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" आशा - पिशाचिनी " { २ } :

" आशा - पिशाचिनी " { २ } :


नारायण ! अज्ञान हो चाहे ज्ञान , विवेक हो या अविवेक , विषय और इन्द्रियों का संयोग तो हमेशा संभावित होगा ।सामने रूप आयेगा तो आँख का सम्बन्ध होगा ही । जीभ पर गुलाब जामुन { एक प्रकार का मिष्टान्न } रखेंगे तो मिठास आयेगी ही । विषय औरइन्द्रियों का जो संयोग है वह तो सभी प्राणियों का एक जैसा ही होता है । फिर साधकऔर असाधक में अन्तर क्या है ? अभ्यासीकी विशेषता यह है कि सम्बन्ध के काल में वह प्रमाद नहीं करता - सावधान रहता है ,अप्रमादी रहता है । साधारण मनुष्यविषयेन्द्रिय - सम्बन्ध के समयविवेक को जाग्रत् नहीं रखता । विवेकी उस समय विवेक को जाग्रत् रखता है और बड़ेध्यान से देखता है कि " मैंनेइस विषय में जो " आशा" लगायी थी वह पूरी हो रही है या नहीं " । अविवेकी इन सब बातों का ध्यान नहीं रखता , बस यही अन्तर है " मेरे प्रभु" । आशा को काटने का तरीक है पदार्थ के भोग के काल में विवेक को जाग्रत् रखना । तब धीरे - धीरे आशा हट जायेगी । आशा को हटाना है , दिल को मारना नहीं है । दिल को मारना होता है कि पदार्थ की आशा तो है लेकिन क्योंकि मुझे मिल नहीं सकता , इसलिए छोड़ देते हैं। यह हुआ " मेरे नारायण  " ! दिल को मारना।
नारायण ! संस्कृत भाषा में तो " दुराशा " और " निराशा " - दो शब्दहैं । लेकिन हिन्दी भाषा में एक ही शब्द है " निराशा " , इस एक ही शब्द से हिन्दी वाले काम चलाते हैं । यदि पदार्थ की प्राप्ति की सम्भावना न होने से आशा छूटती है तब उसका नाम "दुराशा ",- यह वैराग्य उत्पन्न नहीं करती । " नहीं मिल सकता " इसे लेकर जो होगी वह साधक के लिये उपादेय नहीं है ।" वेदान्त शास्त्र " कहता है कि कोई चीज़ ऐसी नहीं जो तुम्हें नहीं मिल सकती । तुम चाहो तो इस संसार के ब्रह्मा बन सकते हौ ! तुम्हीं तो बने हो ! इसलिए कोई चीज़ ऐसी नहीं जो तुम प्राप्त न कर सको , अतः " दुराशा " को यहाँ स्थान नहीं । लेकिन पदार्थ को पूरा करने में समर्थ नहीं है इसलिये जो आशा छूटती है उसका नाम " निराशा" । दुराशा व निराशा के पीछे जो मूल भाव है उसी में भेद है । निराशा में हेतु विषय गत दोष है। विषयगत दोष भी नहीं क्योंकि बेचारे विषयों में हमारी इच्छा पूर्ण करने की सामर्थ ही नहीं है । उनको प्राप्त करने की सम्भावना नहीं है ऐसा नहीं - वरन् वे इस लायक नहीं कि हम उन्हें पायें क्योँकि वे हमारी इच्छा पूरी कर नहीं सकते । 
नारायण ! दूसरी बात " श्रीआचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद् जी " अनुग्रह करते हुए बतलाते हैं -

" त्यक्त्वा जातिकुलाश्रमेष्वभिमतिम्" !

