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Showing posts from 2013

शिष्य – भाव

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! ══════════ शिष्य – भाव ══════════ संसार के विषयों का ज्ञान तभी हो सकता है जब जिज्ञासु में ज्ञान ग्रहणकरने की क्षमता हो । जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य किसी गणितज्ञ के पास किसी प्रश्नको लेकर जावे ; तो गणितज्ञ उससे पूछेगा कि " तुम्हारी योग्यता क्या है ? " क्योंकि हो सकता है कि पूछने वाले को समझाने पर भी समझमें न आवे । अतः पहले अधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता है । नारायण! इसी प्रकार " नारद ऋषि " साधन- चतुष्टय सम्पत्ति से युक्त होकर ब्रह्म - विद्या का ज्ञान लेने ब्रह्मऋषि भगवान्  श्री सनत्कुमार के समीप गये । सर्वत्र नियम है कि जिज्ञासु के सामने केवल उतनी बातही कहे जितनी उसकी समझ में आ सके अर्थात् वह ग्रहण कर सके । देवर्षि नारद ने वेद - वेदाङ्ग इतिहास पुराणादि एवं समस्त लौकिक विद्याओं के अध्ययन करने का परिचय दिया ।किन्तु इतना अध्ययन करने के पश्चात् भी उन्हें ब्रह्म - ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई । अतः विधिवत् अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने प्रार्थना की कि" भगवन् ! आप - जैसे महानुभावों से मैंने सुना है कि -" तरति ...

" दुःखी कौन ? "

सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र !! श्री आचार्य सुरेश्वर चरणकमलेभ्यो नमः !! ════════════ " दुःखी कौन ? " : ════════════ प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् " : " दुःखी यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । " { नैष्कर्म्यसिद्धिः 2 / 76 } वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर अपने नैष्कर्म्यसिद्धः नामक ग्रन्थ में कहते है - " दुःखि यदि भवेदात्मा कः साक्षी दुःखिनो भवेत् । " कितनी सुन्दर बात हमारे आचार्य जी कह रहे हैं - यदि आत्मा दुःखी होता , तो " मैं दुःखी हूँ " या " मैं दुखी था " - इसका गवाह कौन है ? इसका साक्षी कौन है ? क्योंकि , किसी वस्तु की सिद्धि दो तरह से होती है । अदालत में मुकदमा जाये तो जज को दो चीज चाहिए - एक तो लिखन्त दस्तावेज हो और दूसरे , गवाह { साक्षी } चाहिए । शास्त्र तो दस्तावेज हैं , निर्णय करने के लिए लिखित प्रमाण है और फिर साक्षी भी चाहिए । तो, देखिए मेरे भाई , यदि दूसरे के बारे में कोई बात जाननी हो तो जैसी लिखी हो , वैसा मानना पड़ेगा और अपने बारे में कोई बात जाननी हो तो वहाँ स्वानुभू...

द्विविध भ्रम

भ्रम होने पर भी प्रवृत्ति सफल हो जाये तो भ्रम कोसंवादी कहते है तथा प्रवृत्ति विफल रहे तो भ्रम विसंवादी होता है । दीपक में मणिका भ्रम हो तो निकट जाने पर भी मणिलाभ न होने से भ्रम विसंवादी है किन्तु मणि -प्रभा में मणि का भ्रम हो तो निकट जाने से मणि मिल जाती है अतः भ्रम संवादी है ।इसी प्रकार शास्त्रानुसार आत्मतत्त्व को परोक्ष समझना भ्रम तो है लेकिन उस ज्ञानपर निष्ठा रहे तो क्यैंकि जिसके बारे में वह ज्ञान है वह वास्तव में आत्मा ही हैइसलिये उस पर एकाग्र रहने से यथोपदेश उसकी अपरोक्षता भी समझ सकना सुसम्भव है जिससेउसे संवादी भ्रम के स्थानापन्न समझना उचित है । अखण्ड आत्मा से अन्य नाम - रूपोंके ध्यानों को विसंवादी भ्रम मानना पड़ता है क्योंकि वास्तविक आत्मतत्त्वनामरूपात्मक है नहीं । अखण्ड तत्त्व की उपासना में यह वृत्ति नहीं बनायी जाती किआत्मा परोक्ष है ! वृत्ति तो यही बनाते हैं कि वह अपरोक्ष है किन्तु अपने मेंसामर्थ्य न होने से अपरोक्षता का अनुभव नहीं होता । शास्त्र श्रद्धा से वह ज्ञानप्रमारूप तो माना ही जाता है अतः यदि उसका विरोधी कोई ज्ञान न आये तो फलतः वहप्रमा ही रहेगा क्योंकि ...

