Skip to main content

हम जन्मों से रहे पथिक

∬ श्री गुरुभ्यो नमः ∬
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
" हम जन्मों से रहे पथिक"
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
प्रश्न : कहो पथिक तुम कौन देश के
और कौन दिशा जाते हो ।
निर्बल , थके , व्यथित लगते 
बोल न कुछ भी पाते हो ॥
उत्तर : ज्ञान नहीं मैं कहाँ से आया 
और कहाँ मुझे है जाना ।
चलते रहने की इच्छा में
खुद को न मैंने पहचाना ॥
प्रश्न : कौन तुम्हारे मात - पिता
और कौन तुम्हारा गाम ।
कौन देश का मूल निवासी 
कौन जाति और क्या नाम ॥
उत्तर : जनम , जनम इस यात्रा में 
कई मिले नये मात - पिता
नया देश और नया गाम ,
नई जाति और नया पता
प्रश्न : अंतर्मन से सोच के बोलो 
कितनी बार धरा पर आए ।
कौन जनम दुर्लभ पाया
कौन पुण्य और पाप कमाए ॥
उत्तर : याद नहीं कितने कालों में
कितने जन्म लिए मैंने ।
घोर पाप के कारण ही
तिर्यक में भ्रमण किया मैंने ॥
प्रश्न : किस योनि में दुःख मिला
किसमें पाया सुख तन का ।
किसमें भोग रोग से मुक्ति
पूर्णानन्द मिला मन का ॥
उत्तर : धी हीन ही भोग - जन्म है
खाना , सोना , मैथुन , भय 
चौरासी में नरक यातना
बस दारूण मृत्यु का भय ॥
कोई पुण्य रहा होगा जो
मनुज देह में जन्म मिला ।
देवों को दुर्लभ यह नर तन
प्रभु दया से सहज मिला ॥
प्रश्न : पुरुषार्थ कैसा करना है
मन क्या है और क्या है बुद्धि ।
कलयुग में सब कलुषित है
क्या शौच और कैसी बुद्धि ॥
उत्तर : मन , बुद्धि की शुद्धि शौच है
पुरुषार्थ है ईश्वर भक्ति ।
जग - बंधन का विलय " मोक्ष " है 
अंतर्मन जागे यह शक्ति ॥
प्रश्न : पाप कौन और पुण्य कौन
रोग कौन इस पीणित मन का ।
सहज , सरल साधन कैसा है
जिससे पाप कटे इस तन का ॥
उत्तर : कर्म , वचन , मन से अहिंसा
दिव्य पुण्य और परम धर्म है ।
परचर्चा और पर - निन्दा ही
घोर पाप और महा अधर्म है ॥
मद , मत्सर , मोह , मान बड़ाई
कपट , कुटिलता कुष्ट रोग है ।
द्वेष , दंभ , दर्प , ईर्षा दाद
पर सुख डाह , भय रोग है ॥
मृतिका है नवद्वार देह
आधि - व्याधि का मूल निवास ।
प्रभु प्राप्य का उत्तम साधन 
अजपाजप में श्वास - प्रश्वास ॥
भव - बंधन ही भोग रोग है
पतञ्जलि अष्टाङ्ग अराधना ।
यज्ञ , योग कलयुग में दुर्गम
हरिनाम ही सहज साधना ॥
नारायण स्मृतिः

Comments

Popular posts from this blog

गायत्री मन्त्र का अर्थ

गायत्री मन्त्र का अर्थ ॐ भूर्भुवः स्वः " तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् " । =========================================== जप के पूर्ण फल को या इष्ट की असीम कृपा का भाजन बनने के लिए और जप के समय मन को अनेक कल्पनाओं से विरत करने का साधन मन्त्रार्थ चिन्तन है । इस परम शक्तिशाली गायत्री मन्त्र का अर्थ मैने अनेक लोगों के दूवारा लिखा देखा है । और उन पर व्यंगबाणों की बौछार भी । जो आप सब मनीषी इससे पूर्व पोस्ट में देख चुके हैं । इस मन्त्र का " तत् " और "यो " तथा " भर्गो " शब्द विद्वत्कल्पों की जिज्ञासा के विषय बने रहे । आलोचकों का मुहतोड़ उत्तर दिया जा चुका है । उससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का शमन भी हुआ होगा । पर कुछ अनभिज्ञों ने तो "भर्गो " की जगह " भर्गं " करने का दुस्साहस भी किया ; क्योंकि " भर्गं " उन्हे द्वितीया विभक्ति का रूप लगा और " भर्गो " प्रथमान्त पद । पहले हम भर्ग शब्द पर चर्चा करते हैं --- भर्ग शब्द हमारे सामने हिन्दी रूप में उपस्थित होता है और जब उसका संस्कृत रूप में...

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरदेव भगवान् अपने प्रिय शिष्य को कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश को समझाते हुए कहते हैं – हे राजन् ! जीव - ब्रह्म के अभेद का अज्ञान मिटाने वाले " मैं ब्रह्म हूँ " इत्यादि श्रुति में आये महावाक्यों के बारे में भ्रान्तजनों को शंका बनी रहती है कि वे प्रमोत्पादक नहीं क्योंकि वे लोग आत्मा में परिच्छिन्नता का अनुभव करने से मानते हैं कि जीव - ब्रह्म का अभेद हो नहीं सकता । वे लोग जब स्वप्न का विचार करते हैं तो वह शंका मिट जाने से उक्त वाक्य प्रमाणकृत्य करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि जगत् के जन्मादि के प्रति कारण - होना - यह जो ब्रह्म का लक्षण है वह आत्मा में भी है , यह बात सपने में व्यक्त होती है । असमर्थता आदि से शोकयोग्य हुए भी जीव अपनी माया द्वारा स्वयं से नानाविध प्रपञ्च वैसे ही उत्पन्न कर लेते हैं जैसे ब्रह्म मायाशबल हो संसार बनाता है । स्वाप्न प्रपञ्च को जीव अपने में ही स्थापित रखते हैं तथा उस संसार के महेश...

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...