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: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २४ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { २४ } ~~~
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नारायण ! श्रीगुरुदेव भगवान् कहते हैं " हे सौम्य ! " मिथिलाधिपति से महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि " सपने में आत्मा असंग है " तो महर्षि ने कहा कि " राजन ! ध्यान से सुनो - स्वप्न में जिस आत्मा को मैंने तुम्हें " स्वयंज्योति " बताया वही किसी समय " सम्प्रसाद " अवस्था को प्राप्त होता है । वेदानुसार प्रवचन करने वाले सुषुप्ति को " सम्प्रसाद " नाम वाली कहते हैं , क्योंकि उस अवस्था में पुरुष { आत्मा } उसी प्रकार भली - भाँती निर्दोष हो जाता है जैसे शरद् ऋतु में जलाशयों का जल । मन आदि उपाधियों से और उनके धर्मों से अध्यासरूप सारे विक्षेप को छोड़कर गहरी नींद में आत्मा अपने ही स्वरूप से मौजूद रहता है और खुद अपने ही द्वारा प्रसन्न रहता है , इसीलिये मानव सुषुप्ति को " सम्प्रसाद " कहते हैं । श्रुत्यक्षरानुसार लगता है कि " इस सम्प्रसाद में आत्मा रति - गति करके लौटता है " ऐसा कहा है जबकि सुषुप्ति में कोई रति अर्थात् क्रीडा और गति अर्थात् इधर - उधर घूमना , रति अर्थात् भोग और गति अर्थात् क्रिया नहीं होते । किन्तु श्रुतिभगवती का अभिप्राय है कि सुषुप्ति में जाने से पहले और सुषुप्ति से आने के बाद तो रति – गति होते ही हैं । चाहे जाग्रत् हो या स्वप्न , दोनों में कोई - न - कोई रति या गति होती ही रहती है । उन्हीं का अनुवाद सुषुप्ति में कर दिया है , न कि वहाँ रति - गति का होना बताया है । इसी प्रकार सुषुप्ति में पुण्य - पाप अभिव्यक्तदशा में नहीं होते फिर भी कहा कि " वहाँ आत्मा पुण्य - पाप देखकर ही लौटता है ; इसमें भी अभिप्राय है कि सभी लोगो के पुण्य - पाप सुषुप्ति में भी कारणरूप से तो रहते ही हैं , अतः अज्ञान को भासित करने वाले स्वप्रकाशरूप से पुरुष उन्हें देख लेता है। { माध्यन्दिन शाखा में यह सम्प्रसाद वाला पर्यात् नहीं है , केवल स्वप्नान्त वाला पर्याय है और फिर महामत्स्य का दृष्टान्त समझाया है । उस क्रम में स्पष्टता है लेकिन तीनों अवस्थाओं से विवेक स्फुट नहीं होता । " भगवान् वार्तिकार आचार्य सुरेश्वर ने जाग्रदादि प्रत्येक अवस्था के तीन - तीन विभाग माने हैं , जाग्रत् - जाग्रत् , जाग्रत्स्वप्न , जाग्रत्सुषुप्ति इत्यादि । उसके अनुसार सुषुप्ति - सुषुप्ति से अन्य दोनों सुषुप्तियों की दृष्टि से वहाँ भी रति - गति सम्भव है , अतः प्रकृत प्रसंग संगत है । अथवा श्रुति ने सुषुप्ति को उदाहरणार्थ कहा है : जैसे वहाँ रति - गति संभव नहीं वैसे ही अन्यत्र भी वे असम्भव हैं , भले ही वास्तविकता न जानकर औपाधिक अनुभव जाग्रदादि में हो जाये ।