" आशा - पिशाचिनी " { २ } :

" आशा - पिशाचिनी " { २ } : नारायण ! अज्ञान हो चाहे ज्ञान , विवेक हो या अविवेक , विषय और इन्द्रियों का संयोग तो हमेशा संभावित होगा ।सामने रूप आयेगा तो आँख का सम्बन्ध होगा ही । जीभ पर गुलाब जामुन { एक प्रकार का मिष्टान्न } रखेंगे तो मिठास आयेगी ही । विषय औरइन्द्रियों का जो संयोग है वह तो सभी प्राणियों का एक जैसा ही होता है । फिर साधकऔर असाधक में अन्तर क्या है ? अभ्यासीकी विशेषता यह है कि सम्बन्ध के काल में वह प्रमाद नहीं करता - सावधान रहता है ,अप्रमादी रहता है । साधारण मनुष्यविषयेन्द्रिय - सम्बन्ध के समयविवेक को जाग्रत् नहीं रखता । विवेकी उस समय विवेक को जाग्रत् रखता है और बड़ेध्यान से देखता है कि " मैंनेइस विषय में जो " आशा" लगायी थी वह पूरी हो रही है या नहीं " । अविवेकी इन सब बातों का ध्यान नहीं रखता , बस यही अन्तर है " मेरे प्रभु" । आशा को काटने का तरीक है पदार्थ के भोग के काल में विवेक को जाग्रत् रखना । तब धीरे - धीरे आशा हट जायेगी । आशा को हटाना है , दिल को मारना नहीं है । दिल को मारना होता है कि पदार्थ की आशा तो है लेकिन क्योंकि मुझे...

" आशा - पिशाचिनी " { १ } : by सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र

" आशा - पिशाचिनी " { १ } : by  सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र  ( Notes )  !! श्रीअनन्तानन्देन्द्र गुरुवे नमः !!                                                        "  आशा - पिशाचिनी " { १ } : नारायण ! चित्त की एकाग्रता जिन कारणों से नहीं होपाती , उन कारणों को जब तक दूरनहीं किया जाये तब तक तत्त्व का अनुभव संभव नहीं । शिक्षा तो वह होती है जोव्यवहार में आवे , अनुभव में आजाये । जो शिक्षा व्यवहार और अनुभव में आये ही नहीं वह शिक्षा किस काम की । चित्तकी अनेकाग्रता ज्ञान को भले प्रकार से समझने नहीं देती और जब समझ ही ठीक नहीं होगीतो फिर क्रिया ठीक हो ही नहीं सकती । अनेकाग्रता को हटाया कैसे  जाये? भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्करभगवत्पाद् इतनी सब चीजों को संग्रह करतेहुए अनुग्रह करते हैं : " आशांछिन्धि विषोपमेषु विषय...

