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: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २५ }

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!

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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २५ } ~~~

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नारायण ! गुरुदेव भगवान् अपने ब्रह्मचारी शिष्य से कहते हैं कि " हे सौम्य! " मुनि याज्ञवल्क्य के समक्ष राजा जनक के पुनः प्रश्न करने का तात्पर्य था कि स्पप्न में जो आत्मा की असंगता आपने कही वह सम्भव है क्योंकि उस अवस्था में आत्मा का शरीर सूक्ष्म होता है है अतः असंग होता है , इसी से प्रसिद्ध है कि पत्थर आदि में भी वह शरीर घुस सकता है । लेकिन जाग्रत् में तो आत्मा स्थूल शरीर से युक्त है और यह शरीर आसक्ति वाला ही प्रसिद्ध है । इस अवस्था वाले की असंगता कैसे ?

हे सौम्य ! महर्षि उसका उत्तर भी बड़ा सुन्दर तरीके से दे रहे है । याज्ञवल्क्य महर्षि के कहने का तात्पर्य यह था : आत्मा को " असंग " कहने का मतलब यह नहीं कि वह पत्थर आदि में घुस सकता है ! " संग " का मतलब क्या होता है ? संग का मतलब यों घुसने में रुकावट डालने वाली स्थूलता भी नहीं है । कर्मप्रयुक्त संयोग संग - शब्द से कहते हैं जो आकाशतुल्य आत्मा में है नहीं । भ्रान्ति से आत्मा को सीमित मानने वाले जैसे आरोप कर लेते हैं कि उसका सूक्ष्म देह से सम्बन्ध है वैसे ही वे उसका स्थूल देह से भी सम्बन्ध कल्पित कर लेते हैं । सूक्ष्म देह से उसका सम्बन्ध जैसा आध्यासिक है , मिथ्या है , वैसा ही स्थूल देह से भी आध्यासिक ही है , मिथ्या ही है । आकाशसमान यह आत्मा भ्रान्तों की दृष्टि से स्थूल - सूक्ष्म सभी शरीरादि पदार्थों से सम्बद्ध होने पर भी वास्तव में किसी से सम्बन्ध वाला नहीं है ।

हे सौम्य ! इसी बात को मुनि समझाते हुए राजा को उदाहरण देते हुए समझा रहे है कि " हे बुद्धिमान् ! " अभी हमने बताया था की आत्मा जाग्रत् में अपनी प्रिय वधू आदि से रमण करता है , शहर गाँव आदि से गुजरने वाले विविध मार्गों पर चलता है लेकिन विचार करें तो वहाँ भी वह पुण्य - पाप के फलस्वरूप तत्तद् विषय का आकार लेने वाली बुद्धि को सिर्फ देखता ही है , जैसे स्वप्न में । स्वप्रकाश आत्मा जाग्रत् के बाद स्वप्न को चला जाता है । अब सुनो : यों एक ही पुरुष अर्थात् आत्मा जाग्रत् से स्वप्न और स्वप्न से पुनः - पुनः आता है , इसकेलिय यह दृष्टान्त देता हूँ समझ लो : एक बड़ी मछली किसी बड़ी नदी के जल के दायें व बाये दोनों किनारों पर जैसे हमेशा जाती रहती है उसी प्रकार यह एक ही स्वप्रकाश आत्मा स्वप्न और जागरण इन दोनों स्थानों में जाता रहता है । {" स्वप्न " से यहाँ सुषुप्ति समझनी चाहिये क्योंकि वही स्थान है , प्रसिद्ध सपना तो संधितुल्य बताया गया था , वहाँ जाना अर्थसिद्ध है । }

हे राजन् ! स्वप्न , जाग्रत् और उनके धर्म कामनादि से आत्मा का कोई निरुपाधिक सम्बन्ध नहीं है । अपने धमो। सहित ये अवस्थायें सुषुप्तिकाल में अपने कारणभूत अज्ञान में लीन हो जाती हैं , तब भी आत्मा उस अज्ञान का भासक हुआ अवस्थित ही रहता है । यदि स्वभावतः आत्मा जाग्रदादि वाला होता तो उनके न रहने पर यह भी न रहता या कम - से - कम उनके साथ ही लीन हो जाता । यह तो जैसे पक्षी उड़ते - उड़ते थक जाये तो घोसले में चला जाता है ऐसे जाग्रत् - स्वप्न से थककर सुषुप्ति में जाता है , जहाँ कोई कामना नहीं करता , कोई सपना नहीं देखता । 