हे राजन् ! श्रुति में " पुनः आता है " यों पुनः - फिर से - कहा है । उसका अभिप्राय है कि आत्मा का संसरण अनादि है अतः अनेकों बार वह सुषुप्ति में गया है , जैसे पहले जाता रहा है वैसे फिर - फिर जाता है । इसी तरह वहाँ से लौटना भी पहले की तरह ही होता रहता है । यह पुरुष जैसे सुषुप्ति में जाता है हमेशा वैसे ही लौटता है और जिस मनुष्यादि योनि के शरीर वाला जाता है उसी योनि वाला हुआ लौटता है , किसी अन्य योनि वाला होकर नहीं । बाघ के शरीर वाला होकर जब सोता है तब उठकर बाघ ही रहता है । शरीर भी वही ग्रहण करता है , ऐसा नहीं कि बाघजाति के किसी अन्य ही शरीर में जग जाये ! शेर , भेड़िया , सुअर , कीड़ा , मनुष्य आदि जिस जाति व जिस शरीर वाला सुषुप्ति में आता है उसी जाति व शरीर वाला लौट भी आता है । { महर्षि याज्ञवल्क्य राजा जनक को समझाना चाहते हैं कि आत्मा की असंगता का सामान्य व्यवहार से कोई विरोध नहीं । सुषुप्ति में देहादि उपाधियाँ परिच्छेदक नहीं रहतीं , फिर भी जगने पर व्यवस्था बिगड़ नहीं जाती , ऐसे ही वास्तव में जाग्रत् में भी उपाधियाँ आत्मा को परिच्छिन्न नहीं कर रही फिर भी व्यवहार - प्रतीति हो रही है । यद्यपि अन्तःकरण या सूक्ष्मशरीर के ही गमन - आगमन को आधार बनाकर यह प्रसंग कहा - समझा जा सकता है तथापि क्योंकि अभी राजा देहनिरपेक्ष आत्मा नहीं समझा है इसलिये यों कहना संगत है । }
वेद ने कहा कि " सपने के लिय ही लौटता है " किन्तु अनुभव में कभी सुषुप्ति से सीधे जागरण में भी आया जाता है । इसलिये व्याख्या करते हैं - सभी जन्तु गहरी नींद से जो लौट कर आते हैं वह विक्षेप का दर्शन करने के लिये ही । जाग्रत् हो या स्वप्न , दोनों हैं तो विक्षेपरूप ही । इसीलिये दृढतापूर्वक श्रुति ने कहा कि सपने के लिये ही लौटता है ।
सुषुप्ति में आकर विक्षेपरूप सपने में स्थित हुआ आत्मा नारीभोग आदि जो कुछ अनुभव करता है उस विषयसमूह से बँध नहीं जाता । { सपने के विषयों से अनासक्ति सर्वानुभूत है, उसके अनुसार जाग्रत् में भी समझनी चाहिये क्योंकि यहाँ भी विषयसम्पर्क तो देह - इन्द्रियों का ही होता है , आत्मा केवल द्रष्टा ही रहता है । }

हे राजन् ! यदि आत्मा का विषय से सम्बन्ध हो तो विषयज्ञान ही सम्भव नहीं होगा अतः विषयज्ञान की अन्यथानुपपत्ति से आत्मा की असंगता सिद्ध करने की विलक्षण रीति अपना कर संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसी किसी चीज़ को देख { जान } नहीं सकता जो खुद उस व्यक्ति से सम्बद्ध हो ! कारण कि यदि स्वयं से { अर्थात् द्रष्टा से } सम्बद्ध होने के कारण उससे विशिष्ट अर्थ को द्रष्टा के ज्ञान का विषय माना जाये तो न चाहकर भी स्वयं को अपना ही विषय भी स्वीकारना पड़ेगा ; विशिष्ट में यदि विषयता रहेगी तो विशेषण में भी उसे रहना अनिवार्य है । और यदि विषयता होगी तो द्रष्टा को आत्मा ही नहीं कह पायेंगे ।
हे राजन् ! जब तक विशेष्य , विशेषण और उसका सम्बन्ध ये तीनों न जाने जायें तब तक विशिष्ट का कभी ग्रहण नहीं होता । जो पुरुष सम्बन्ध , विशेष्य व विशेषण को नहीं जानता वह विशिष्ट को भी कभी नहीं जान पाता । संयोग , दण्ड और पुरुष तीनों को न जाने तो " दण्डी " { ' दण्डधारी पुरुष ' } ऐसा ज्ञान कभी नहीं होता । एवं च आत्मा से सम्बद्ध अर्थात् उससे विशिष्ट विषयों का ज्ञान मानें तो विशेषण हुए आत्मा को भी उस ज्ञान का गोचर मानना पड़ेगा जब कि ऐसा मानना विरुद्ध है । किसी भी वस्तु द्वारा स्वयं उसी वस्तु का ग्रहण करना सम्भव नहीं । आख़िर उसी मुट्ठी से उसी मुट्ठी को कौन