!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २१ } ~~~
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नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे ब्रह्मचारी ! " आत्मा स्वप्रकाश है मुनि याज्ञवल्क्य ने यह समझाने के लिये सब शरीरों में विद्यमान आत्मरूप परमेश्वर को स्वप्न में जिस तरह कर्ता बताया बताया वह ब्राह्मण वाक्यों में चार मन्त्रों में भी कहा गया है । महर्षि राजा को ब्राह्मण वाक्यों का शब्दादर्थ करते हुए उनके तात्पर्य को समझाते हुए कहते हैं :
हे राजन् ! प्रथम ब्राह्मण मन्त्र है : स्वप्नावस्था द्वारा स्थूल शरीर को निश्चेष्ट बनाकर आत्मा अपने ज्ञानरूप से जगा रहता है । जाग्रत् से स्वप्न में जाते हुए वह इन्द्रियों की वासनायें साथ ले जाता है और संस्कारों से उत्पन्न विषयों का वहाँ अनुभव करता है । अकेला चलने वाला चेतनरूप पुरुष कर्मानुसार पुनः जाग्रदवस्था में अपना स्वप्रकाश स्वरूप लेकर आ जाता ह। इसका और स्पष्ट व्याख्यान कर देते हैं :
हे राजन् ! स्वप्न देखने के लिये पुरुष { आत्मा } स्थूलशरीर सम्बन्धी विषय - इन्द्रिय समूह को छोड़कर इन सब जड विषयों को देखता है जो तब मन से ब7ए हैं और विषयों में अनुस्यूत उनके कारण को { मन या अज्ञान को } भी यह जानता रहता है । स्वयं इस स्वप्रकाश की दृष्टि कभी लुप्त होती नहीं , अतः यह उन विषयों से तो अप्रकाश्य रहता है। आत्मा के स्वयम्प्रकाश स्वरूप को श्रुति " शुक्र " कहती है , उसी को लेकर यह जाग्रदवस्था में लौटता है , स्वाप्त विषय लेकर नही चला आता ! फिर कर्मगति के अनुसार " सान्ध्य " कहलाने वाली स्वप्नावस्था में जाता है । यों इसका गमनागमन अर्थात् जाना - आना चलता रहता है । क्योंकि यह हमेशा अपने ही स्वरूपभूत ज्ञान से भासमान है इसलिये इसे " हिरण्यमय" अर्थात् प्रकाशरूप कहते हैं । पिछली अवस्था छोड़कर अगली अवस्था में यह अकेले ही चला जाता है । सारी अवस्थाओं में दिन - रात यह अकेले घुमता रहता हे , इसलिये इसे " एकहंस " भी कहते हैं । यह जाना - आना उसके लिये वैसे ही खेल है जैसे बच्चों के लिये एक खिलौना छोड़कर दूसरे खिलौने से खेलता होता है । चर - अचर सभी शरीर अन्नपानादि के रसों से लगातार पूरे किये जाते हैं इसलिये " पुरी " कहलाते हैं और उनमें वास करने से आत्मा " पुरुष " कहलाता है । अकेले ही अवस्थाओं को हमेशा छोड़ता- लेता रहता है इसी से आत्मा को " एकहंस " कहते हैं ।
हे राजन् ! अब द्वितीय मन्त्र का अर्थ एवं भाव बताते हैं : दूसरा मन्त्र कहता है - काल में आत्मा स्थूल शरीर की रक्षा प्राण द्वारा करता है । स्वयं यह अमरणधर्मा तब इस स्थूल शरीर के सम्बन्ध वाला नहीं रह जाता - मानो इससे बाहर निकल गया हो - और जहाँ चाहे वहाँ जाता है अर्थात् यथेच्छ उपयोग करता है । इसे भी स्पष्ट व्याख्यान कर देता हूँ । सावधानी से सुनना –
