∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! सभी ब्राह्मणों से अनुमति पाकर " वाचकन्वी गार्गी " पुनः भूभिका बाँधते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछना आरम्भ किया ।
पहले वाचकन्वी गागी दिखाती है कि सर्वज्ञ याज्ञवल्क्य से वाद करने के लिये वह योग्य प्रतिपक्षी है : सभी लोग जानते हैं कि मैं " वचक्नु ऋषि " की कन्या " गार्गी " हूँ । { केवल याज्ञवल्क्य ही प्रसिद्ध नहीं ; मैं भी हूँ ! } यह तो प्रायः देखा ही जाता है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बौद्धिक क्षमता अधिक होती है । अविवेक , धीरज , कामना और क्रोध भी स्त्रियों में पुरुषों से ज्यादा होता है । स्त्री होने से यों ही मेरी बुद्धि पुरुषों से { अतः याज्ञवलक्य से भी } अधिक है और फिर मैंने ज्ञान सरस्वती की समानता प्राप्त की हुई है, इसलिये स्त्रियों में भी मुझे सर्वाधिक बुद्धिमती समझ लीजिये । { अविवेकादि पर मैंने विजय पा रखी है , स्त्रीसुलभ वे गुण मुझमें नहीं है । } मैं कोई शिल्पशास्त्रादि तुच्छ जानकारियों से स्वयं का आधिक्य नहीं कह रही , वरन् तत्त्वज्ञान से कह रही हूँ । " नपुंसक , स्री , पुरुष मैं ही हूँ " यों बाधसामानाधिकरण्य से सर्वात्मा का अनुभव ही परमार्थतः पौरुष है और मै अपने से भिन्न सारे जगत् को इस पौरुष से हीन देख रही हूँ ।
अपने हृदय में विद्यमान आनन्दरूप अव्यय स्वप्रकाश परिपूर्ण तत्त्व को जो नहीं जाने उसे " नपुंसक " समझना चाहिये , भले ही वह दीखता पुरुष हो । स्त्री भी वैसा ही व्यक्ति है क्योंकि उसका मालिक उससे अन्य होता है , जैसे स्त्री का पति स्त्री से अन्य होता है । चाहे मैं पीन पयोधरों वाली हूँ पर मैं स्त्री नहीं क्योंकि मेरा परमेश्वर मैं स्वयं हूँ । जैसे वारांगना का उपभोग वेश्यागमी करते हैं , ऐसे ही अज्ञानी व्यक्ति काम , क्रोध आदि द्वारा आक्रान्त रहता है , अतः वह स्त्री ही नहीं वारांगना - सा नीच है । मैं किसी तरह ऐसी नहीं हूँ । स्त्री गर्भधारण करती है ; यह बात भी अज्ञानी व्यक्ति में घटती है - पुरुषसम्पर्क से जैसे ललना गर्भधारण करती है , ऐसे ही काल - रूप पुरुष के सम्बन्ध से कामातुर अज्ञानीरूप स्त्री रेतस् रूप गर्भ धारण करता है । { अर्थात् सकाम पुरुष यौवनादि काल में रेतस्वी होता है । रेतस् भी गर्भ ही है , यह " ऐतरेय " आदि उपनिषदों में स्पष्ट है। निष्काम की धातुपाकप्रक्रिया से ओज निष्पन्न हो जाता है , अतः गर्भधारण के लिये कामातुर को योग्य कहा । यहाँ - अज्ञान - निन्दा में तात्पर्य है , अतः " सभी अज्ञ स्त्री होते हैं " इस व्याप्ति का निर्वीर्यों में व्यभिचार इत्यादि शंका नहीं करनी चाहिये । } मुझमें ऐसा स्त्रीत्व नहीं है । चढती जवानी का जोश नियन्त्रित रखना अति कठिन होता है ; मैं अभी भरी जवानी में हूँ , पर युवकों के मध्य स्थित रहने पर भी मुझमें किंचिद् भी कामाविकार नहीं आता । आप सबके मध्य मैं सर्वथा नग्न हूँ मानो किसी जंगल में होऊँ । विप्र लोग मेरी ओर देखने में संकोच कर रहे हैं , क्योंकि उन्हें डर है कि स्वयं उनमें विकार उत्पन्न हो सकता है ! मैं तो आप सभी को देखती हुई अपने हाथ से , अंगुली से आप का स्पर्श भी कर लेती हूँ फिर भी देहाभिमान न रह जाने से तन्मूलक कामादि कोई दोष मुझमें प्रकट नहीं हो सकता ।
