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∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬

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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! ज्ञात हो कि " वाचकन्वी गार्गी महर्षि के उत्तर से किंकर्तव्यविमूढ होकर वह तुरन्त ही " उद्दालक आरुणि के निकट बैठ गयी ताकि वे महर्षि याज्ञवल्क्य के समक्ष वे कोई प्रश्न उठायें ।

सभी ब्राह्मण और अन्तमें अतिप्रसिद्ध ब्रह्मवादिनी वाचकन्वी गागी भी याज्ञवल्क्य महर्षि से स्वयं को श्रेष्ठ नहीं कर पाये । यह देखकर " उद्धालक" को काफी क्षोभ था , अतः उन्होंने ऐसा गोपनीय प्रश्न पूछा जिसका उन्हें उपदेश किसी देवता ने दिया था । उन्होंने भूमिका बाँधते हुए कहा - याज्ञवल्क्य ! हमें बहुत - से ब्रह्मचारी , यज्ञप्रतिपादक वेदवाक्यों का अध्ययन करते हुए " मद्रदेश " में " पतञ्जल काप्य " के घर रहते थे । पतञ्जल की पत्नी पर गंधर्व { अग्नि } का आवेश था । पतञ्जल समेत हम सबने उससे पूछा " आप कौन हैं ? " स्त्री के शरीर पर आविष्ट उस गन्धर्व ने हमारे गुरु व हम सब ब्राह्मणों को बताया " मैं "आथर्वण ग्रोत्र " का " कवन्ध" नामक गन्धर्व हूँ जो आप ब्रह्मचारियों के व आपके गुरु के उपकारार्थ आया हूँ " { "कवन्ध" शब्द का अर्थ है अग्नि क्योंकि " क " अर्थात् परिवेष्ठन जिसका हो उसे कबन्ध कहते हैं । अग्नि भी विराट् विवक्षित है ।} गन्धर्व ने हमसे फिर कहा - " काप्य ! क्या तुम उस सूत्र को जानते हो जिससे यह सारा जगत् माला में फूलों की तरह टिका है ? प्रत्यक्ष उपलब्ध होने वाले और केवल शास्त्रादि से ज्ञात सभी तरह के लोक , सभी प्राणी और उनका संचारक्षेत्र - यह सब एक " सूत्र " ने धारण कर रखा है ? " हमारे गुरु पतञ्जल ने जवाब दिया " समस्त संसार का धारण करने में कारण बनने वाले सूत्र को मैं नहीं जानता । " गन्धर्व सब से पुनः बोला " काप्य ! क्या आप " अन्तर्यामी " को जानते है ? " गुरुजी ने साफ कह दिया कि वे इस ज्ञान से अभी तक वंचित हैं । गन्धर्व ने करुणायुक्त होकर बताया " काप्य ! मैंने जिस सूत्र व अन्तर्यामी के बारे में पूछा , उनकी जिसे जानकारी होती है , वह निःसंदेह सारे ही विश्व को जानता है । इनका ज्ञान इतना महान् है। इनका ज्ञाता परमात्मा , भूरादि लोक , सभी देवता , वेद , अन्य प्राणी , पाँचों महाभूत , निजात्मा , किं बहुना , सभी कुछ जानता है इसमें संशय नहीं । " फिर , गन्धर्व ने हम सभी को सूत्र व अन्तर्यामी का उपदेश दिया।

याज्ञवल्क्य ! मैं - " उद्धालक गौतम " - उन दोनों से अभिज्ञ हूँ । यदि आपने उनके ज्ञान से रहित रहते हुए ही ब्राह्मणों के लिये अभिप्रेत गौवें का मोहवश ग्रहण किया होगा तो आज आपका सिर तुरन्त कटकर गिर जायेगा । 

नारायण ! महाभाग महर्षि याज्ञवल्क्य ने मुनि उद्दालक से कहा " गन्धर्व ने जिनका उपदेश आपको दिया उन दोनों से मैं परिचित हूँ । " 

नारायण ! उद्दालक मुनि गुस्से से बोले " अरे ! " जानता हूँ - जानता हूँ " ऐसे कहे जा रहे हो जैसे कोई पागल हो ! जो जानते हो वह बता क्यों नहीं रहे ? जानकार सिर्फ " जानता हूँ" तो बोलेगा नहीं । अगर पता है तो बताओ , व्यर्थ क्यों शोर मचाते हो । "