" धैर्याङ्कुश " - { १ }

 " धैर्याङ्कुश " - { १ } (   सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र  ) नारायण ! अज्ञान को हटाने के लिये बड़े धैर्य की जरूरत पड़ती है । " भगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ शङ्करभगवत्पाद जी " ने अनुग्रह करते कहा है : " धैर्याङ्कुशेननिभृतं रभषादाकृष्य भक्तिश्रृंखलया । पुरहर चरणालाने हृदयमदेभं बधान चिद्यन्त्रैः ॥ " यह तुम्हारा अज्ञान कैसा है ? कहते हैंयह हाथी की तरह है । हाथी को मारना सरल नहीं होता , पकड़ना भीसरल नहीं होता । धैर्य वाला ही इसे पकड़ सकता है । मदमत्त गजराज को पकड़ना बहुत हीमुश्किल होता है । किसी बड़े राजा को हटाना पड़े तो कितनी युक्ति से काम लेना पड़ेगा! यह अज्ञान तो राजाओं का भी राजा है । हाथी को नियन्त्रित करने के लिए अङ्कुशचाहिये । अङ्कुश के बिना हाथी हाथ में नहीं आयेगा । यहाँ अङ्कुश की जगह क्या है । " धैर्य" । लोग अधीरता के कारण हीवेदान्त - निष्ठा को प्राप्त नहीं करते। वेदान्त की विलक्षणता यह है कि यह अनुभवपहले कराता है बाकी साधन बाद में । नारायण! " ब्रह्म - विद्या " किसीनयी चीज़ का ज्ञान तो है नहीं , आपकी जानी हुई चीज़ का हीज्ञान है...

अथ निदिध्यासनम्

<<अथ निदिध्यासनम् >> नारायण ! “ निदिध्यासन ” का मतलब क्या है ? बहुत से लोग इसका मतलब ले लेते हैं कि आँख मीँचकरबैठने को ही निदिध्यासन कहा जाता है । " वार्तिककार भगवान् श्रीआचार्य सुरेश्वर" कहते हैं : " निदिध्यासस्वेतिशब्दात् सर्वत्यागफलं जगौ । न ह्यन्यचिन्तामत्यक्त्वा निधिध्यासितुमर्हति ॥ " आचार्यने यहाँ यह नहीं कहा है कि " मेरी बात सुनने के बाद निदिध्यासन करो " । वेदान्त शास्त्र में मनन , निदिध्यासन सहकृत श्रवण को ज्ञान के प्रति साक्षात् साधन कहा है । श्रवणकरने के लिए निदिध्यासन करें । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा " आओ बैठो , निदिध्यासन करो । मैं व्याख्यान करूँगातुम निदिध्यासन करो । " सब चीज़ों के त्याग का फल हीआचार्य ने निदिध्यासन कहा है । उस निदिध्यासन का स्वरूप क्या है ? जो निरन्तर गुरु के मुख से सुना जा रहा है , उसका निरन्तर विचार । " अन्तर " काअर्थ होता है - बीच बीच में जगह छोड़ना । " निरन्तर" का अर्थ होता है बीच बीच में जगह न छोड़ना । जिस व्यक्ति कोकिसी कर्म की चिन्ता है वह निदिध्यासन नहीं कर स...

मानस रोग भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि

मानस रोग  भारतीय और पाश्चात्य दृष्टि  (सर्वग्य शंकरेंद्र ) नारायण ! बहुत से लोक कहते हैं " महाराज " ! हमने दूसरों का कल्याण किया , दूसरों को बहुत फायदा पहुँचाया लेकिन जब हमारे ऊपरआपत्ति आयी तो वे सब हमारे दुश्मन हो गये । हम प्रायः उनसे कहा करते हैं" भाई " ! आप अपना मन को जड़ा टटोल कर देखें। आपने जो दया दिखाई थी उसमें घमण्ड का भाव था । आप सोच रहे थे कि उसके ऊपर दया कर रहा हूँ ,अतः वह मेरा हमेशा कृतज्ञ बना रहे । आपयह समझ रहे थे कि मैंने इसका बड़ा उपकार किया है । आपके हृदय में करुणा का भाव नहींथा । यह भाव आपके मन में नहीं था कि इसका उपकार किये बिना मैं नहीं रह सकता हूँ ।जब हमारे अन्दर करुणा का भाव होता है तो दूसरे के कष्ट से हमें दुःख होता है ।" वाशिंगटन " के जीवन की एक घटना है । वे एक बार कहीं जारहे थे तो उन्होंने देखा कि एक सूअर कीचड़ में फंसा हुआ तड़प रहा है । वे अपनी घोड़ागाड़ी से नीचे उतर पड़े और बड़े ही परिश्रम के द्वारा उन्होंने उस सूअर को बाहर निकालदिया । जब वे राष्ट्रपति भवन में पहुँचे तो लोगों ने देखा कि कीचड़ से लथपथ हैं ।सारी बात शहर में फैल ग...

