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∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! महामुनि याज्ञवल्क्य विदग्ध शाक्ल्य से कहते हैं " शाकल्य ! पापरूप आग से तिलशः जले हुए तुम्हारे बारे में कहीं इन लोगों को शोक न करना पड़े । शाक्ल्य ऐसा न हो कि तुमारी पत्नी विधवा होकर हब आभूषण उतारकर , दीनता भरा चेहरा लेकर , बाँधवों को देगर , लाज छोड़कर दहाड़ मार कर रोती रहे । तुम्हारे मित्र , बन्धु , पुत्रादि शोकसागर में न डूबें । कहीं तुमसे वैरियों का ही सन्तोषलाभ न हो जाये । भूख - प्यास से पीडित, अत्यन्त दुःखी , पूर्ण कष्ट में पड़े हुए तुम्हें कहीं यमराज के नगर का दर्शन न करना पड़े । हे श्रेष्ठ ब्राह्मण ! ऐसा न हो कि तुम कौवे की तरह बलि खाते रहो । तपे देह वाले , अत्यधिक पीड़ित हुए तुम्हें तिलोदक न पीना पड़े । यह तुम्हारी कोमल गात्र आग का या कुत्तों का भक्ष्य कहीं न बन जाये। अपने शिष्यों को " निराचार्य " छोड़कर तुम अब अकेले ही परलोक मत सिधार जाओ । ब्रह्मविद् ! मुझ ब्रह्म से जो द्वेषरूप वृक्ष तुम्हारी चित्तभूमि में बहुत समय से बड़ रहा है वह तुम्हें विषवृक्ष की तरह अनर्थकारी फल न दे देवे । तुम्हारे फूल कहीं अन्त्यजों के हाथ न लगें । हे विप्रेन्द्र ! आदित्य जिसकी जीभ पर हैं , ऐसी मुझ अग्नि से पतंगे की तरह तुम पत आ गिरो।
भाँड़ में बहुत तेज़ अग्नि जल रही होती है तो उसके पास नहीं जाया जा सकता । तब भड़भूँजे उसे हाथ से छूकर इधर - उधर तो कर नहीं सकते इसलिये लोहे की एक बड़ी " कड़छी " - सी रखते हैं जिसमें अंगारे भर कर दायें - बाँयें कि जा सकें । उस कड़छी का दण्डा लम्बा होता है ताकि दूर से आग व्यवस्थित की जा सके । उसी से वे अग्नि छूते हैं न कि अपने हाथों से । इसी तरह जो कोई भी सभासद् ब्राह्मण तुम्हें वाद के लिये प्रेरित - उत्हाहित कर रहे हैं वे बुद्धिमान् हैं , क्योंकि वे स्वयं दूर रहकर तुम्हीं को आग में झोंक रहे हैं , मानो तुम्हें वैसी कड़छी बनाये हुए हैं । ब्राह्मण भी तुम्हें जलने योग्य ही समझ रहे हैं , पर तुम स्वयं इससे बेखबरहो कि अब जलने ही बाले हो , यही दुःख की बात है । यह सभा ही भाड़ है , मैं ईंधनरूप लकड़ी का ढेर हूँ , मेरे ये गुरुदेव सूर्य जलती आग है , ये सभासद यहाँ भड़भूँजे हैं । ब्राह्मणों ने तुम्हें वह काष्ट का बर्तन बना रखा है जिससे आदित्यरूप अग्नि को वे छेड़ रहे हैं । लेकिन तुम हो कि अपनी इस शोचनीय दशा से बेखबर होकर बढ़ - चड़कर विवाद करते ही जा रहे हो ।
नारायण ! बुद्धिमान् याज्ञवल्क्य ने " विदग्ध शाकल्य " को भरसक सावचेत कर दिया पर वह तो काल के फँन्दे में फँसा था ! उसका द्वेष ही बढ़ा । मरणासन्न अपने हितैषी वैद्य से द्वेष कर लेता है । जिस राजा की " श्री " समाप्त हुआ चाहती है वह अपने हितकारी मन्त्री से द्वेष करता है । अभागे का द्वेष राजा से होता है । पापरत व्यक्ति अपने गुरु से द्वेष कर बैठता है । ऐसे ही " विदग्ध " महामुनि याज्ञवल्क्य से द्वेष कर बार - बार उसे अवज्ञादि द्वारा