हे राजन् ! कोई राजा परदेश जाते समय अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिये किसी विस्वस्त " सामंत " को जैसे नियुक्त करता है ऐसे ही यह पुरुष अर्थात् आत्मा स्थूल देह का अभिमान छोड़कर जब स्वप्न की ओर जाता है तब स्थूलशरीर की रक्षा करने वाले प्राण को यहीं छोड़कर जाता है । मरते समय की बात छोड़कर यह नियम है क्योंकि उस समय तो यह प्राण भी साथ ले जाता है । { अन्य इन्द्रियादि स्थूल शरीर में करते नहीं जबकि प्राण अपना कार्य स्वप्न - सुषुप्ति में भी करता रहता है अतः इसे यहाँ छोड़कर जाना बताया । } स्थुल देह के अभिमान की पकड़ से बाहर होकर यह स्वप्न देखता है । इस स्थूल देह के मरणादि - सभी धर्मों से यह छूटा रहता है { तभी वहाँ अपने अलग ही जन्म - जरा - मरणादि देखता रहता है} स्वप्नदशा में यह स्वप्रकाश आत्मा इस स्थूल शरीर के भीतर ही यथेष्ट विचरण करता स्वप्न है । { स्वप्न काल में विविध नाडियों में अवस्थिति होती है । जाग्रत् में जिन नाडियों में चेतन स्फुरता है वे अलग हैं , स्वप्न के लिये जहाँ स्फुरण चाहिये वे पृथक् हैं । }
तीसरा मन्त्र है - स्वप्न में वह देव श्रेष्ठ - कनिष्ठ - भाव पाकर अनेक वासनामय रूप बना लेता है । वह तब मानो स्त्रियों से प्रसन्न होता है , दोस्तों के साथ हँसता है और कभी शेर आदि से भी डर जाता है । इसे भी स्पष्ट बता देते हैं :
हे राजन ! मायावी की तरह आत्मदेव स्वप्न में अपनी इच्छानुसार लीला करते हुए ब्रह्म षे लेकर घास तक के अच्छे - बुरे शरीर लेता - छोड़ता है और उन शरीर के भोग { सुख- दुःख } भी अनुभव करता है । वहाँ वह नाना प्रकार के शरीर - इन्द्रियादि भोगसाधन बना लेता है और स्वयं ही पिता , माता रक्षक , गुरु आदि बन जाता है । ऐसे ही पत्नी , पुत्र आदि भी वह वहाँ खुद ही बनता है । ऊँचे - नीचे रूप वह इसी तरह वहाँ बनाता रहता है । भोग के सम्बन्ध से रहित होने पर भी अपने भोक्तृत्व के प्रति साधन बनने वाली वृत्ति आत्मा बना लेता है । { अर्थात् " मैं भोग रहा हूँ " ऐसी वृत्ति बनाकर स्वयं को भोक्ता समझता है । जाग्रत् में तो अन्तःकरण ईश्वरनिर्मित है , अतः उसकी भोक्तृत्वाकार या अहङ्कारात्मिका वृत्ति के लिये भी हम उत्तरदायी नहीं , बद्ध हैं ; लेकिन सपने में जो हम वैसी वृत्ति बनाकर सुख - दुःख भोगते हैं उसके लिये हम ही जिम्मेदार हैं । } साथ ही जिस - जिस शरीर को ग्रहण करता है उसके अनुरूप भोग्य वस्तुओं का भी यह वहाँ निर्माण कर लेता है किन्तु जैसा कर्मफल इसे भोगना होता है उसके योग्य ही सुखप्रद या दुःखप्रद पदार्थों को यह सपने में तैयार करता है । यद्यपि यह आत्मा पूर्णकाम ईश्वर है तथापि कभी स्वयं को कामुक बना लेता है जिससे यह ऐसे सपने में पहुँचता है जैसा कामनापीड़ितों को आया करता है ।
इसे सपना आता है कि अप्सरातुल्य , 16 सोलह साल की , कामोत्तेजित नारियाँ इसे अपने नेत्रकमलों से आलिङ्गन कर रही है , प्रेम से देख रही हैं । ये नारियाँ ऐसी होती है कि मोटे और उठे { कसे } हुए स्तनों और जघनों के भार से चलते समय उनके पैर स्थिर नहीं होते ! विह्वलतावश उनके फूल और गहने अस्त - व्यस्त होते हैं । माँग में लगे सिन्दूर से वे लाल - पीली भूमि की तरह शोभा पाती है { अर्थात् उनकी स्वर्णिम शरीरकान्ति और सिन्दूर दोनों का मिला - जुला प्रभाव उस धरती के भी सौन्दर्य को फीका कर देता है जो हरिताल और गेरु के पत्थरों से पटी हो । हरिताल एक चमकदार पीला द्रव्य होता है । } स्वप्नदृश्य नारियाँ चन्दन आदि वनों जैसे अत्यन्त सुन्दर बगीचों में इधर - उधर टहना करती है । तुरही आदि बाजों की ध्वनियों से उन्होंने हर जगह गुँजायी होती है । उनकी आवाजें सुरीली और मीठी होती हैं तथा संगीत में वे विद्याधरकन्याओं के { गन्धर्वकन्याओं के } समान निष्णात होती हैं । प्रिय स्वप्न आने पर आत्मा ऐसी स्त्रियों से रमण करते हुए अद्भुत सुख पाता है ।