पकड़ सकता है । कथंचित् अगर द्रष्टा को विषय मान लें तो उसे पूरी तरह अनात्मा ही होना पड़ेगा क्योंकि जो कुछ विषय होता है वह जड देखा गया है और जड में आत्मता होती नहीं । अगर जड भी आत्मा हो तो घट ही क्यों नहीं आत्मा हो जाता ? अमूर्त होने पर भी जड होने से ही आकाशादि आत्मा नहीं हैं । इसलिये अनुभवसिद्ध सपने में नारीभोग , अन्नभक्षण जो दीखता है उससे द्रष्टा का सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि वह द्रष्टा है । जो द्रष्टा होता है वह अपने दृश्य से असम्बद्ध ही होता है । जिस द्रष्टा द्वारा जो विषय देखा जाता है उस दृश्य से द्रष्टा बँधता नहीं है। जाग्रत् में जैसे घटद्रष्टा दृश्यभूत घट से अनुगत नहीं हो जाता क्योंकि असंग है वैसे ही स्वप्नद्रष्टा भी स्वप्न के दृश्यों से अनुगत नहीं होता क्योंकि असंग है ।
हे नरेश ! क्योंकि यह आत्मा सपने में थोड़े भी संग से रहित है इसलिये अपने स्वप्रकाशरूप से विद्यमान यह पूर्ण चेतन इसी लायक है कि यह मोक्षरूप हो । { इस प्रकार " स्वप्न में संगयुक्त होने से मुक्तस्वरूप कैसे ? " यह जो प्रथम प्रश्न था उसका उत्तर पूरा हुआ । }
हे सौम्य ! राजा जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से कहा " ऐसा ही है । " फिर "याज्ञवल्क्य ! " यों सम्बोधित कर उसने पूर्ववत् गोदान की पेशकश की ।
हे सौम्य ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी राजा को फिर समझाया : हे राजन् ! सभी जन्तुओं की जाग्रदवस्था भी स्वप्नावस्था जैसी ही है , जैसे सपना अपने द्रष्टा को लिप्त नहीं करता ऐसे ही जाग्रत् भी द्रष्टा पर लेप की तरह सम्बद्ध नहीं होता । सपने में आत्मा अनेक मागो। को , भय को , पुण्य व पाप के फल से विविध आकार वाले मन को सिर्फ देखकर - न कि कुछ करके - जाग्रदवस्था में चला आता है । सपने से जाग्रत् में यही खासियत है कि इसमें केवल बाहरीपन है । सपने में सुषुप्ति की अपेक्षा बाहरीपना होने पर भी जाग्रत् की अपेक्षा तो भीतरीपन है ही । ऐसे ही जाग्रत् में कोई भीतरीपन नहीं है । आत्मा जाग्रत् से जैसे सपने में जाता है वैसे ही वहाँ से लौटता भी है । जैसे स्वप्न में यह द्रष्टा पुरुष दृश्य के संग से रहित रहता है , ऐसे ही जाग्रत् में भी संगरहित है क्योंकि स्वरूपतः ही असंग है । स्वप्न में वहाँ के दृश्यों से जैसे यह द्रष्टा स्वभावतः ही सक्त नहीं होता , बँधता नहीं , वैसे ही जागरण में यह दृश्यों से बँधता नहीं । स्वप्नद्रष्टा की तरह यह पुरुष क्योंकि असंग है इसलिये जागरण में भी आत्मा दृश्यों से असंबद्ध ही रहता है ।
हे सौम्य ! राजा ने यह बात भी स्वीकार कर ली किन्तु पुनः पूर्ववत् दान देने की घोषणा द्वारा पूर्वोक्त शंका व्यक्त की ।
पहले की तरह फिर अतिबुद्धिमान् मुनि ने उसे उदाहरण से समझाया कि एक ही आत्मा की दो अवस्थायें कैसे संगत है । आत्मा जाग्रत् में अपनी प्रिय बधू आदि से रमण करता है , शहर गाँव आदि से गुजरने वाले विविध मार्गों पर चलता है लेकिन विचार करें तो वहाँ भी वह पुण्य - पाप के फलस्वरूप तत्तद् विषय का आकार लेने वाली बुद्धि को सिर्फ देखता ही है , जैसे स्वप्न में । स्वप्रकाश आत्मा जाग्रत् के बाद स्वप्न को चला जाता है ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

