∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! " भुज्यु लाह्यायनि " याज्यवल्क्य मुनि के उत्तर से इतना चकित हुआ कि वह कुछ और आगे पूछना ही न चाहा और " उषस्त चाक्रायण " और " कहोल कौषीतकेय " के बीच बैठकर दोनों को मानो प्रेरित कर रहा है महर्षि याज्ञवल्क्य से कुछ पूछने के लिये ।
मोक्ष के प्रयोजन से प्रवृत्ति तभी हो सकती है जब देहादि के संघात से - शरीर – इन्दिय - मन आदि स्थूल - सूक्ष्मांगक यन्त्र से - विलक्षण आत्मा है , जो बद्ध और मुक्त हो सके । ऐसे आत्मा को समझाने के लिये " उषस्त ब्राह्मण " है , जिसका अब व्याख्यान करेंगे ।
नारायण ! " उषस्त चाक्रायण " नामक मुनि ने जब देख लिया कि " भुज्यु लाह्यायनि " आगे नहीं पूछ रहे तब उन्होंने याज्ञवल्क्य महर्षि का परीक्षण प्रारम्भ किया - हे याज्ञवलक्य ! शास्त्र बताते हैं कि स्वयं ज्ञानस्वरूप होने के कारण ब्रह्म स्वतन्त्र प्रत्यक्ष है , न कि घटादि की तरह जो वृत्ति में प्रकट हुए चेतन के सम्बन्ध से प्रत्यक्ष होते हैं । वह ब्रह्म सबसे भीतरी है - देहादि का द्रष्टा है - अतः वही आत्मा है । किन्तु शास्त्रो का यह कथन संगत नहीं । " सबसे भीतरी होना " और " ब्रह्म होना " अर्थात् अद्वय होना , ये तो धर्म है । इनका विचार तब हो जब पहले इनका योग्य धर्मी सिद्ध हो । शरिरादि - संघात से भिन्न आत्मा हो यह सम्भव तो लगता नहीं । यदि है तो वह जैसे अपरोक्ष हो सके वैसे मुझे समझाओ तब पता चले कि तुम्हारी बुद्धि की कुशलता कितनी है । महर्षि याज्ञवलक्य पहले ही उत्तर दिया " यह आत्मा है । " उनका भाव था स्व - स्वरूप , अत्यन्त निकट , स्वतो भासमान आत्मा की असम्भावना ही कैसे हो सकती है ! " यह " शब्द से निःसीम निकटता ही कहकर उन्होंने आत्मा की अस्तिता प्रसिद्ध की । यदि " उषस्त चाक्रायण " अन्तर्मुख होता तो तुरन्त समझ लेता लेकिन वह उस समय विजिगीषु अतः बहिर्मुख था , इसलिये महर्षि याज्ञवलक्य महाभाग के संक्षिप्त सूचनात्मक उत्तर से उसे संतोष नहीं हुआ । उसने पूछा - " स्थूल देह , सूक्ष्म देह व साक्षी , इनमें से आत्मा कौन है ? " उसका अर्थ था कि दोनों देह तो परिच्छिन्नादि होने से आत्मा नहीं हो सकते और साक्षी नामक पदार्थ प्रमाणसिद्ध नहीं । याज्ञवल्क्य महर्षि ने समझ लिया कि " उषस्त " इस लायक नहीं कि अनुभव का पर्यालोचन कर आत्मा के बारे में असंदिग्ध हो सके । अतः उस पर कृपा कर साक्षी को अनुमान से संभावित करते हुए उन्होंने समझाया - जो तुम्हारे देह में स्थित होकर तुम्हारे प्राण - अपान - उदान - व्यान आदि का सूत्रधार की तरह संचालन करता है वह सबसे भीतरी वस्तु ही देहादि - संघात से अन्य आत्मा है । { विवक्षित अनुमान तार्किक तरीके से यह है : प्राणादि पर नियमन करने वाला , प्राणादि से भिन्न है क्योंकि उन्हें प्रवृत्त करता है , जो जिसे प्रवृत्त करता है वह उससे भिन्न होता है, जैसे कठपुतलियों को प्रवृत्त करने वाला सूत्रधार । यह अनुमान आत्मा को संभावित करता है , प्रमाण नहीं क्योंकि स्वतः प्रकाश आत्मा अप्रमेय बताया गया है । } एक खिलौना आता है जिसमें बच्चे धागों द्वारा बन्दरों को नचाते हैं । दर्शक समझता है कि सूत्रों से बन्दर नचाने वाला सूत्रधार बन्दरों से अलग है । इसी प्रकार सबसे भीतरी आत्मा भी देहादि से हमेशा अलग ही है । जैसे खेल बच्चा खेलता है , ऐसे ही शरीरादि का संचालन भी बच्चे की तरह ही जो अज्ञानी है वही करता है । यों स्पष्ट समझाने पर भी तात्पर्य से बेखबर " उषस्त चाक्रायण " ने मुनियों में श्रेष्ठ महामाग याज्ञवल्क्य जी से फिर प्रश्न किया ।