हे राजन् ! जाग्रत् में ऐसा भी देखा जाता है कि गृहस्थ को अनुकूल स्त्री भी दीख रही होती है , आस - पास बदबूदार गन्दे पदार्थ भी दीख रहे होते हैं और उसे अपनी बदसूरती भी याद आ जाती है ; फलतः इष्टस्त्रीदर्शन का सुख और अन्य हेतुओं से दुःख भी साथ ही होते हैं । इसी तरह सपने में आत्मा मिश्रित - पुण्यपापरूप हेतु से उत्पन्न अनुकूल - प्रतिकूल दोनों तरह की चीज़ों का अनुभव करते हुए सुखी - दुःखी होता है । या जैसे जाग्रत् में पापकर्म उदय होने पर चोर बाघ आदि से डर ही लगकर दुःख होता है वैसे ही सपने में ऐसा निःसीम दुःख होता है जिससे बचने का कोई उपाय ही नहीं होता । { तात्पर्य इतना ही है कि जाग्रत् की तरह ही सपने में आत्मा कर्मानुसार भोग पाता है , भले ही वहाँ व्यावहारिक पदार्थ नहीं है। }
हे राजन् ! अब चौथे ब्राह्मण मन्त्र का अर्थ बताते हैं : लोग इस आत्मदेव का खेल ही देखते हैं ! इसे कोई नहीं देखता । { भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामी जी यहाँ कहते हैं कि इस मन्त्र द्वारा श्रुति हम लोगों की अवस्था पर दुःखी होकर कह रही है कि लोग कितने भाग्यहीन हैं कि जिसे देखना अत्यन्त सरल है ऐसे शुद्ध आत्मा को ये नहीं देख रहे जबकि वह इनकी आँखों के सामने है । अर्थात् सपने का विचार करें तो संसार से अलग कर स्वप्रकाश आत्मा को समझना कठीन नहीं । }
हे सौम्य ! इस चतुर्थ ब्राह्मण मन्त्र का विशेष व्याख्यान मुनि स्पष्ट करते हुए बताते हैं : सावशेष ....
नारायण स्मृतिः
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २१ } ~~~
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नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे ब्रह्मचारी ! " आत्मा स्वप्रकाश है मुनि याज्ञवल्क्य ने यह समझाने के लिये सब शरीरों में विद्यमान आत्मरूप परमेश्वर को स्वप्न में जिस तरह कर्ता बताया बताया वह ब्राह्मण वाक्यों में चार मन्त्रों में भी कहा गया है । महर्षि राजा को ब्राह्मण वाक्यों का शब्दादर्थ करते हुए उनके तात्पर्य को समझाते हुए कहते हैं :
हे राजन् ! प्रथम ब्राह्मण मन्त्र है : स्वप्नावस्था द्वारा स्थूल शरीर को निश्चेष्ट बनाकर आत्मा अपने ज्ञानरूप से जगा रहता है । जाग्रत् से स्वप्न में जाते हुए वह इन्द्रियों की वासनायें साथ ले जाता है और संस्कारों से उत्पन्न विषयों का वहाँ अनुभव करता है । अकेला चलने वाला चेतनरूप पुरुष कर्मानुसार पुनः जाग्रदवस्था में अपना स्वप्रकाश स्वरूप लेकर आ जाता ह। इसका और स्पष्ट व्याख्यान कर देते हैं :
हे राजन् ! स्वप्न देखने के लिये पुरुष { आत्मा } स्थूलशरीर सम्बन्धी विषय - इन्द्रिय समूह को छोड़कर इन सब जड विषयों को देखता है जो तब मन से ब7ए हैं और विषयों में अनुस्यूत उनके कारण को { मन या अज्ञान को } भी यह जानता रहता है । स्वयं इस स्वप्रकाश की दृष्टि कभी लुप्त होती नहीं , अतः यह उन विषयों से तो अप्रकाश्य रहता है। आत्मा के स्वयम्प्रकाश स्वरूप को श्रुति " शुक्र " कहती है , उसी को लेकर यह जाग्रदवस्था में लौटता है , स्वाप्त विषय लेकर नही चला आता ! फिर कर्मगति के अनुसार " सान्ध्य " कहलाने वाली स्वप्नावस्था में जाता है । यों इसका गमनागमन अर्थात् जाना - आना चलता रहता है । क्योंकि यह हमेशा अपने ही स्वरूपभूत ज्ञान से भासमान है इसलिये इसे " हिरण्यमय" अर्थात् प्रकाशरूप कहते हैं । पिछली अवस्था छोड़कर अगली अवस्था में यह अकेले ही चला जाता है । सारी अवस्थाओं में दिन - रात यह अकेले घुमता रहता हे , इसलिये इसे " एकहंस " भी कहते हैं । यह जाना - आना उसके लिये वैसे ही खेल है जैसे बच्चों के लिये एक खिलौना छोड़कर दूसरे खिलौने से खेलता होता है । चर - अचर सभी शरीर अन्नपानादि के रसों से लगातार पूरे किये जाते हैं इसलिये " पुरी " कहलाते हैं और उनमें वास करने से आत्मा " पुरुष " कहलाता है । अकेले ही अवस्थाओं को हमेशा छोड़ता- लेता रहता है इसी से आत्मा को " एकहंस " कहते हैं ।
हे राजन् ! अब द्वितीय मन्त्र का अर्थ एवं भाव बताते हैं : दूसरा मन्त्र कहता है - काल में आत्मा स्थूल शरीर की रक्षा प्राण द्वारा करता है । स्वयं यह अमरणधर्मा तब इस स्थूल शरीर के सम्बन्ध वाला नहीं रह जाता - मानो इससे बाहर निकल गया हो - और जहाँ चाहे वहाँ जाता है अर्थात् यथेच्छ उपयोग करता है । इसे भी स्पष्ट व्याख्यान कर देता हूँ । सावधानी से सुनना –
हे राजन् ! कोई राजा परदेश जाते समय अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिये किसी विस्वस्त " सामंत " को जैसे नियुक्त करता है ऐसे ही यह पुरुष अर्थात् आत्मा स्थूल देह का अभिमान छोड़कर जब स्वप्न की ओर जाता है तब स्थूलशरीर की रक्षा करने वाले प्राण को यहीं छोड़कर जाता है । मरते समय की बात छोड़कर यह नियम है क्योंकि उस समय तो यह प्राण भी साथ ले जाता है । { अन्य इन्द्रियादि स्थूल शरीर में करते नहीं जबकि प्राण अपना कार्य स्वप्न - सुषुप्ति में भी करता रहता है अतः इसे यहाँ छोड़कर जाना बताया । } स्थुल देह के अभिमान की पकड़ से बाहर होकर यह स्वप्न देखता है । इस स्थूल देह के मरणादि - सभी धर्मों से यह छूटा रहता है { तभी वहाँ अपने अलग ही जन्म - जरा - मरणादि देखता रहता है} स्वप्नदशा में यह स्वप्रकाश आत्मा इस स्थूल शरीर के भीतर ही यथेष्ट विचरण करता स्वप्न है । { स्वप्न काल में विविध नाडियों में अवस्थिति होती है । जाग्रत् में जिन नाडियों में चेतन स्फुरता है वे अलग हैं , स्वप्न के लिये जहाँ स्फुरण चाहिये वे पृथक् हैं । }
तीसरा मन्त्र है - स्वप्न में वह देव श्रेष्ठ - कनिष्ठ - भाव पाकर अनेक वासनामय रूप बना लेता है । वह तब मानो स्त्रियों से प्रसन्न होता है , दोस्तों के साथ हँसता है और कभी शेर आदि से भी डर जाता है । इसे भी स्पष्ट बता देते हैं :
हे राजन ! मायावी की तरह आत्मदेव स्वप्न में अपनी इच्छानुसार लीला करते हुए ब्रह्म षे लेकर घास तक के अच्छे - बुरे शरीर लेता - छोड़ता है और उन शरीर के भोग { सुख- दुःख } भी अनुभव करता है । वहाँ वह नाना प्रकार के शरीर - इन्द्रियादि भोगसाधन बना लेता है और स्वयं ही पिता , माता रक्षक , गुरु आदि बन जाता है । ऐसे ही पत्नी , पुत्र आदि भी वह वहाँ खुद ही बनता है । ऊँचे - नीचे रूप वह इसी तरह वहाँ बनाता रहता है । भोग के सम्बन्ध से रहित होने पर भी अपने भोक्तृत्व के प्रति साधन बनने वाली वृत्ति आत्मा बना लेता है । { अर्थात् " मैं भोग रहा हूँ " ऐसी वृत्ति बनाकर स्वयं को भोक्ता समझता है । जाग्रत् में तो अन्तःकरण