नारायण ! याज्ञवल्क्य महामुनि ने कहना आरम्भ किया - सभी कुछ को बाँधकर रखने वाला सूत्र " वायु " है । यह तथा अन्य लोक और सारे भूत , वायु द्वारा ही निबद्ध हैं जैसे तन्तुओं से कपड़ा निबद्ध होता है । { समष्टि - व्यष्टि सूक्ष्म शरीर में प्रधान प्राण है जो वायु का ही एक रूप है , उस सूक्ष्मोपाधि वाले को ही यहाँ सूत्र कहा है । } क्योंकि यह वायु ही सूत्र की तरह धारण करने वाला है इसलिये वायु निकल जाने पर जो मर गया उसे देखकर कहा जाता है कि जैसे धागा निकाल देने पर माला के फूल बिखर जाते हैं , ऐसे ही अब इस शव के अंग विशीर्ण हो रहे हैं , सड़कर समाप्त हो रहे हैं । 

नारायण ! गौतम ने याज्ञवल्क्य के उत्तर को स्वीकारा कि गन्धर्व ने ऐसा ही बताया था और अन्तर्यामी के बारे में कहने के लिये प्रेरित किया । 
नारायण ! याज्ञवल्क्य ने बताया - सूत्र को नियमतः चलाने वाला अन्तर्यामी है । देवताओं के संदर्भ में उसे 12 बारह स्थानों में रहने वाला बताया है - पृथ्वी , जल , अग्नि, भुवर्लोक , वायु , स्वर्ग , सूर्य , दिशा , चाँद - तारे , आकाश , अँधेरा और रोशनी । भूतों के संदर्भ में निरूपण करते हुए तो उसे चर - अचर सभी भूतों में उपस्थित कहा है । अध्यात्म में उसके 8 आठ स्थानों का उल्लेख है - प्राण , वाक् , चक्षु , श्रोत्र , मन , त्वक् अर्थात् चर्म , बुद्धि और उपस्थ । यों 21 इक्कीस प्रकार से व्यवस्थित स्थानों में जिस सर्वरूप , पूर्ण , प्राज्ञ देव को स्थित कहा है वही " अन्तर्यामी " है । जैसे घर का मालिक पुरुष घर से अलग होता है , ऐसे ही यह महादेव उक्त स्थानों में विलक्षण है । { 21 इक्कीस समझाने के लिये स्थान कहे , तात्पर्य तो यही है कि वस सभी में है । } ये पृथ्वी आदि उस अन्तर्यामी को जानते नहीं , भले ही यह उन्हीं के हृदय में वर्तमान है । पृथ्वी आदि पर शासन करने के लिये अन्तयार्मी कोई स्वतन्त्र शरीर धारण करता हो ऐसा नहीं ; जैसे हम जीवों के ये शुक्रशोणितमय देह हैं , ऐसे ही पृथ्वी आदि उस अन्तर्यामी को भी शरीररूप से काम दे जाते हैं । { अर्थात् नियम्य शरीर से अन्य किसी देह के बिना ही अन्तर्यामी उसका नियमन कर लेता है । } लोक में जैसे राजा कार्यकर्ताओं को कार्यों में लगाता है , ऐसे ही वह महेश्वर महादेव अकेला ही उन सब चेतनों को { सूक्ष्म देहों को } अपने - अपने कार्यों पर नियुक्त करता है , जो पृथ्वी आदि स्थूल देहों से तादात्म्यापन्न हैं । हे गौतम ! जिसके बारे में तुमने पूछा है वह यही अन्तर्यामी है । तुम्हारा भी यही आत्मा है । लोकसिद्ध मरण आदि 6 छह ऊमियों से यह सदा अछूता रहता है । { भूख - प्यास , विषाद - असन्तुलितमनस्कता , जन्म - मरण , ये 6 छह उर्मि अर्थात् पीड़ायें प्रसिद्ध हैं । इनमें प्रथम द्विक प्राणसम्बद्ध है , द्वितीय मानस और तीसरा दैहिक है । } 