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नारायण ! श्रीगुरुदेव भगवान् कहते हैं " हे सौम्य ! " मिथिलाधिपति से महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि " सपने में आत्मा असंग है " तो महर्षि ने कहा कि " राजन ! ध्यान से सुनो - स्वप्न में जिस आत्मा को मैंने तुम्हें " स्वयंज्योति " बताया वही किसी समय " सम्प्रसाद " अवस्था को प्राप्त होता है । वेदानुसार प्रवचन करने वाले सुषुप्ति को " सम्प्रसाद " नाम वाली कहते हैं , क्योंकि उस अवस्था में पुरुष { आत्मा } उसी प्रकार भली - भाँती निर्दोष हो जाता है जैसे शरद् ऋतु में जलाशयों का जल । मन आदि उपाधियों से और उनके धर्मों से अध्यासरूप सारे विक्षेप को छोड़कर गहरी नींद में आत्मा अपने ही स्वरूप से मौजूद रहता है और खुद अपने ही द्वारा प्रसन्न रहता है , इसीलिये मानव सुषुप्ति को " सम्प्रसाद " कहते हैं । श्रुत्यक्षरानुसार लगता है कि " इस सम्प्रसाद में आत्मा रति - गति करके लौटता है " ऐसा कहा है जबकि सुषुप्ति में कोई रति अर्थात् क्रीडा और गति अर्थात् इधर - उधर घूमना , रति अर्थात् भोग और गति अर्थात् क्रिया नहीं होते । किन्तु श्रुतिभगवती का अभिप्राय है कि सुषुप्ति में जाने से पहले और सुषुप्ति से आने के बाद तो रति – गति होते ही हैं । चाहे जाग्रत् हो या स्वप्न , दोनों में कोई - न - कोई रति या गति होती ही रहती है । उन्हीं का अनुवाद सुषुप्ति में कर दिया है , न कि वहाँ रति - गति का होना बताया है । इसी प्रकार सुषुप्ति में पुण्य - पाप अभिव्यक्तदशा में नहीं होते फिर भी कहा कि " वहाँ आत्मा पुण्य - पाप देखकर ही लौटता है ; इसमें भी अभिप्राय है कि सभी लोगो के पुण्य - पाप सुषुप्ति में भी कारणरूप से तो रहते ही हैं , अतः अज्ञान को भासित करने वाले स्वप्रकाशरूप से पुरुष उन्हें देख लेता है। { माध्यन्दिन शाखा में यह सम्प्रसाद वाला पर्यात् नहीं है , केवल स्वप्नान्त वाला पर्याय है और फिर महामत्स्य का दृष्टान्त समझाया है । उस क्रम में स्पष्टता है लेकिन तीनों अवस्थाओं से विवेक स्फुट नहीं होता । " भगवान् वार्तिकार आचार्य सुरेश्वर ने जाग्रदादि प्रत्येक अवस्था के तीन - तीन विभाग माने हैं , जाग्रत् - जाग्रत् , जाग्रत्स्वप्न , जाग्रत्सुषुप्ति इत्यादि । उसके अनुसार सुषुप्ति - सुषुप्ति से अन्य दोनों सुषुप्तियों की दृष्टि से वहाँ भी रति - गति सम्भव है , अतः प्रकृत प्रसंग संगत है । अथवा श्रुति ने सुषुप्ति को उदाहरणार्थ कहा है : जैसे वहाँ रति - गति संभव नहीं वैसे ही अन्यत्र भी वे असम्भव हैं , भले ही वास्तविकता न जानकर औपाधिक अनुभव जाग्रदादि में हो जाये ।
हे राजन् ! श्रुति में " पुनः आता है " यों पुनः - फिर से - कहा है । उसका अभिप्राय है कि आत्मा का संसरण अनादि है अतः अनेकों बार वह सुषुप्ति में गया है , जैसे पहले जाता रहा है वैसे फिर - फिर जाता है । इसी तरह वहाँ से लौटना भी पहले की तरह ही होता रहता है । यह पुरुष जैसे सुषुप्ति में जाता है हमेशा वैसे ही लौटता है और जिस मनुष्यादि योनि के शरीर वाला जाता है उसी योनि वाला हुआ लौटता है , किसी अन्य योनि वाला