“ दुःखवाद – भोगवाद से आनन्दवाद की ओर ”

“ दुःखवाद – भोगवाद से आनन्दवाद की ओर ”  (   सर्वज्ञ शङ्करे न्द्र  ) नारायण ! दो प्रकार के वाद इस समय विश्व में अपनी - अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्ध कररहे हैं । प्रथम है -" दुःखवाद और दूसरा है - " भोगवाद" । नारायण! थोड़ा सा विचार करियेगा । प्रायः संसार के अन्दर जितने भी मज़हब और मत मतान्तर हैंसब के सब " दुःखवाद " परआधारित है , हमें यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि भारतवर्षके अन्दर भी , कम से कम बुद्ध और जैन धर्म के बाद से जोपरम्परा चली वह " दुःखवाद " केऊपर आधारित रही ; वह हमें डराती रही और हमारे मन के अन्दर एकभय पैदा करती रही । कभी वह नरकाग्नियों का बड़े - बड़े विस्तार से वर्णन करके हमकोनरक से डराती रही और हमको हर प्रकार से भय ही देकर धर्म की तरफ प्रवृत्त किया जानेलगा । भयवाद ही दुःखवाद का मूल होता है । मध्यकालीन सन्तपरम्परा में भी हम इसीदुःखवाद को देखते हैं । हम जगत् की तरफ दुःखवाद की दृष्टि लेकर चलते हैं कि जगत्एक बड़ी बुरी चीज़ है , यहां तक कि हमारा शरीर भी बड़ी बुरी चीज़है। हमारे मन में भय बैठा हुआ है , हम हर एक से डरते हैं ,आध्यात्मिक जगत् म...

“ परमेश्वर – परसखा “

“ परमेश्वर – परसखा  “ “ परमेश्वर – परमसखा  “ : नारायण ! अतिधन्य -" ऋग्वेद " हमारे - आपके सामने एक बड़ा ही सुन्दर आदर्श रखता है : " द्वासुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते तयोरन्यः पिप्पलंस्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति " { ऋग्श्रुति 1 - 22 - 164 } श्रुतिभगवती यह बतला रही है कि " परमेश्वरऔर जीव " का सम्बन्ध दो मित्रों जैसा है । वे कैसे मित्र हैं ? जैसे एक ही वृक्ष के ऊपर बैठे हुए " दोपक्षी " । एक पक्षी इधर - उधर जा रहा है , फलों को खा रहा है , लेकिनदूसरे पक्षी का प्रेम इतना अधिक है कि वह निरन्तर अपने प्रिय पात्र को टकटकी लगाकरदेखता ही जा रहा है । नारायण ! ठीक वही हाल जीव और ईश्वर की है । हम समझते हैं कि जीव ईश्वर सेप्रेम करता है लेकिन अपने जीवन में आगे बढ़ने पर हमें अपने प्रेम की दरिद्रता काअनुभव होता है । जीव परमेश्वर से कितना प्रेम कर सकता है ? विचारक तो यहाँ तक कह देते हैं कि परमेश्वर को जीव केलिये जितनी भूख है जीव उसका हजारवां हिस्सा भी परमेश्वर के लिये यदि प्राप्त करलेतो परमेश्वर उसको खींचने के लिये तैयार बैठा...