" आशा - पिशाचिनी " { १ } :
by सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र (Notes)
!! श्रीअनन्तानन्देन्द्र गुरुवे नमः !!
" आशा - पिशाचिनी " { १ } :
नारायण ! चित्त की एकाग्रता जिन कारणों से नहीं होपाती , उन कारणों को जब तक दूरनहीं किया जाये तब तक तत्त्व का अनुभव संभव नहीं । शिक्षा तो वह होती है जोव्यवहार में आवे , अनुभव में आजाये । जो शिक्षा व्यवहार और अनुभव में आये ही नहीं वह शिक्षा किस काम की । चित्तकी अनेकाग्रता ज्ञान को भले प्रकार से समझने नहीं देती और जब समझ ही ठीक नहीं होगीतो फिर क्रिया ठीक हो ही नहीं सकती । अनेकाग्रता को हटाया कैसे जाये?
भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्करभगवत्पाद् इतनी सब चीजों को संग्रह करतेहुए अनुग्रह करते हैं :
" आशांछिन्धि विषोपमेषु विषयेष्वेषैव मृत्योः सृतिः
त्यक्त्वा जातिकुलाश्रमेष्वभिमतिं मुञ्चातिदूरात् क्रियाः ।
देहादावसति त्यजात्मधिषणां प्रज्ञां कुरुष्वात्मनि
त्वं द्रष्टास्यमलोसि निर्द्वयपरब्रह्मासि यद् वस्तुतः ॥ "
भाष्यकार भगवान् आचार्य श्रीशङ्करभगवत्पाद् जी अनुग्रह करते हुए सबसे पहलासाधन बताते हैं कि सबसे बड़ी जो विमारी है - " आशा " उसके टुकड़े - टुकड़े कर दो । " आशां छिन्धि " ।
नारायण ! लौकिक व्यवहार में " आशा " को एक बड़ी अच्छी चीज़ माना जाता है , लेकिन विवेकी जानता है कि वस्तुतः " आशा" कोई अच्छी चीज़ नहीं है । " आशा" का नाश ही एक अच्छी चीज़है । शास्त्रकार कहते हैं :
" आशांहि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्" ।
" आशा " महान् दुःखों की जननी है । फिर संसार केव्यवहारों में " आशा " कोमहत्त्व क्यों ? संसार के सब पदार्थों के अनुभव में जो आप -हम चाहते हैं वह मिलेगा नहीं । संसार के जितने पदार्थ हैं उनकी तरफ जिस कारण से हम- आप प्रवृत्त होते हैं , जिस इच्छा से उनकी तरफ चलकर गये वह कभीपूरी होगी ही नहीं । और जब - जब पूरी नहीं होगी तब - तब यदि हम विवेकी हैं तो उसचीज़ को छोड़ देंगे । लेकिन यदि हमने आशा को मन में बाँध रखा है तो हम बार - बारजाकर आथा फोड़ेंगे ! संसारी लोग चाहते नहीं कि हम में विवेक का उदय हो। जब विवेकउदय नहीं होगा तभी हम संसार के धन्धे में बार - बार माथा पटकेंगे । यह जो हम मेंविवेक को उदय न होने देने वाली शक्ति है वह कौन है ? " आशा " ही है ।
हमारेपास पचास रुपये है , हम सोचते हैं कि सौ रुपये मिलेंगे तोसुख होगा । जब सौ रुपये मिल जाते हैं , तो विवेकी झट हिसाबकरके देखता है कि जिस प्रकार से रुपये पचास की बजाये सौ अर्थात् दुगुने हो गये ,उस प्रकार से सुख भी दूना हुआ कि नहीं ? जितनाहमारा रातभर का , दिनभर का सुख है , उसेदेखता है कि दूना हुआ कि नहीं । जहाँ उसको पता लगा कि दूना नहीं हुआ वहीं विवेकीने समझ लिया कि अधिक धन से सुख नहीं । " आशा" को जो मन में बाँध रखा है वह क्या करेगा ? सौ रुपये में तो नहीं , अब हजार हो जायें , तो सुख मिलेगा । जब हजार मिल गये तो आशा करता है कि दस हजार हो जाये तोसुख मिलेगा । और इसी आशा से बार - बार सोचता है कि " अबकीबार सुख होगा , अब की बार सुख होगा " लेकिनसुख प्रतीत कहीं भी होने वाला नहीं ; चाहे कितना भी धन इकट्ठा कर ले हाथ कुछ भी नहीं लगना है । विवेकी आशा केदुःख को समझ जाता है इसलिए आशा नहीं कर पाता ।