आचार्य क्या अनुग्रह करते है ?अनुग्रह करते हुए कहते हैं - जो मन को एकाग्र नहीं होने देते उनमें प्रधान हैं जाति , कुल आश्रम आदि के अभिमान । ये अभिमान चित्त को एकाग्र नहीं होने देते । " मैंब्राह्मण हूँ " , " मैंबहुत बड़े खान - दान का हूँ " आदि- आदि जितने अभिमान हैं ये व्यक्ति को हमेशा अस्थिर करते रहते हैं । एक बहुत बड़े सिद्ध हुए हैं - " श्रीभास्कर राय " । उन्होंने उपासना सेअत्यन्त तेजस्विता प्राप्त की थी । बड़े भारी विद्वान् भी थे । अपने मकान के बाहऱ बैठे हुए विद्यार्थियों को पढ़ाते रहते थे । उधर से एक " दण्डी स्वामी जी " निकलते थे और " श्रीभास्कर राय " उन " दण्डी स्वामी जी " को ॐ नमो नारायणाय " नहीं करते थे । दण्डी स्वामी जी को बड़ा गुस्सा था कि" बड़ा पण्डित बनता है और प्रणाम नहीं करता है " ।
एक दिवस नवरात्रि का समय था । भास्कर राय भी मन्दिर  दर्शन करने गये हुए थे और स्वामी जी भी वहाँ आ पहुँचे। दण्डी स्वामी जी ने सोचा कि" यहा इनका भण्डाफोड़ करें "। कहने  लगेकि " अच्छा ! यहाँ आकर आस्तिक बनता है , बड़ा विद्वान बनता है , और संन्यासी को" ॐ नमो नारायणाय " भी नहीं कर सकता ? " भास्कर राय कहने लगे कि " स्वामी जी ! मैं आपको नमस्कार करने के योग्य नहीं हूँ। अभिमान की बात मेरे मन में नहीं है । " " योग्य नहीं का क्या मतलब ? " उन्होंने पूछा । भास्कर राय ने कहा कि" अच्छा , आप यह दण्ड सामने टाँग दो । " उस दण्डी स्वामी ने अपना दण्ड वहाँ टाँग दिया। जैसे ही भास्कर राय ने नमस्कार किया उसी समय टँगे दण्ड के तीन टुकड़े हो गये !यदि उपासना विशेष वाला अपनी अपेक्षा कम तेजस्वी को नमस्कार करे तो वह मर भी जाता है। दण्डी स्वामी जी तो इतने दिन तक सोचते रहे कि अभिमान के कारण यह भास्कर राय नमस्कार नहीं करता है । यही उनके चित्त में इतने दिन तक विक्षेप पैदा करता रहा ।
नारायण ! राजस्थान की मीरा को लोग यही समझते थे कि" इतने ऊँचे कुल की होकर भी तू यह भिखमंगे साधुओं के साथ भजन क्यों करती है ? इधर - उधर भटकने की क्या जरूरत है , एकान्त में बैठकर भजन कर । " इसके पीछे भाव क्या था ? कुल का अभिमान। इसलिए मीरा ने कहा कि" जिस राठोर कुल में मेरा जन्म हुआऔर जिन सिसोदियों में मेरा विवाह हुआ ये दोनों कुल अगर मेरी बात मानते तो मैं इनको वैकुण्ठ लोक ले जाती । "
ये सब अभिमान मनुष्य के साधना - मार्ग में रुकावट लातेहैं , चित्त को एकाग्र कभी नहीं होने देते ।
नारायण ! " भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्करभगवत्पाद् जी" ने एक और दृष्टान्त दिया है :
