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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २३ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २३ } ~~~
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नारायण ! विगत दो दिवस से यह दिव्य सत्संग “ जनक – याज्ञवल्क्य संवाद “ का विराम था ! अब फिर चलते है उन गुरुदेव भगवान के सत्संग में जहाँ गुरुदेव भगवान अपने अन्तेवासी शिष्य को " जनक - याज्ञवल्क्य संवाद " सुना रहे हैं । आप सभी सत्संगी बन्धु पुनः इस दिव्य सत्संग गंगा में स्नान कर पुण्य के भागी बनें -
नारायण ! गुरदेव भगवान् कहते हैं कि हे सौम्य ? जैन लोग " अनेकान्तवाद " के नाम से अव्यवस्थितता का प्रतिपादन करते हैं । वे कहते हैं कि किसी पदार्थादि के बारे में " वह है ही " या " नहीं ही है " यों निश्चित करना गलत है , उसे इकट्ठे ही 7 सात तरह के समझना चाहिये : वह है ; वह नहीं है ; उसे कह नहीं सकते ; वह नहीं है और उसे कह नहीं सकते , वह है और नहीं है और उसे कह नहीं सकते ! ये सातों एक - साथ हर चीज़ के बारे में समझने चाहिये ऐसी उनकी मान्यता है । इस दृष्टि के अनुसार किसी को " एक ही है " यों निर्धारित नहीं कर सकते , अतः एक की भी अनेकता मानने जैसी स्थिति हो जाती है । किन्तु ऐसी अवस्था का प्रतिपादन करने पर प्रतिपादक के सिर अव्यवस्था ही आयेगी - उसके लिये कुछ ठण्डा ही नहीं होगा , गर्म ही नहीं होगा , खाद्य - पेय ही नहीं होगा इत्यादि । संसार में तो जीवों के उपभोगार्थ देशादि की व्यवस्था ही देखी जाती है । अतः अव्यवस्थावाद अत्यन्त हेय है । जैन उसे व्यवहार में लगाते भी नहीं अन्यथा किसी को " चोर ही है " मानकर " दण्डनीय ही " घोषित न करें या मांस भक्षणादि को " पाप ही " न कहें।
कोई पूछ सकता है कि औपनिषद देशादि को सद्सत से विलक्षण कहते हैं तो लोकसिद्ध व्यवस्था कैसे उपपन्न करते हैं ? उत्तर है कि तत्त्वज्ञान से पूर्व भ्रम व्यवस्था हमें मान्य है । अव्यवस्था के हम पक्षधर नहीं ; हम स्पष्ट कहते हैं कि दृश्य स्वयं सत्ता वाले नहीं ही हैं , ब्रह्म सत् ही है , दृश्य सत् लगते हैं तो ब्रह्मसत्ता से ही इत्यादि । अतः अनिर्वचनीयवाद को अनेकान्तवाद से पृथक् ही समझना चाहिये ।
देशादि व्यवस्थित होने पर भी उनकी व्यवस्था कभी कहीं प्रमाण से सिद्ध नहीं होती , केवल भ्रमात्मक प्रतीति से सिद्ध होती है । इसलिये देश , काल, उनमें होने वाले स्थूल - सूक्ष्म पदार्थ - ये सब अद्वितीय आत्मा पर अज्ञान से कल्पित हैं । जैसे रस्सी पर सर्पादि अध्यस्त होते हैं , ऐसे ही देश - काल आदि समेत यह जगत् सब के साक्षी आत्मा पर अध्यस्त है ।