लोक में भी स्त्री उसे ही समझना चाहिये जिसमें " स्त्यै " का अर्थ घटता हो। मुझमें वह घटता नहीं तो मैं स्त्री कैसे हो सकती हूँ ? " मैं " अभिमान और " मेरा " अभिमान के विषयों के वाचक शब्दों का समूह " स्त्यै " धातु का अर्थ है , उनका स्वयं के लिये जो प्रयोग करे वह स्त्री है , यही मनीषियों का कहना है । वे शब्द हैं जैसे - मैं वधू हूँ , सुन्दर हूँ , जवान हूँ , दर्शनीय शरीर वाली हूँ , मेरे समान और कौन नारी है ? यह मेरे पति है , यह पुत्र है, मेरे घर में धन - धान्य है , मैं बाँझ हूँ , मेरा कुटुम्ब श्रेष्ठ है - इत्यादि । मायारूप पिशाची के सम्बन्ध से आत्मज्ञानविहिन लोग ही ऐसे शब्द अपने लिये प्रयोग करते है । वे लोग ही स्त्री कहे जाने योग्य हैं ।
हे उत्तम द्विज ! शरीर से चाहे जैसे हों , पुरुष कहलाने योग्य तो वे ही हैं जो आत्मज्ञान से भरे - पूरे हैं । रूपों का भेद कल्पित है , वह वास्तविक एकता का विरोध नहीं कर पाता। नट कभी पुरुषवेश में सामने आता है तो स्त्रियों का मन हर लेता है और क्षण - भर में स्त्रीवेश धारण कर आता है तो पुरुष उस पर मुग्ध हो जाते हैं । कल्पित दोनों रूपों का अखण्ड नट से कोई विरोध नहीं । ऐसे ही आनन्दरूप महेश्वर ही एक परिपूर्ण तत्त्व है , पुरुष है । वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा से पुरुष या स्त्री का देह ग्रहण करता है । ग्रहण किये देहों से महेश्वर के अद्वैत स्वरूपमें अन्तर नही । स्वप्न में स्वप्न - द्रष्टा के विविध रूप बन जाते हैं जैसे पुरुष , स्त्री , हाथी , घोड़ा आदि । ऐसे ही जगत् में दीखने वाले भेद माया से उपलब्ध है । स्वप्नद्रष्टा - स्थानीय आत्मा है ।
इस प्रकार आत्मज्ञानरूप पौरुष मुझ में है , भले ही ललना के शरीर में मैं उपस्थित हूँ । मेरी सर्वज्ञता निरपेक्ष है क्योंकि निरपेक्ष सर्वात्मा को मैं जानती हूँ । तुम { याज्ञवलक्य } स्वयं को सर्वज्ञ समझते हो और कई ब्राह्मणों को जीत भी चुके हो । मैं तुमसे वादरूप युद्ध करने आई हूँ । वाणीरूप धनुष पर 2 दो बाणों से तुम पर प्रहार करूँगी । वार सहने के लिये तैयार हो जाओ और अगर भयभीत हो तो पराजय स्वीकार कर लो । " दिवोदास " का पुत्र " प्रवर्दन " शूरता में अपने पूर्वजों के समान हैं , क्षत्रियोचित वृत्ति से रहता है , अतः मौके पर इन्द्र से भी लड़ने को तैयार हो जाता है । या इन मौजूद "विदेहराज जनक " को ही लो ; यह भी सुवर्ण , मणि , रत्नादि से सज्जित अपने सीधे धनुष पर तुरन्त प्रत्यञ्चा चढ़ा कर और हाथ में तीखे लोहे के बाण लेकर उन्हें धनुष पर कान तक खींचकर युद्ध में क्षत्रियों पर छोड़ता है , तब यह वीर आक्रोशपूर्वक शत्रुओं की व्यथा का कारण बन जाता है। इसी तरह मैं धैर्यपूर्वक यहाँ उपस्थित हूँ , तुम्हें बाणतुल्य प्रश्नों से व्यथातुल्य निरुत्तर करने के लिये । हे द्विज ! यदि ज्ञान हो तो मेरे प्रश्नों का उत्तर देना ।