हे सोम्य ! अब आगे मुनि याज्ञवल्क्य मिथिलाधिपति को सम्बोधित करते हुए यह कहते है कि " ज्ञान को धन समझने वाले - " हे महाराजा जनक ! सुषुप्ति के बारे में भी दृष्टान्त सुनिये । श्येन , गरुड , { बाज } आदि कोई भी पक्षी हो वह अपने घोसले में रहता है , पहले भूमि के पास , कम ऊँचाई पर, उड़ता है , फिर भूमि से दूर स्थित आसमान में चला जाता सै , जो आसमान दीखता भी नहीं , इतना ऊँचा है । दूर जाने में हेतु होता है या तो मादा पक्षी के पास पहुँचने की इच्छा , या आहार ग्रहण करने की इच्छा , या क्रोधवश किसी अन्य पक्षी को मारने की इच्छा या फिर केवल उड़ने की ही इच्छा ! चाहे जिस कारण से उड़े , जब लम्बी उड़ान के बाद वह थक जाता है तब स्वयं को गति देने वाले पंख अपने शरीर में समेट लेता है और आराम करने के लिये अपने घोसले की ओर ही जाता है । इसी प्रकार यह स्वयंज्योति आत्मा है । पुण्य - पाप इसके पंख हैं । सपना और जाग्रत् वह आकाश हैं जिनमें यह उड़ान भरता है । थकने पर यह हृदयाकाश अर्थात् सुषुप्तिस्थान में चला जाता है । उस हृदयाकाश में सुषुप्ति से विशिष्ट हुआ आत्मा " संप्रसाद" कहलाता है क्योंकि वहाँ इसमें काम - कर्मरूप मल नहीं रहते । सोया व्यक्ति जिस अवस्था में किसी काम्य की कामना नहीं करता , कोई स्वप्न नहीं देखता , वहाँ " सम्प्रसाद " कहा जाता है । { पूर्व के क्रम में " सम्प्रसाद " क्या है इसे बता दिया जा चुका है } 

हे बुद्धिमान् राजन् ! स्थूल - सूक्ष्म शरीर व उनके धर्मों से आत्मा असम्बद्ध है यह तुझे समझाया । अविद्यानामक कारणशरीर से भी आत्मा का विवेक स्पष्ट करना है । ध्यानपूर्वक श्रवण करिये : 

हे राजन् ! जाग्रत् से स्वप्न - सुषुप्ति में जाने का मार्ग जो नाड़ियाँ है , उसको बताते हैं : " राजन् ! " आत्मा सभी अवस्थाओं में जिस रास्ते का प्रयोग करता है , जिसे वेद में " प्रतिन्याय " कहते है , उसका स्वरूप है हृदय से निकली नाड़ियाँ । वेदान्तशास्त्र में बताया है कि हृदय से निकली उन नाड़ियों में प्रधान है 101 एक सौ एक नाड़ियाँ और आगे उनसे निकली शाखारूप नाड़ियों की संख्या तो करोड़ों में है । नाड़ियाँ अत्यन्त सूक्ष्म हैं । यदि 1 एक बाल के लम्बाई में 1000 हज़ार टुकड़े किये जायें तो जितना छोटा हिस्सा होगा वह नाडियों के माप के लिये दृष्टान्त हो सकता है , लेकिन वस्तुतः वह भी पूरी तरह सही उदाहरण नहीं होगा क्योंकि नाडियाँ बेहद सूक्ष्म हैं । विचारशीलों ने इन नाडियों का नाम बताया है " हिता " । माता के स्तनों की नाडियाँ दूध पीते बच्चे के लिये हितकारी होती हैं क्योंकि माँ द्वारा खाये अन्न का परिपक्व रस बालक को दूधरूप से उपलब्ध करा देती है। इसी तऱह शरीर में स्थित नाडियाँ शरीर का हित करती हैं । खाये - पिये का जो रस है वह सभी जन्तुओं का हित करता है । नाडियाँ हमेशा बिना रुके वह रस सारे शरीर में आवश्यकतानुसार पहुँचाती रहती हैं इसलिये उचित ही है कि ये " हिता " कहलाती हैं । विचित्र रंगों से जिनकी उपमा दी जा सके , अन्न - पान के परिपाकरूप ऐसे रसों से ये हमेशा भरी रहती हैं जैसे भूतल की नदियाँ अलग - अलग ढंगों के पानी से भरी रहती हैं। चित्रकार की कार्यशाला में जैसे बर्तनों में विविध रंग रहते हैं , वैसे ही नाडियों में अन्नपान के विविध रंगों के रस बहते हैं । कोई रस सफेद , कोई नीले , कोई पीले , हरे , लाल आदि होते हैं । " नीले " से अंजन की तरह का रंग और " हरे " से गीली घास जैसा रंग समझना चाहिये । " पीले " से सोने का रंग विवक्षित है । लाल - सफेद आदि के मेल - जोल से और भी जो रंग हो सकते हैं वे भी कह दिये ही समझने चाहिये क्योंकि बताये रंगों से ही सभी रंग बन जाते हैं । { वैद्यकशास्त्र में धातुओं के अनुसार नाडियों के रंग समझाये है । सूक्ष्मशरीर नाडियों के सम्पर्क में आये तभी कर्तृत्वादि प्रतीत होते हैं अन्यथा नींदादि में नहीं होते । अतः कर्तृत्वादि की औपाधिकता अत एव मिथ्यारूपता बताने के लिये नाडियों का उल्लेख है । इसमें स्वप्नामिथ्यात्व भी सूचित होता है क्योंकि इतनी सूक्ष्म नाडियों में पहाड़ आदि तो रह नहीं सकते जो सपने में दीखते है । " बृहदारण्यक उपनिषद् " में 2 . 1 . 19 , 4 . 2 . 3 और 4 . 3 . 20 तीन जगह नाडियों का उल्लेख है , जिनके पृथक् प्रयोजन पर वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर ने प्रकाश डाला है । " दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्तिक" के चतुर्थोल्लास में भी नाडियों पर विचार आया है । } आत्मा नाडियों द्वारा जाकर स्वप्न या सुषुप्ति में पहुँचता है । { जाना तो होगा सूक्ष्मशरीर का , उसमें भी प्रधान जो मन या अन्तःकरण उसका । आत्मा उससे स्वयं को एक समझे है इसलिये उसी को जाने वाला कहते हैं । भोगकाल हो तो सपने में जाता है और कुछ समय तक कुछ भी भोगने लायक कर्मोद्भव न होना हो तो सुषुप्ति में जाता है । }