ईश्वरनिर्मित है , अतः उसकी भोक्तृत्वाकार या अहङ्कारात्मिका वृत्ति के लिये भी हम उत्तरदायी नहीं , बद्ध हैं ; लेकिन सपने में जो हम वैसी वृत्ति बनाकर सुख - दुःख भोगते हैं उसके लिये हम ही जिम्मेदार हैं । } साथ ही जिस - जिस शरीर को ग्रहण करता है उसके अनुरूप भोग्य वस्तुओं का भी यह वहाँ निर्माण कर लेता है किन्तु जैसा कर्मफल इसे भोगना होता है उसके योग्य ही सुखप्रद या दुःखप्रद पदार्थों को यह सपने में तैयार करता है । यद्यपि यह आत्मा पूर्णकाम ईश्वर है तथापि कभी स्वयं को कामुक बना लेता है जिससे यह ऐसे सपने में पहुँचता है जैसा कामनापीड़ितों को आया करता है ।
इसे सपना आता है कि अप्सरातुल्य , 16 सोलह साल की , कामोत्तेजित नारियाँ इसे अपने नेत्रकमलों से आलिङ्गन कर रही है , प्रेम से देख रही हैं । ये नारियाँ ऐसी होती है कि मोटे और उठे { कसे } हुए स्तनों और जघनों के भार से चलते समय उनके पैर स्थिर नहीं होते ! विह्वलतावश उनके फूल और गहने अस्त - व्यस्त होते हैं । माँग में लगे सिन्दूर से वे लाल - पीली भूमि की तरह शोभा पाती है { अर्थात् उनकी स्वर्णिम शरीरकान्ति और सिन्दूर दोनों का मिला - जुला प्रभाव उस धरती के भी सौन्दर्य को फीका कर देता है जो हरिताल और गेरु के पत्थरों से पटी हो । हरिताल एक चमकदार पीला द्रव्य होता है । } स्वप्नदृश्य नारियाँ चन्दन आदि वनों जैसे अत्यन्त सुन्दर बगीचों में इधर - उधर टहना करती है । तुरही आदि बाजों की ध्वनियों से उन्होंने हर जगह गुँजायी होती है । उनकी आवाजें सुरीली और मीठी होती हैं तथा संगीत में वे विद्याधरकन्याओं के { गन्धर्वकन्याओं के } समान निष्णात होती हैं । प्रिय स्वप्न आने पर आत्मा ऐसी स्त्रियों से रमण करते हुए अद्भुत सुख पाता है ।
हे राजन् ! जाग्रत् में ऐसा भी देखा जाता है कि गृहस्थ को अनुकूल स्त्री भी दीख रही होती है , आस - पास बदबूदार गन्दे पदार्थ भी दीख रहे होते हैं और उसे अपनी बदसूरती भी याद आ जाती है ; फलतः इष्टस्त्रीदर्शन का सुख और अन्य हेतुओं से दुःख भी साथ ही होते हैं । इसी तरह सपने में आत्मा मिश्रित - पुण्यपापरूप हेतु से उत्पन्न अनुकूल - प्रतिकूल दोनों तरह की चीज़ों का अनुभव करते हुए सुखी - दुःखी होता है । या जैसे जाग्रत् में पापकर्म उदय होने पर चोर बाघ आदि से डर ही लगकर दुःख होता है वैसे ही सपने में ऐसा निःसीम दुःख होता है जिससे बचने का कोई उपाय ही नहीं होता । { तात्पर्य इतना ही है कि जाग्रत् की तरह ही सपने में आत्मा कर्मानुसार भोग पाता है , भले ही वहाँ व्यावहारिक पदार्थ नहीं है। }
हे राजन् ! अब चौथे ब्राह्मण मन्त्र का अर्थ बताते हैं : लोग इस आत्मदेव का खेल ही देखते हैं ! इसे कोई नहीं देखता । { भगवान् भाष्यकार शङ्कर स्वामी जी यहाँ कहते हैं कि इस मन्त्र द्वारा श्रुति हम लोगों की अवस्था पर दुःखी होकर कह रही है कि लोग कितने भाग्यहीन हैं कि जिसे देखना अत्यन्त सरल है ऐसे शुद्ध आत्मा को ये नहीं देख रहे जबकि वह इनकी आँखों के सामने है । अर्थात् सपने का विचार करें तो संसार से अलग कर स्वप्रकाश आत्मा को समझना कठीन नहीं । }
हे सौम्य ! इस चतुर्थ ब्राह्मण मन्त्र का विशेष व्याख्यान मुनि स्पष्ट करते हुए बताते हैं : सावशेष ....
नारायण स्मृतिः
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