नारायण ! महामुनि याज्ञवल्क्य ने तुरन्त कहा " पूछ गार्गी । "
नारायण ! तार्किक होने का अभिमान त्यागकर शास्त्रजिज्ञासा के अनुकूल ढंग से " वाचकन्वी गार्गी " ने प्रश्न रखा –
" जो सूत्रात्मा द्युलोक से { उपरी ब्रह्माण्ड - कपाल से } ऊँचा बताया गया है " भू " से { निचले ब्रह्माण्ड - कपाल से } नीचे बताया गया है , " द्यु " व " भू " के बीच भी बताया गया है , जिसका रूप यह सारा प्रपञ्च है जिसमें अतीत, आगामी और वर्तमान सभी का निवेश है , वह सूत्र किसमें ओत - प्रोत है?" यद्यपि पूछी बात वही है जिसे गार्गी ने पहले मौके पर जानना चाहा था तथापि वहाँ तर्क से जानने का प्रयास था , जिसे छोड़कर अब शास्त्रीय ढंग से प्रश्न कर रही है । अतः पूर्व प्रश्न की अपेक्षा यहाँ शब्दों का अन्तर है क्योंकि प्रजापति - शब्द नहीं रखा है । सूत्र और उसके आधाररूप अव्याकृत का यहाँ प्रश्न है । अव्याकृत ही नहीं सूत्रात्मा भी तर्क से समधिगम्य नहीं है - इस तात्पर्य से सूत्र को बिना छोड़े सूत्रसम्बद्ध अव्याकृत को पूछा है । इस प्रकार समान विषयक वही प्रश्न होने पर भी प्रश्न के आधार का अन्तर है , जिससे यह अतिप्रश्न नहीं , अतः महर्षि उत्तर देते हैं ।
नारायण ! शास्त्रार्थ की मर्यादानुसार " मुनिवर वाजसनेयक " { याज्ञवल्क्य } ने पहले गार्गीप्रोक्त वाक्य को यथावत् दुहराया फिर जवाब दिया । " हे गार्गी ! तुमने " जो " आदि से जिस कार्य का उल्लेख किया वह आवरण विक्षेप शक्तियों का विक्षेपात्मक रूप है । कारणब्रह्म का जो आवरणात्मक स्वरूप है , अव्याकृत - आकाश कहलाने वाला " मूलाज्ञान " है , वही विक्षेपों का कारण है , अतः ये सर्वत्र व्याप्त विक्षेप हमेशा अपने उस कारण में रहते हैं ।
नारायण ! यह सुनकर वाचकन्वी गार्गी ने याज्ञवल्क्य को प्रणाम कर कहा " हे विप्र ! मन एकाग्र कर लो ताकि मेरा दूसरा प्रश्न समज सको । " मुनि ने कहा " पूछ गार्गी । " किन्तु गार्गी ने पूर्वोक्त प्रश्न ही फिर से पूछ दिया ! तो महामुनि ने भी पुनः वही उत्तर दिया , बस इतना ही अन्तर किया कि पहले उन्होंने कहा था " वह आकाश में ओतप्रोत है " और अब कहा " वह आकाश में ही ओतप्रोत है । " वाचकन्वी गार्गी ने वही सवाल फिर क्यों पूछा था ? उसके प्रश्न का तात्पर्य था - जैसे घर खम्भों पर और दीवारों पर स्थित रहता है क्या ऐसे ही " सूत्रात्मा " भी अव्याकृत - आकाश में एवं अन्य भी किसी में ओत - प्रोत है ? महर्षि याज्ञवलक्य ने " ही " जोड़कर जवाब की पुनरुक्ति की । उसका तात्पर्य है कि घर की तरह " सूत्रात्मा " 2 दो पर आधारित नहीं है वरन् जैसे बादल अकेले आकाश पर टिके होते हैं , ऐसे ही सिर्फ कारणभूत अव्याकृत - आकाश पर सूत्र आधारित है । तब विदुषि ने दूसरा प्रश्न याज्ञवल्क्य महर्षि के समक्ष उपस्थापित किया : दूसरा जो प्रश्न वाचकन्वी गार्गी ने उपस्थापित किया उसे अगले क्रम के सत्संग में प्रकाशित करेंगे : सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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