प्रकट किये जा रहा था । उसने सोचा - इस मूर्ख को देखो ! मुझे ऐसे डरा रहा है मानो बच्चों को धमका रहा हो । इसे ख्याल ही नहीं कि मैं सर्वज्ञ हूँ , मुझे किसी से भय नहीं । देहात में , शहरों में , खेतिहरों की बस्तियों में , पहाड़ियों की गाँवों में , सीमाप्रान्तों में , बच्चों ग्वालों और औरतों के बीच जैसे यह अपनी बड़ाई हाँकता रहा है , वैसे ही इस विद्वत् सभा में भी खुद ही अपनी श्रेष्ठता जतला रहा है । { वहाँ तो श्रोता नासमझ होते हैं , बेचारे इसे भेंट - पूजा दे देते हैं पर यहाँ इस आत्मश्लाघा से यह किसे प्रभावित कर पायेगा ? } इसका गुरु सूर्य यदि द्वेष करने वाले मुझे जला सकता तो अब तक क्यों नहीं उसने जला डाला ? वास्तव में तो आदित्य क्या कर सकता है , वह तो " जड - पिण्ड " है । " आदित्य " आदि शब्द और उनके मण्डल आदि अर्थ को छोड़ देवता नाम के कोई चेतन तो हैं नहीं । अगर मान भी लें कि हैं तो कर्मानुसरण के बिना कुछ कर नहीं सकते । मुझ निष्पाप का क्या बिगाड़ेंगे ? कहाँ यह भूमिस्थ विट और कहाँ आकाश में वर्तमान आदित्य ! उससे यह पढ़ आया आदि सब गप्प है । - यों विपरीत विचार रखकर विदग्ध शाकल्य पुनः महामुनि याज्ञवल्क्य से बोला –
याज्ञवल्क्य ! तुमने " कुरु - पाञ्चाल " देशों के ब्राह्मणों को जीत कर अपमानित किया और ब्राह्मणों के लिये घोषित " गोधन " का अपहरण कर ले गये हो । इस विचारहीन कृत्य के फलस्वरूप तुम्हें जलरहित जंगल में अनेक जन्मों तक " ब्रह्मराक्षस " बनना पड़ेगा । यों साहस करने वाले तुमने किस ब्रह्मविद्या का फलपर्यन्त साक्षात्कार किया है, जिसके बल पर ब्राह्मणों की अवज्ञा कर रहे हो ? ।
सर्वात्मा हुए याज्ञवल्क्य ने भी वह ब्रह्मज्ञता दिखाने के लिये जिसे " शाकल्य " समझ सके उस पापमुग्ध " विदग्ध " से कहा " मैं दिशाएँ जानता हूँ । " अर्थात् देवों , प्रतिष्ठाओं सहित दिशाओं का मुझे ज्ञान है , वह उपासना मेरी सम्पूर्ण है , अतः अपने से तादात्म्यापन्न संसार मुझे भास रहा है ।
इस पर " शाकल्य " ने प्रश्न किया : दिशाओं के देवता कौन हैं ? देवताओं की प्रतिष्ठा { कारण } क्या - क्या है ? इन्द्रियों की व विषयों की प्रतिष्ठा क्या है ? ।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने सभी प्रश्नों का उत्तर दिया । श्रुति शब्दों के अनुसार उत्तर का संक्षेप है । { अनुग्नक छायाचित्र का अवलोकन करें । }
नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य ने बताया - 5 पाँचों दिशाओं के देवता मैं हूँ , उन देवरूपों से मैं ही स्थित हूँ । पूर्व - दक्षिण - पश्चिम - उत्तर और ऊर्ध्व दिशाओं के देवताओं के क्रमशः नाम हैं - आदित्य , यम , वरुण , सोम और अग्नि । ये आदित्यादि देव जिनमें प्रतिष्ठित हैं उन्हें सुनो : प्रतिष्ठा का अर्थ है कारण । हिरण्यगर्भ की उपासना से जो व्यक्ति हिरण्यगर्भ बनता है उसकी जो अध्यात्म में { व्यक्तिगत शरीर में } चक्षु आदि इन्द्रियाँ होती हैं वे ही आदित्यादि देवताओं के रूप में परिणत हो जाती हैं । { यह बृहदारण्यकादि उपनिषदों