अध्यस्त होने के कारण जाग्रत् और स्वप्न जगत् का देश - कालादि सहित विचार करने पर वह आत्मा में ही विलीन हो जाता है , केवल आत्मा रह जाता है । सबका वास्तविक स्वरूप , अधिष्ठानभूत आत्मा अभिन्न है , अतः उस पर कल्पित देशादि में सत्य भेद नहीं ही हो सकता जैसे रस्सी में भेद हुए बिना उस पर कल्पित सर्पादि में भेद नहीं हुआ करता । { सर्प को जलधारा से वस्तुतः , अर्थात् सत्यता की दृष्टि से भिन्न नहीं कह सकते क्योंकि वस्तुतः तो वहाँ एकलौती रस्सी ही है और सर्पादि स्वयं ही वस्तुतः हैं नहीं। दो रस्सीयाँ हों और उन पर दो साँप अध्यस्त हों तब भले ही उन साँपों में भेद मान सकते हैं क्योंकि उनके अधिष्ठान भिन्न हैं । ऐसे अनेक आत्मा तो हैं नहीं कि संसार के पदार्थों में वास्तविक भेद हो सके । }
यों विचारतः भेद सिद्ध न होने पर भी वह बुद्धि में बैठता नहीं , भेदभ्रम बना रहता है । इसलिये " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य राजा को क्रमशः सोचने का ढंग बताते हैं :
हे राजन् ! जिन्हें एक विज्ञान से जाना जाता है और जो एक आश्रय में रहते हैं ऐसे विषयों का एक जो चेतन है उसमें भेद क्यों होगा ? { विषयभेद निर्भर करता है अनुभवभेद पर । विषयानुभवों का रूप अन्तःकरण ही ग्रहण करता है और वह एक ही है , उसमें भेद तो इन्द्रियरूप उपाधियों से प्रतीत होता है , अतः औपाधिक होने से मिथ्या है । इस प्रकार एक विज्ञान अर्थात् अन्तःकरण से ग्रहण किये जाते हैं तो विषय सचमुच भिन्न नहीं हो सकते । अथवा विषय तब भिन्न हो जब उनके कारण भिन्न हों जैसे सोने और चाँदी से बने गहने भिन्न होते हैं । किन्तु विश्व का कारण मायाशबल ब्रह्म एक ही है , वही सबका आश्रय या आधार है , उसी में सब कार्य रहते हैं। इसलिये जो जागरण में देश अर्थात् अधिष्ठान है वही स्वप्न में भी है ; आत्मा ही जाग्रत् - स्वप्न का अधिष्ठान है , और कोई नहीं । जैसे आकाश में दीखने वाले मेघादि का भेद आकाश में भेद नहीं करता वैसे ही चेतन पर दीखने वाले विषय उसमें भेद नहीं करते । { दृष्टान्त में भी आकाश पर कल्पित मेघादि ही समझने चाहिये । अथवा - दृश्यभूत सर्पादि का भेद देशभूत रस्सी को सभेद नहीं बनाता यों दृष्टान्त समझना चाहिये । मूल में देशशब्द अधिष्ठानपरक है । }
जिसकी एकता निश्चित है वह विभिन्न स्थलों पर दीखने पर भी भिन्न नहीं समझा जाता यह सोदाहरण स्पष्ट करते हैं :
हे राजन् ! कपालादि अपने अवयवों में रहने वाले जिस घट के बारे में निश्चित है कि वह एक है , वह बाहर आंगन में रखा दीखे , फिर अन्दर घर में रखा दीखे - यों उसके आश्रयों में भले ही भेद हो पर घड़े में कोई भेद नहीं हो जाता । अतः कल्पित देशादि के भेद से पदार्थों की स्वाभाविक एकता समाप्त नहीं हो सकती ।
क्योंकि दृश्यों में भेद नहीं है इसलिये सपने का व जाग्रत् का देश { अधिष्ठान } अभिन्न है। वह देश आत्मा ही है , अतः आत्मा का अभेद सिद्ध हो जाता है । जब आत्मा से अन्य कुछ है ही नहीं तब स्वप्रकाशता स्वतः सिद्ध है । अन्य कुछ होता तब " वह प्रकाश है या नहीं " यह विचार संभव भी था ; अन्य ही नहीं तो अन्य प्रकाश नहीं है इसमें कहना क्या ! आत्मा प्रकाशमान है ही । यही स्वप्रकाशता है - अन्य प्रकाश न हो और प्रकाशमान हो । इस अभिप्राय से हम प्रसंग पूरा समझ कर कहते हैं –
हे राजन् ! इसीलिये मैंने तुम्हें बताया कि सपने में आत्मा सब भेदों से रहित स्वयंज्योति होता है । अब और क्या पूछना चाहते हो ?
