नहीं बनेगा । परमात्मा के प्रति जो भक्ति अर्थात् प्रेम हैवही श्रृंखला है । मन तो सुख लोभी है । मन को क्या चाहिये ? सुख चाहिये । जैसे ही तुम उसे आत्मोन्मुखी करोगे वैसेही क्योंकि आत्मा आनन्द रूप है इसलिये उसे सुख का अनुभव हो जाएगा । अतः परमात्माके प्रति जो भक्तिरूप प्रेम है वह जंजीरें है । यदि परमात्मा अन्य और मैं अन्य तोहमारा प्रेम कभी ढीला भी पड़ सकता है । जो चीज़ अपने से भिन्न है वह कभी अप्रिय भीहो जायेगी । लेकिन जब यह पता लग गया कि यही मेरा अन्तर आत्मा है तब उसे छोड़कर जाऊँकहाँ ! मनुष्य का सब चीज़ों से प्रेम हट सकता है लेकिन अपने आप से नहीं । प्रेम कीजो श्रृंखला है वह दृढ तभी होती है जब अभेद हो । जितनी अधीक एकता होती है उतना हीदृढ प्रेम होता है । एकता सापेक्ष होती है : मित्रो की अपेक्षा पुत्र से , पुत्र की अपेक्षा पत्नी से अधिक एकता होती हैतो अपेक्षाकृत प्रेम भी अधिक होता है । लेकिन सर्वाधिक प्रेम तो अपने - आप से हीहोता है ! इसलिये जब - जब तुम्हें स्मरण हो तब - तब अपने आत्म - स्वरूप की ओर जाओतो सच्चिदानन्द की प्राप्ति हो जायेगी ।
  • सावशेष .....
  • श्री नारायण हरिः !

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