नारायण ! उषस्त चाक्रायण ने पूछा - याज्ञवल्क्य ! तुमने आत्मा का स्पष्ट
रूपसे वर्णन मुझे नहीं सुनाया । जैसे सींग को पकड़ कर सामने लाकर दिखाते हैं " यह गाय है " या कान पकड़कर दिखाते हैं " यह घोड़ा है " यों साफ - साफ आत्मा का प्रदर्शन करो । मैंने पूछा था कि संघात से विलक्षण आत्मा स्पष्ट कैसे है और जवाब तुमने दिया " प्राणादि का व्यापार कराने वाला कोई है ! " व्यापार कराने वाला तो संघात ही प्रतीत होता है , इससे अन्य नहीं । { किं च प्रयोजक भी सव्यापार ही देखा गया है , अर्थात् जो अन्य में क्रिया का हेतु बने उसे स्वयं किसी - न - किसी क्रिया वाला होना पड़ता है जैसे सेवकों का प्रयोजक राजा स्वयं भी कुछ न करता ही है । आत्मा भी यदि प्राणादि का प्रयोजक हो तो उसे सक्रिय होना पड़ेगा , जिससे उसकी निष्क्रियता बताने वाले वचन अप्रमाण हो जायेंगे । इसलिये " जो प्राणादि का प्रेरक वह आत्मा " यह लक्षण ही ग़लत है । } अतः शास्त्रोक्त स्वरूप वाले आत्मा को तुम यों बताओ कि हाथ में रखे आँवले - सा अर्थात् "हस्तामलकवत्" वह स्पष्ट हो जाये ।
रूपसे वर्णन मुझे नहीं सुनाया । जैसे सींग को पकड़ कर सामने लाकर दिखाते हैं " यह गाय है " या कान पकड़कर दिखाते हैं " यह घोड़ा है " यों साफ - साफ आत्मा का प्रदर्शन करो । मैंने पूछा था कि संघात से विलक्षण आत्मा स्पष्ट कैसे है और जवाब तुमने दिया " प्राणादि का व्यापार कराने वाला कोई है ! " व्यापार कराने वाला तो संघात ही प्रतीत होता है , इससे अन्य नहीं । { किं च प्रयोजक भी सव्यापार ही देखा गया है , अर्थात् जो अन्य में क्रिया का हेतु बने उसे स्वयं किसी - न - किसी क्रिया वाला होना पड़ता है जैसे सेवकों का प्रयोजक राजा स्वयं भी कुछ न करता ही है । आत्मा भी यदि प्राणादि का प्रयोजक हो तो उसे सक्रिय होना पड़ेगा , जिससे उसकी निष्क्रियता बताने वाले वचन अप्रमाण हो जायेंगे । इसलिये " जो प्राणादि का प्रेरक वह आत्मा " यह लक्षण ही ग़लत है । } अतः शास्त्रोक्त स्वरूप वाले आत्मा को तुम यों बताओ कि हाथ में रखे आँवले - सा अर्थात् "हस्तामलकवत्" वह स्पष्ट हो जाये ।
नारायण ! इस तरह "उषस्त चाक्रायण " द्वारा पूछे जाने पर महाभाग ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य मुनि ने स्मित हास्य अर्थात् मन्द - मन्द मधुर मुस्कान करते हुए जवाब दिया - " संघातभिन्न आत्मा समझाओ " यों तुम जिसके बारे में पूछ रहे हो वह तुम्हारा , प्रश्न पूछने वाले का , आत्मा है । वह निःसंदेह अपरोक्ष है क्योंकि " मैं " इस मानस अनुभूति का वही विषय है , उसे ही " मैं " समझा जा रहा है ।
उषस्त चाक्रायण ने महामुनि वेदज्ञ याज्ञवल्क्य से कहा - " मैं " तो शरीर , इन्द्रिय , बुद्धि आदि अनेक समझे जाते हैं । इनमें से आत्मा कौन है यह बाताओ ।
नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि ने उषस्त चाक्रायण को उत्तर दिया :- निरस्त - अज्ञान महात्माओं को आत्मा जैसे अपरोक्ष है वैसा मैं कहूँ तो भी बहिर्मुखी होने से तुम समझ नहीं सकते । अगर तुम इन्द्रियों से आत्मदर्शन चाहते हो तब तो अत्यन्त असंगत हैं ! विभिन्न इन्द्रियों द्वारा फैलने वाली बुद्धि आत्मप्रकाश ग्रहण करती है , उसे कारण बनाकर यह आत्मा भूत - भौतिक सभी कुछ जानता है , बुद्धि को भी जानता है । जिसके द्वारा सब जाना जाता है उस बुद्धि को भी जो जानता है उसे किस साधन से विषय करोगे ? बताओ । घटद्रष्टा अर्थात् घड़े को देखने वाला नेत्र को घट अर्थात् घड़ा नहीं देखता । ऐसे ही बुद्धियों को देखने वाले को बुद्धि विषय नहीं कर सकती । { विभिन्न इन्द्रियों से सम्बद्ध होने पर बुद्धि विभिन्न नाम व कर्म पा जाती है जैसे दृष्टि , श्रुति , घ्राति आदि । अतः " बुद्धियों को " यों बहुवचन कहा । } कुछ इन्द्रियाँ देह से बाहर की चीज़ों को ही विषय करती हैं व कुछ भीतरी को भी विषय कर लेती है । दोनों तरह की इन्द्रियों के सम्बन्ध षे दृष्टि, श्रुति आदि वाली जो बुद्धिवृत्तियाँ हैं , उनका जो द्रष्टा अर्थात् प्रकाशक है , वह उनके द्वारा प्रकाशित हो नहीँ सकता । वही तुम्हारा आत्मा है जो विनाश से रहित और संघात से अन्य है ।
नारायण ! शंका होती है आत्मा से अन्य जो बुद्धि आदि हैं वे सत्य हों तो आत्मा सर्वान्तर नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसा कुछ होता नहीं जो सभी सत्य पदार्थों के अन्दर हो । आकाश को भी कारण मानने पर ही अन्यों के अन्दर कह सकते हैं , अन्यथा ठोस वस्तु में " यहाँ कोई जगह नहीं " ऐसा अवाधित ही व्यवहार होता है । और यदि बुद्धि आदि सत्य नहीं तो आत्मा सबके भीतर कैसे कहा जायेगा , जब " सब " कुछ है ही नहीं ? इसका समाधान महर्षि याज्ञवल्क्य करते हैं - इस साक्षात् अपरोक्ष आत्मा से अन्य देह , बुद्धि , इन्द्रियादि जो कुछ प्रतीत होता है वह जड होने से घटादि की तरह जन्म - नाश वाला है । अर्थात् मिथ्या है । रस्सी पर कल्पित साँप , जलधारा , दण्ड , माला आदि सबके भीतर तो रस्सी ही है । ऐसे ही आत्मा पर सारा संसार कल्पित होने से वह सर्वान्तर है। जन्म - नाश वाला होना इस बात का द्योतक है कि वस्तु मिथ्या है क्योंकि जिन्हें मिथ्या जानते हैं उन स्वप्न , इन्द्रजाल आदि का आरम्भ व समापन देखा जाता है ।
नारायण ! " उषस्त चाक्रायण " भी आत्मवेत्ता थे , अतः समझ गये कि याज्ञवल्क्य चरम सत्य से पूर्ण परिचित हैं और उसका समुचित अभिव्यंजन करने में सक्षम हैं । अतः वे "कहोल" के पास जाकर चुप - चाप बैठ गये ।
नारायण ! आत्मा का वर्णन हो चुका । आत्मा का मोक्ष जिस विज्ञान से होता है उसका और साधनों का निरुपण करना बाकी है , जिसे अब समझायेंगे । " कहोल कौषितकेय " बुद्धिमान् ब्राह्मण थे । उन्होंने याज्ञवलक्य महर्षि से पूछना आरम्भ किया । पहले उन्होंने पूर्वोक्त आत्मा के स्वरूप का अनुवाद किया ताकि स्पष्ट रहे कि वे उसी संदर्भ में पूछ रहे हैं। फिर प्रश्न रखा - याज्ञवल्क्य ! अभी जिस आत्मा को बताया वह ब्रह्म कैसे होता है? यह आत्मा तो संसारधर्मों वाला है , भूखा - प्यासा , शोक - मोह से ग्रस्त , जन्म - मरण वाला है । इससे विपरीत ब्रह्म है , जिसमें भूख आदि कोई संसारधर्म कभी नहीं है । ऐसे आत्मा व ब्रह्म का तादात्म्य { अभेद } कैसे हो सकता है ? महर्षि कहोल से याज्ञवल्क्य बोले - याज्ञवल्क्य महर्षि क्या बोले इसे अगले क्रम में निरूपण करेंगे :
सावशेष ....
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