!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २५ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरुदेव भगवान् अपने ब्रह्मचारी शिष्य से कहते हैं कि " हे सौम्य! " मुनि याज्ञवल्क्य के समक्ष राजा जनक के पुनः प्रश्न करने का तात्पर्य था कि स्पप्न में जो आत्मा की असंगता आपने कही वह सम्भव है क्योंकि उस अवस्था में आत्मा का शरीर सूक्ष्म होता है है अतः असंग होता है , इसी से प्रसिद्ध है कि पत्थर आदि में भी वह शरीर घुस सकता है । लेकिन जाग्रत् में तो आत्मा स्थूल शरीर से युक्त है और यह शरीर आसक्ति वाला ही प्रसिद्ध है । इस अवस्था वाले की असंगता कैसे ? हे सौम्य ! महर्षि उसका उत्तर भी बड़ा सुन्दर तरीके से दे रहे है । याज्ञवल्क्य महर्षि के कहने का तात्पर्य यह था : आत्मा को " असंग " कहने का मतलब यह नहीं कि वह पत्थर आदि में घुस सकता है ! " संग " का मतलब क्या होता है ? संग का मतलब यों घुसने में रुकावट डालने वाली स्थूलता भी नहीं है । कर्मप्रयुक्त संयोग संग - शब्द से कहते हैं जो आकाशतुल्य आत्मा में है नहीं । भ्रान्ति से आत्मा को सीमित मानने वाले जैसे...
!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : !! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २४ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! श्रीगुरुदेव भगवान् कहते हैं " हे सौम्य ! " मिथिलाधिपति से महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि " सपने में आत्मा असंग है " तो महर्षि ने कहा कि " राजन ! ध्यान से सुनो - स्वप्न में जिस आत्मा को मैंने तुम्हें " स्वयंज्योति " बताया वही किसी समय " सम्प्रसाद " अवस्था को प्राप्त होता है । वेदानुसार प्रवचन करने वाले सुषुप्ति को " सम्प्रसाद " नाम वाली कहते हैं , क्योंकि उस अवस्था में पुरुष { आत्मा } उसी प्रकार भली - भाँती निर्दोष हो जाता है जैसे शरद् ऋतु में जलाशयों का जल । मन आदि उपाधियों से और उनके धर्मों से अध्यासरूप सारे विक्षेप को छोड़कर गहरी नींद में आत्मा अपने ही स्वरूप से मौजूद रहता है और खुद अपने ही द्वारा प्रसन्न रहता है , इसीलिये मानव सुषुप्ति को " सम्प्रसाद " कहते हैं । श्रुत्यक्षरानुसार लगता है कि " इस सम्प्रसाद में आत्मा रति - गति करके लौटता...