एक " उदंक महर्षि " थे ।उन्होंने बड़ी तपस्या की । तपस्या का इतना फल उन्हें मिला कि वे जहाँ जाते थे उनके ऊपर बादल रहते थे छाया करने के लिए । इतना तप का फल था। अभी भी जो छोटे - छोटे बादल होते हैं उन्हें लोक " उदंक बादल " कहा जाता है । एक बार भगवान् श्रीकृष्ण से वे मिले और उन्होंने कहा कि " मुझे आप अमृत पिला दो , मैं अमर हो जाऊँ । " भगवान् ने कहा कि " अरे भाई ! यह रहने दे , और कुछ माँग ले । " परन्तु " उदंक महर्षि " किसी भी तरह से नहीं माने तो श्रीयशोदानन्दन श्रीकृष्ण ने कहा " अच्छा मैं इन्द्र से कह दूँगा , अमृत पिलाने के लिए । " भगवान् ने इन्द्र देव से कहा कि " है तो मनुष्य लेकिन अमृत पीना चाहता है। मैं कह चुका हूँ तो तुम उसे अमृत दे दो । " इन्द्र देव ने कहा " यह तो देवताओं का भोज्य है , मनुष्य को कैसे दें ? " भगवान्  श्रीकृष्णने कहा " कोई उपाय करो इन्द्र देव । " इन्द्र देव बोले " ठीक है , मैं एक बार उसे पीने के लिये कहूँगा , अगर उसने मना कर दिया तो फिर नहीं मिलेगा उसे। एक ही बार में मान गया तो दे दूँगा । " भगवान् श्रीवासुदेव श्रीकृष्ण ने कहा " ऐसा ही कर लो । " " उदंक महर्षि " भगवान् को प्रिय तो थे ही । भगवान् ने उन्हें सावधान कर दिया कि " देख , इन्द्र तुझे एक मोका देगा , " ना " मत करना क्योंकि दूसरा मौका नहीं मिलेगा । " उदंक महर्षि ने कहा " ठीक है । " अब देवेन्द्र के सामने बड़ी समस्या आ खड़ी हुई क्योंकि सावधान होने से अगर उसने " हाँ" कर दिया तो मनुष्य को अमृत देना पड़ेगा । देवेन्द्र ने उपाय निकाल लिया जिससे वह पियेगा भी नहीं और देवेन्द्र उसे पीने के लिए कहेगा भी। एक बार उदंक ऋषि कहीं जा रहे थे । चाण्डाल वेश धारण करके एक मिट्टी के घड़े में अमृत भर कर देवेन्द्र उनके सामने आ धमके । घड़े में अमृत इस प्रकार से भर कर लाये थे जैसे कोई चाण्डाल मल - विष्टा आदि का वर्तन लेकर जाता है। चाण्डाल के रूप में इन्द्र कहने लगे कि " ऋषिदेव ! यह अमृत है , इसे आप पी लो । " ऋषि उदंक को बड़ा गुस्सा आया । क्रोध में लाल - पीले हो गये , कहने लगे कि " तू ऐसी बात करता है ! मैं तुझे शाप दे दूँगा । " इस पर इन्द्र प्रकट हो गये और कहने लगे कि" बस करिये ; , क्रोध मत करिये ; पर आप अपना मौका चूक गये । " इसलिए " भगवान् भाष्यकार श्रीशङ्करभगवत्पाद् जी " कहा है :

" मूत्राशंको यथोदंको नागूहीदमृतं यथा ।
कर्मनाशभयाज्जन्तोरात्मज्ञानाऽ ग्रहस्तथा ॥"

मूत्र की शंका से जैसे उदंक ऋषि ने अमृत को पीने के लिये " न " कर दी वैसे ही संसारी लोग " उत्तम कुल के जन्में हैं , हमारा कुल बड़ा है , इसके कर्म श्रेष्ठ हैं , हम कुल का त्याग , कुलोचित कर्मों का त्याग कैसे कर दें ? " इस अभिमान के कारण मोक्ष शास्त्र का विषय जो आत्मज्ञान उसे प्राप्त नहीं कर पाते । इसलिये कहा कि जाति , कुल आदि का अभिमान छोड़ने पर ही इसकी प्राप्ति सम्भव है, इनके अभिमान आदि को छोड़ने परही चित्त की एकाग्रता बनती है ।
सावशेष ......

॥ भगवान् भाष्यकार जी को दण्डवत् प्रणाम ॥

श्री नारायण हरिः ।

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