नारायण ! इस प्रकार उस अन्तर्यामी महादेव महेश्वर को पृथ्वी आदि हर - एक के नियामक रूप से उनमें स्थित बताते हुए मुनिवर्य ने 21 इक्कीस बार वर्णन किया । फिर उसके जो धर्म अभी नहीं बताये थे उनका उल्लेख किया जो धर्म ऐसे हैं कि सभी धर्मों का अभाव अभिव्यक्त करते हैं ! इस वर्णन में धर्मवित् महामुनि न " नहीं " इस मन्त्र का सहारा लिया । { अर्थात् " नहीं " अर्थात् "नेति" - यही मन्त्र है जिससे निर्धमा परमात्मा का वर्णन सम्भव है । क्योंकि वह स्वतः स्फूरमाण परमार्थ तत्त्व है इस लिये निषेधमुख से उपदेश होने पर भी उसकी असत्ता नहीं समझी जा सकती यह सिद्धान्तरहस्य है । स्थूलदृष्टि वालों के लिये तो भावभूत धर्मों के द्वारा भी समझाया ही जाता है । }

नारायण ! बहुतेरी आजकारियाँ वाले विद्वानों को भी विविध शक्तियों वाली आँखों से ये महादेव आज तक देखे नहीं गये अतः अदृष्टता उनका धर्म है । वह पूर्ण पुरुष न कानों से व न शब्दों से सुने गये हैं और न ही मनों से उनका मनन ही हो पाया है । चाहे जितनी परिशोधित हों , बुद्धियों द्वारा किसी तरह उन्हें अभी तक जाना नहीं गया । वे जगन्नाथ दृष्टि , श्रुति , मति , विज्ञाति अर्थात् नेत्रादिप्रयुक्त अन्तःकरणवृत्तियों के सदा प्रकाशक हैं जिससे उन्हें द्रष्टा , श्रोता , मन्ता , विज्ञाता आदि कहा जाता है । सभी इन्द्रियों की बाहरी - भीतरी गतिविधियों को ये महेश्वर जानते ही हैं किन्तु कोई भी इन्द्रिय इन्हें कभी भी विषय नहीं कर पाती । पृथ्वी आदि सर्वत्र स्थित इस अन्तर्यामी से अन्य कोई चेतन द्रष्टा , श्रोता , मन्ता , विज्ञाता आदि नहीं है । हे गौतम ! यही तेरा आत्मा है क्योंकि इससे अन्य कोई है ही नहीं जो द्रष्टा आदि हो ! इससे अन्य सब जड ही है अतः विद्या से बाध्य ही है , मिथ्या ही है । 

यों दोनों रहस्यों की जानकारी याज्ञवल्क्य में देख कर विप्र उद्धालक ने और कुछ पूछा नहीं, चुप हो गये ।

नारायण ! "उद्दालक आरुणि" के चुप हो जाने पर " वाचकन्वी गार्गी " ने विप्रों से निवेदन किया - " हे वेदज्ञो ! यहाँ उपस्थित आप सभी पूज्य लोग अब मेरी प्रार्थना सुनिये । मैं याज्ञवल्क्य से 2 दो दुरुह प्रश्न पूँछूगी । यदि यह याज्ञवल्क्य महाशय उनका उत्तर दे सका तो आपमें से कोई कभी इसे जीत नहीं सकता । जैसे जुगनुओं में कोई कितना ही बड़ा हो , सूर्य को प्रकाश में हरा नहीं सकता , इसी तरह ब्रह्मवादी ब्राह्मण को कोई गैर - ब्रह्मवादी हरा नहीं सकता । यदि मेरे प्रश्नों की यह महत्ता आप लोगों को स्वीकार हो - यह उन प्रश्नों का उत्तर दे दे तो आप सब भी हार मान लेने को तैयार हों - तो आप सभी उत्तम द्विज लोग मुझे पूछने की अनुमति प्रदान करें । " " वाचकन्वी गार्गी " पूर्व में शिरःपात के भय से चुप हो चुकी थी , अब दूसरा मौका चाहती थी । सभा में एक मौके के सब अधिकारी थे , पुनः पूछने का अवसर सबकी अनुमति से ही मिल सकता था अन्यथा अक्रम से पूछने पर अन्य जो अब तक पूछ नहीं पाया वह रोषपूर्वक शाप दे सकता था । इसलिये शाप के डर से " वाचकन्वी गार्गी " अत्यन्त विदुषी है , अतः सब ब्राह्मणों ने सहर्ष अनुमति दी " पूछो गार्गी ! " तब उसने उस ब्रह्मसंसद में भूभिका बाँधते हुए याज्ञवल्क्य से पूछने को तैयार हो गयी । इस दिव्य सत्संग का आनन्द अगले सत्संग के क्रम में ले सकेंगे : सावशेष ......

नारायण स्मृतिः

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