होकर नहीं । बाघ के शरीर वाला होकर जब सोता है तब उठकर बाघ ही रहता है । शरीर भी वही ग्रहण करता है , ऐसा नहीं कि बाघजाति के किसी अन्य ही शरीर में जग जाये ! शेर , भेड़िया , सुअर , कीड़ा , मनुष्य आदि जिस जाति व जिस शरीर वाला सुषुप्ति में आता है उसी जाति व शरीर वाला लौट भी आता है । { महर्षि याज्ञवल्क्य राजा जनक को समझाना चाहते हैं कि आत्मा की असंगता का सामान्य व्यवहार से कोई विरोध नहीं । सुषुप्ति में देहादि उपाधियाँ परिच्छेदक नहीं रहतीं , फिर भी जगने पर व्यवस्था बिगड़ नहीं जाती , ऐसे ही वास्तव में जाग्रत् में भी उपाधियाँ आत्मा को परिच्छिन्न नहीं कर रही फिर भी व्यवहार - प्रतीति हो रही है । यद्यपि अन्तःकरण या सूक्ष्मशरीर के ही गमन - आगमन को आधार बनाकर यह प्रसंग कहा - समझा जा सकता है तथापि क्योंकि अभी राजा देहनिरपेक्ष आत्मा नहीं समझा है इसलिये यों कहना संगत है । }
वेद ने कहा कि " सपने के लिय ही लौटता है " किन्तु अनुभव में कभी सुषुप्ति से सीधे जागरण में भी आया जाता है । इसलिये व्याख्या करते हैं - सभी जन्तु गहरी नींद से जो लौट कर आते हैं वह विक्षेप का दर्शन करने के लिये ही । जाग्रत् हो या स्वप्न , दोनों हैं तो विक्षेपरूप ही । इसीलिये दृढतापूर्वक श्रुति ने कहा कि सपने के लिये ही लौटता है ।
सुषुप्ति में आकर विक्षेपरूप सपने में स्थित हुआ आत्मा नारीभोग आदि जो कुछ अनुभव करता है उस विषयसमूह से बँध नहीं जाता । { सपने के विषयों से अनासक्ति सर्वानुभूत है, उसके अनुसार जाग्रत् में भी समझनी चाहिये क्योंकि यहाँ भी विषयसम्पर्क तो देह - इन्द्रियों का ही होता है , आत्मा केवल द्रष्टा ही रहता है । }

हे राजन् ! यदि आत्मा का विषय से सम्बन्ध हो तो विषयज्ञान ही सम्भव नहीं होगा अतः विषयज्ञान की अन्यथानुपपत्ति से आत्मा की असंगता सिद्ध करने की विलक्षण रीति अपना कर संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसी किसी चीज़ को देख { जान } नहीं सकता जो खुद उस व्यक्ति से सम्बद्ध हो ! कारण कि यदि स्वयं से { अर्थात् द्रष्टा से } सम्बद्ध होने के कारण उससे विशिष्ट अर्थ को द्रष्टा के ज्ञान का विषय माना जाये तो न चाहकर भी स्वयं को अपना ही विषय भी स्वीकारना पड़ेगा ; विशिष्ट में यदि विषयता रहेगी तो विशेषण में भी उसे रहना अनिवार्य है । और यदि विषयता होगी तो द्रष्टा को आत्मा ही नहीं कह पायेंगे ।
हे राजन् ! जब तक विशेष्य , विशेषण और उसका सम्बन्ध ये तीनों न जाने जायें तब तक विशिष्ट का कभी ग्रहण नहीं होता । जो पुरुष सम्बन्ध , विशेष्य व विशेषण को नहीं जानता वह विशिष्ट को भी कभी नहीं जान पाता । संयोग , दण्ड और पुरुष तीनों को न जाने तो " दण्डी " { ' दण्डधारी पुरुष ' } ऐसा ज्ञान कभी नहीं होता । एवं च आत्मा से सम्बद्ध अर्थात् उससे विशिष्ट विषयों का ज्ञान मानें तो विशेषण हुए आत्मा को भी उस ज्ञान का गोचर मानना पड़ेगा जब कि ऐसा मानना विरुद्ध है । किसी भी वस्तु द्वारा स्वयं उसी वस्तु का ग्रहण करना सम्भव नहीं । आख़िर उसी मुट्ठी से उसी मुट्ठी को कौन पकड़ सकता है । कथंचित् अगर द्रष्टा को विषय मान लें तो उसे पूरी तरह अनात्मा ही होना पड़ेगा क्योंकि जो कुछ विषय होता है वह जड