मामूली सा पेट खराब हो गया , तबियत ठीकनहीं , तो कभी इस डॉक्टर के दवाई लेता है, कभी उस डॉक्टर से दवाई लेता है , पेट के विशेषज्ञ डॉक्टर से दवाई लेता है । जो परहेजजिसने बताया वह भी कर लिया । इतना सब किया फिर पता रगा कि फलाँ वैद्य की दवाई पेट - दर्द के लिए बड़ी लाभकारी सिद्ध होती है , तो वह भी कर ली । लेकिन कुछ भी फायदा नहीं हुआ । वहविवेकी नहीं कहा जा सकता। विवेकी होता तो एक या दो कुशल डॉक्टरों से अथवा वैद्योंसे ही दवाई लेता , अपना इलाज करवाता और अगर वह रोग फिर भी ठीकनहीं होता तो निश्चय कर लेता कि" अब यह मेरा रोग ठीक नहींहो सकता । इसके साथ ही जीवन बिताना है । " ऐसानिश्चय मन में कर लेता और इधर - उधर बेकार टक्करेँ न मारता ।
इसीप्रकार एक पुत्र बड़ा हुआ - मेरी आज्ञा के अनुरूप नहीं चला , मेरीइच्छाओं को पूर्ण नहीं किया। विवेकी समझ लेता है कि पुत्र की अभिलाषा करना बेकारहै । लेकिन अविवेकी क्या करता है ? सोचता है कि बड़ा पुत्र तो अनुकूल नहीं बना , अब आशा बाँधता है कि मझला पुत्र ही ठीक होगा ! वह मेरीआज्ञा का पालन करेगा । अब मँझला भी स्वतन्त्र हो गया तब सोचता है कि सबसे छोटापुत्र बड़ा अच्छा है , मेरे कहनेके अनुसार चलेगा । लेकिन वह भी आज्ञाकारी नहीं निकलता । बाद में फिर सोचते हैं किइस जगत् में कुछ नहीं - वैराग्य ले लेना चाहिए ! आशा के कारण विवेक से जो वैराग्यउत्पन्न होना चाहिए वह नहीं होता । विवेक के बिना पदार्थों का स्वरूप समझ में नहींआयेगा । जब तक यह " आशा -पिशाचिनी " पीछे लगी रहेगीतब तक सत्यता का ज्ञान नहीं हो सकता । " भगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् जी" कहते हैं कि " आशा को काटो , इसके टुकड़े - टुकड़े कर दो " ।
नारायण! कोई पूछ सकता है कि " परमात्मा की प्राप्ति होगी" यह भी तो आशा है ? अतः आचार्य नेस्पष्ट " विषयेषु " कर दिया ;जब आप परमात्मा को पाओगे तब आपकी इच्छा पूर्ण होगी , लेकिन विषयों का स्वभाव है आपकी इच्छाओं को पूर्ण न होने देना जबकि ईश्वरका स्वभाव है आपकी इच्छाओं को पूर्ण कर देना । इसलिये विषयों में अनादि काल से हमसब लगे हैं लेकिन आज तक " कृतकृत्यता " का बोध नहीं हुआ । दूसरी तरफ जहाँ आत्मानुभव हुआ वहाकृतकृत्यता का बोध स्पष्ट हो जाता है । अमृतत्व प्राप्त कर लेने के बाद फिर किसीभी चीज़ को कभी भी पाने की इच्छा नहीं रह जाती । असल में कोई ऐसी चीज़ रह नहीं जातीहै जो प्राप्त न कर ली हो ! उस अमृतत्व को पा लेने के बाद सब चीजों की प्राप्ति होजाती है , बाकी कुछ भी चीज़ रहनहीं जाती । अतः ऐसा कभी नहीं लगता है कि अमुक चीज़ को प्राप्त करना चाहिए ।
नारायण! परमेश्वर की आशा , आत्म - प्राप्ति की आशा , यह वास्तविक आशा है । खासकर यह इसलिए समझें कि विदेशी लोगों ने कई बारभारतीय दर्शनों पर , विशेषकर वेदान्तशास्त्र पर यह दोष लगायाकि यह कुछ आशा नहीं देता , जबकि यही वस्तुतः आशावादी दर्शनहै ; आशावादी नहीं दृढ़ आशावादी है ! यह इसलिये सम्भव है किसंसार की ओर आशा रखना - इसे हम छुड़ाते हैं और परमात्मभावपाने की आशा करना सिखाते हैं । किन्तु विदेशी लोग इह लोक छोड़कर कुछ समझ ही नहींपाते । इह लोक को छोड़कर कयोंकि वे कुछ नहीं समझ पाते इसलिए उनकी भावनाएँ भीनिराशावादी हैं । एक बार एक ईसाई पादरी अफ्रीका में गये हुए थे । वहाँ अफ्रीकीलोगों को सुना रहा था कि " जब द्वितीय महायुद्ध हृ तो