हे राजन् ! जैसे जाग्रदवस्था सुखद - दुःखद भेद से दो प्रकार की होती है , ऐसे ही आत्मा का सपना यदि पापसहित अविद्या से पैदा होता है तो दुःख देता है और पुण्यसहकृत अविद्या से पैदा होता है तो सुखद होता है । जाग्रत् में जैसे पदार्थ दुःख या सुख देने वाले देखे जाते हैं वैसे ही सपने में भी । अतः सपने में जब दुःख भोगने का समय होता है तब पापकर्म फल देने लगता है और ऐसा सपना आता है कि स्वप्नद्रष्टा दीन - दुःखी है , चोर बाघ भेड़िये आदि क्रूर चेष्टा वाले स्वार्थ सिद्ध करने वाले प्राणी पैसा , मांस आदि पाने के लिये शस्त्र , दाँत , नाखून , खुर आदि से उसकी हिंसा - सी कर रहे हैं । भले ही आत्मा आकाशतुल्य अर्थात् शस्त्रों से अकाट्य और अमर है फिर भी ऐसा स्वप्न देखते समय दुःखी ही होता है । या ऐसा स्वप्न आता है कि जैसे उम्र बीत जाने पर बुढ़ापा व्यक्ति को परवश कर देता है ऐसे दुष्टमति धूर्त लोग उसे वश में किये हैं । कभी यों लगता है कि देहधारी को कुछ लोगों ने वैसे ही परवश कर रखा है जैसे किसी बुरे राजा के कर्मचारी अवैध तरह से धन वसूलने के लिये सभी अनाथ दुःखी धनिकों को बलपूर्वक बंधक बना लेते हैं । या ऐसा सपना आता है कि वहाँ दीख रहा हाथी व्यक्ति को वैसे ही खदेड़ रहा है , डराते हुए दौड़ा ऱहा है , जैसे राजद्वारा पर स्थित हाथी के समान बना लकड़ी का सूत्रसंचालित हाथी भय से काँपते बच्चों को इधर - उधर दौड़ा देता है । कदाचित् सपने में लगता है कि जैसे विचित्र बनावट वाले हर ओर से समतल सभागृह में नासमझ मूर्ख गड्ढे जैसा मानकर गिर पड़ता है वैसे ही स्वप्नद्रष्टा मूर्खता से गड्ढे जैसी जगह समझ कर गिर पड़ा । { समतल में भी ऊँचा – नीचा लगना फर्श के रंगों से संभव है और दुर्योधन के जीवन में प्रसिद्ध भी है । } आत्मा हमेशा अभयरूप है फिर भी जाग्रद् दशा में जो भय अनुभव करता है वही अविद्यावश सपने में भी मानता है । सावशेष .....

नारायण स्मृतिः

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