देखा गया है और जड में आत्मता होती नहीं । अगर जड भी आत्मा हो तो घट ही क्यों नहीं आत्मा हो जाता ? अमूर्त होने पर भी जड होने से ही आकाशादि आत्मा नहीं हैं । इसलिये अनुभवसिद्ध सपने में नारीभोग , अन्नभक्षण जो दीखता है उससे द्रष्टा का सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि वह द्रष्टा है । जो द्रष्टा होता है वह अपने दृश्य से असम्बद्ध ही होता है । जिस द्रष्टा द्वारा जो विषय देखा जाता है उस दृश्य से द्रष्टा बँधता नहीं है। जाग्रत् में जैसे घटद्रष्टा दृश्यभूत घट से अनुगत नहीं हो जाता क्योंकि असंग है वैसे ही स्वप्नद्रष्टा भी स्वप्न के दृश्यों से अनुगत नहीं होता क्योंकि असंग है ।
हे नरेश ! क्योंकि यह आत्मा सपने में थोड़े भी संग से रहित है इसलिये अपने स्वप्रकाशरूप से विद्यमान यह पूर्ण चेतन इसी लायक है कि यह मोक्षरूप हो । { इस प्रकार " स्वप्न में संगयुक्त होने से मुक्तस्वरूप कैसे ? " यह जो प्रथम प्रश्न था उसका उत्तर पूरा हुआ । }
हे सौम्य ! राजा जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से कहा " ऐसा ही है । " फिर "याज्ञवल्क्य ! " यों सम्बोधित कर उसने पूर्ववत् गोदान की पेशकश की ।
हे सौम्य ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी राजा को फिर समझाया : हे राजन् ! सभी जन्तुओं की जाग्रदवस्था भी स्वप्नावस्था जैसी ही है , जैसे सपना अपने द्रष्टा को लिप्त नहीं करता ऐसे ही जाग्रत् भी द्रष्टा पर लेप की तरह सम्बद्ध नहीं होता । सपने में आत्मा अनेक मागो। को , भय को , पुण्य व पाप के फल से विविध आकार वाले मन को सिर्फ देखकर - न कि कुछ करके - जाग्रदवस्था में चला आता है । सपने से जाग्रत् में यही खासियत है कि इसमें केवल बाहरीपन है । सपने में सुषुप्ति की अपेक्षा बाहरीपना होने पर भी जाग्रत् की अपेक्षा तो भीतरीपन है ही । ऐसे ही जाग्रत् में कोई भीतरीपन नहीं है । आत्मा जाग्रत् से जैसे सपने में जाता है वैसे ही वहाँ से लौटता भी है । जैसे स्वप्न में यह द्रष्टा पुरुष दृश्य के संग से रहित रहता है , ऐसे ही जाग्रत् में भी संगरहित है क्योंकि स्वरूपतः ही असंग है । स्वप्न में वहाँ के दृश्यों से जैसे यह द्रष्टा स्वभावतः ही सक्त नहीं होता , बँधता नहीं , वैसे ही जागरण में यह दृश्यों से बँधता नहीं । स्वप्नद्रष्टा की तरह यह पुरुष क्योंकि असंग है इसलिये जागरण में भी आत्मा दृश्यों से असंबद्ध ही रहता है ।
हे सौम्य ! राजा ने यह बात भी स्वीकार कर ली किन्तु पुनः पूर्ववत् दान देने की घोषणा द्वारा पूर्वोक्त शंका व्यक्त की ।
पहले की तरह फिर अतिबुद्धिमान् मुनि ने उसे उदाहरण से समझाया कि एक ही आत्मा की दो अवस्थायें कैसे संगत है । आत्मा जाग्रत् में अपनी प्रिय बधू आदि से रमण करता है , शहर गाँव आदि से गुजरने वाले विविध मार्गों पर चलता है लेकिन विचार करें तो वहाँ भी वह पुण्य - पाप के फलस्वरूप तत्तद् विषय का आकार लेने वाली बुद्धि को सिर्फ देखता ही है , जैसे स्वप्न में । स्वप्रकाश आत्मा जाग्रत् के बाद स्वप्न को चला जाता है ।
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नारायण स्मृतिः

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