इतने आदमी मरे कि लाशों परलाशें पड़ते हुए मानो पहाड़ बन गये ! " अफ्रीका में लोग नरमांस भक्षी होते हैं । उन्होंने उससे पूछा कि" फिर तुम कितने दिनों तक नरमांसखाते रहे ? " पादरी अबचौंका और कहने लगा कि " हमनरमांस खाते ही नहीं हैं । " अफ्रीकीलोगों ने कहा " अरे ! जबखाते ही नहीं हो तो मारते क्यों हो ? " उन्हें यह नहीं समझ आया कि खाने से अतिरिक्त भी कोईप्रयोजन मनुष्य को मारने का हो सकता है । ठीक यही हाल विदेशियों का है । उन्हेंआत्म - तत्त्व के विषय में कोई ज्ञान नहीं है अतः अनित्य विषयों को जब हम बेकारबताते हैं तब वे समझते हैं कि हम कह रहे हैं कि सब बेकार है । इसलिए आचार्य शङ्करस्पष्ट कर दिया कि " आशा" अर्थात् विषयों की आशा के टुकड़े- टुकड़े कर दो ।
नारायण! जैसे विष का प्रयोग करने से आदमी मरता है वैसे ही मनुष्य इस आशा रूपी विष का पानकरने से मरता है अर्थात् वही मृत्यु का रास्ता है । जब - जब हम विषयों का संग करतेहैं , उनकी आशा करते हैं , तब - तब मनमें उसका संकल्प बनता है । जहाँ संकल्प बना तदनुकूल ही फिर उसमें " कामना " पैदा होगी - " ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात् सञ्जायतेकामः।"
कामना होगी तो उसकी पूर्ति में जो विघ्न डालेगा उसके प्रति " क्रोध" होगा । क्रोध के अन्दरविवेक नहीं रहेगा । जब विवेक नहीं रहेगा तब " मैंकौन हूँ " ," क्या हूँ " किसी चीज़ का ख्याल नहीं रहेगा । विषय प्रयोग करने केलिये हैं उनकी आशा करने के लिए नहीं है । प्रारब्धानुसार जो विषय सामने आयें उनसेसुख या दुःख नाम के पदार्थों की आशा न किया जाये । सारे संसाय के अन्दर यह आशा हीकठिनाई पैदा करती है ।
हमारेपास सौ साड़ियाँ हैं , लेकिन पहनने को तो उसमें से चार हीचाहिए , बाकी साड़ियाँ क्या करनी हैं ? आशाहै कि कभी काम आयेगी । इसी प्रकार धनादि सब चीज़ों को समझ लें । जिसकी कोई उपयोगितासामने नहीं है , उस पदार्थ को भी हम दूसरों को बाँट नहींसकते क्योंकि आशा है कि " शायद जरूरत पड़ ही जाये" । अपने सामान के प्रति भी यह आशा और जन्म - मरण के प्रति भीयही आशा ; इसलिये कभी समझ आ भी जाये कि अनादि काल से असंख्यजन्मों में दुनिया देख ली , कोई आनन्द , शान्ति नहीं मिली तो अब इस जन्म को परमात्मप्राप्ति के लिये लगावें ;तो झट आशा सामने आ जाती है " शायद इसजन्म में ही संसार हमें सुख देगा ! " जहाँ इस बात को समझ लिया कि सुख - दुःख कोदेने वाला प्रारब्ध है वहाँ फिर यह आशा नाम की चीज़ रह नहीं सकती। तात्पर्य हुआ किपदार्थ प्रयोग के लिये हुआ करते हैं , आशा के द्वारा उनको संचित या इकट्ठा करना ठीक नहीं । व्यक्ति का ही नहींसारे समाज की मृत्यु का कारण क्या है ? आशा ।
जैसे - जैसे आशा का परित्याग करेंगे वैसे - वैसे चित्त एकाग्र हो पायेगा , परमात्मा में लग पायेगा ।
नारायण ! आप सभी" मित्रगण " सत्संगी हैं - ध्यान करते समय क्या है जो चित्त कोविचलित करती है ? आशा है मन में । जिस - जिस चीज़ की आशायें हैवे बिघ्न डालती हैं ध्यान के समय । चित्त की एकाग्रता के लिये आशा को हटाना बहुतजरूरी है । आशा कैसे कटेगी ?विवेक से । भोग काल में विवेक करनाहै ।
" विषयेन्द्रियसम्बन्धःसामान्यः सर्वदेहिनाम् ।
योगिनान्तु विशेषोऽयं सम्बन्धे सावधानता ॥ "
सावशेष ,,.,.
श्री नारायण हरिः ।
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