हे सौम्य ! महर्षि द्वारा यों कहे जाने पर यथेष्ट प्रश्न करने की छूट रूप वर से स्वात्मा का ज्ञान पाना चाहने वाले अत्यन्त बुद्धिमान् राजा ने याज्ञवल्क्य महर्षि से कहा -
हे मुनिवर्य ! " जो कोई भी उत्तम ब्राह्मण मुझे साधारण भी विद्या का उपदेश दे तो प्रत्येक विद्या के निष्क्रियरूप से मैं उसे 1000 एक हज़ार गायें दान करता हूँ । पशुशास्त्र में बताये उत्तम लक्षणों वाली जवान गायों के साथ एक अत्यन्त पूष्ट शरीर वाला वृषभ { नन्दी } भी देता हूँ । यह मेरा हमेशा का नियम है , जिसे सब लोग जानते हैं । आप श्रीयाज्ञवल्क्य जी ने मुझे अभी एक विद्या दी है अतः आपको भी मैं वैसा ही दान देता हूँ , आप ग्रहण करें ।"
हे सौम्य ! राजा ने यों स्पष्ट किया कि अभी उसे तत्त्व की समझ नहीं आयी है , मुनि के प्रवचन से उसे साधारण ज्ञान हुआ है ।
याज्ञवल्क्य महर्षि ने विचार किया - मैंने राजा को सारी ब्रह्मविद्या सुनायी फिर भी मेरा शिष्य यह राजा उसे सही तरह समझ नहीं पाया और सोच रहा है कि मैंने इसे कोई साधारण - सी विद्या ही प्रदान की हो ! यह सोचकर उन्होंने मिथिलानरेश से कहा - 
राजन् ! " विद्या का निष्क्रय हज़ार गाये देता हूँ " ऐसा जो तुमने कहा उससे अब संदेह होता है कि " जो यह विज्ञानमय " इत्यादि वाक्यों द्वारा मैंने तुम्हें आत्मस्वरूप ज्योति का जो सम्पूर्ण उपदेश दिया वह तुम समझे हो या नहीं ?
हे सौम्य ! मुनि ने जब यों पूछा तो मिथिलानरेश ने उन द्विजोत्तम को स्पष्ट कहा " मैं नहीं समझ पाया हूँ । उन्होंने फिर समझाया पर राजा नहीं समझा तो उन्होंने तीसरी बार समझाया । यों तीन प्रश्न - उत्तर हुए ।
केवल " नहीं समझा " कहकर राजा चुप नहीं हुआ , उसने उपदेश पर शंका व्यक्त की : " हे मुने ! " जो यह विज्ञानमय " आदि वाक्यों द्वारा आपने जिस आत्मा को बताया वह अविद्या - काम - कर्म रूप मृत्यु से छूटा हुआ नहीं है क्योंकि उसमें भोग व आसक्ति से होने वाला बन्धन रहता है यह मुझे साफ दीख रहा है । सपने में भी यह आत्मा स्त्रियों से प्रसन्न होता है , हँसता है , विविध आहा आत्मा असंग है । इसे विस्तार से बताता हूँ । ध्यान से सुनना : सावशेष .....
नारायण स्मृतिःर खाता है , इष्ट की ओर जाता है , अनिष्ट से भागता है । जाग्रत् की तरह ही सपने में आत्मा रहता है । अतः उसे मुक्तस्वरूप कैसे समझूँ ? "
हे सौम्य ! राजा के इस प्रश्न पर मुनिवर याज्ञावल्क्य ने मिथिलाराज जनक को प्रथम उत्तर दिया जिसमें बताया कि सपने में भी

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