में व्यक्त है } । अतः इन्दियाँ ही देवताओं की प्रतिष्ठा है । आदित्य देवता चक्षु इन्द्रिय में प्रतिष्ठित है । यम देवता श्रोत्र में प्रतिष्ठित है । श्रुति में श्रौत्र के अभिप्राय से प्रयुक्त शब्द है " यज्ञ " , क्योंकि यज्ञविधियों को श्रोत्र से ही ग्रहण किया जाता है और यज्ञ के दौरान भी श्रोत्र सहायक बनता ही है । समष्ठिरूप में देवता बनने वाली रसनेन्द्रिय में ही वरुण प्रतिष्ठित है । रसना को ही श्रुति ने जलवाची " अप् " शब्द से कहा है । सोम देवता निर्दोष मन में प्रतिष्ठित है । मन की दोषरहितता द्योतित करने के लिये ही श्रुतिभवगती ने " दीक्षा " शब्द से मन का उल्लेख किया । अग्नि की प्रतिष्ठा है वागिन्द्रिय । इन्द्रियों की प्रतिष्ठा अर्थात् कारण हैं विषय { जैसा भगवान् श्रीशङ्कराचार्य ने कहा है " विषयस्यैव हि स्वात्मग्राहकत्वेन संस्थानान्तरं करणं नाम " बृहदारण्यक भाष्य 2 . 4 . 11 } । इसलिये –
1 . चक्षु की प्रतिष्ठा - कार्यरूप से स्थिति - शुक्लादि विविध रूपों में समझनी चाहिये ।
2 . श्रोत्र की प्रतिष्ठा सविचार जाननी पड़ेगी : श्रोत्र को श्रुति में यज्ञशब्द से कहा है , क्योंकि यज्ञबोधक वेद श्रोत्रग्राह्य है । उस वेद के प्रतिष्ठाभूत विषय अर्थात् , अर्थ दो प्रकार के दैं । पहला है वाणी आदि का व्यापार , जो क्लेशात्मक है । वैध कर्म वाणी , देह या मन से किये जाने वाली क्रियायें ही हैं और उन्हें करने में क्लेश ही होता है , मेहनत ही पड़ती है । इसी को श्रुति ने " दक्षिणा " शब्द से व्यक्त किया है । ऋत्विजों की मेहनत दक्षिणा से खरीदी जाती है , अतः उस शब्द से उक्त अर्थ में लक्षणा है । इस प्रकार वेद की पहली प्रतिष्ठा हुई कर्म । यह कर्म प्रतिष्ठित है आस्तिकता अर्थात् श्रद्धा में । यही वेद का द्वितीय प्रकार का " अर्थ " है । एवं च जैसे चक्षु रूप में प्रतिष्ठित है , ऐसे ही श्रोत कर्म में और कर्म श्रद्धा में प्रतिष्ठित है ।
3 . क्योंकि अध्यात्म में { हिरण्यगर्भदेह में } जो " रेतस् " है वही अधिदैव में रसगुण वाला जल बनता है , इसलिये रसेन्द्रियरूप जल की रेतस् प्रतिष्ठा है ।
4 . जैसे निर्दोष मन की स्थिति सत्य अर्थ में बतायी है , वैसी ही
5 . वाणी की भी उसी में समझ लेनी चाहिये { क्योंकि अन्यत्र कहा है " जो मन से सोचता है वह वाणी से बोलता है " } । इसीलिये श्रुति में वाक् की हृदयातिरिक्त कोई प्रतिष्ठा , अर्थात् कारण , कहना आवश्यक नहीं सभझा गया । सेरे जल की इकलौती प्रतिष्ठा जैसे समुद्र है ऐसे ही सब स्थानों की - सविषय इन्द्रियों की - और सब स्थानियों की - देवताओं की - प्रतिष्ठा अर्थात् स्थितिहेतुभूत कारण एक हृदय ही है । यहाँ " हृदय " शब्द वहाँ संनिहित अन्तर्यामी अर्थात् मायोपाधिक ब्रह्म का बोधक है । वही ब्रह्म मन के { हृदय के } द्वारा सारे जगत् का कारण बनता है । अध्यात्म मन ही समष्टि हिरण्यगर्भ है , अतः ईश्वर हिरण्यगर्भ द्वारा विराट् बनते हैं यह तात्पर्य है । सावशेष ,...

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