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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑫ ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! वाचकन्वी गागी महामुनि याज्ञवल्क्य के समक्ष अपना दूसरा प्रश्न उपस्थापित करती है - " याज्ञवल्क्य ! वह यह आकाश कहाँ ओत - प्रोत है ? " उसका मनोभाव था कि अव्याकृत का अधिष्ठान तो आत्मतत्त्व है जो वाणी का अविषय है । यदि वाणी से परे होने के कारण उसे याज्ञवल्क्य कह नहीं पाया तो " अप्रतिभा " नामक निग्रहस्थान से ग्रस्त माना जायेगा और कहीं उसको वाणी से परिच्छन्न करने लगे गया तो अवाच्य - वदनरूप विरुद्धकथन से " विप्रतिपत्ति " नामक निग्रहस्थान में फँस जायेगा । यों उभयतः पाशा रज्जु फेंकने जैसा दाव था । निग्रहस्थान उन दोषों को कहा जाता है जिन्हें तर्कशास्त्र में पराजय का हेतु माना गया है।
नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य साम्प्रायिक शिक्षा पाये हुए थे , अतः जानते थे कि शास्त्र का अनुशरण करते हुए पूर्वाचार्यों ने जैसा कथन किया है वैसे कथन से उस अकथनीय को भी शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है , इसलिये निडर हो उन्होंने विस्तार से उत्तर दिया : हे गार्गी ! अव्याकृत रहता है इस अक्षर आत्मा में , जो साक्षाद् अपरोक्ष है , सभी लोगों की बुद्धियों का साक्षी है । " " अक्षर " मैं उसे ही कह रहा हूँ जिस पर यह " मूलाधाररूप " आकाश विद्यमान है । जीव - ईश्वर इस विभाजन से निरपेक्ष चैतन्य ही अज्ञान का आश्रय तथा विषय है । आत्मस्वरूप सुख क्योंकि अविनाशी है इसलिये आत्मा अक्षर है । जैसे घड़ा लड्डू आदि से स्थूल व पर्वतादि से सुक्ष्म होता है , ऐसे ही जो भी कुछ स्थूल या सूक्ष्म है उस सभी से आत्मा विलक्षण है , न वह सापेक्ष स्थूलता वाला है और न सापेक्ष सूक्ष्मता वाला । तिनके या तालवृक्ष { ताड का वृक्ष } की तरह आत्मा सापेक्ष ह्रस्वता या दीर्घता वाला नहीं है । यह आग जैसा लाल नहीं , पानी जैसा स्निग्ध नहीं और न छाया जैसा है , जैसी भूमि काली प्रतीत होती है । आँखों पर मानो रुकावट डालने वाले अंधेरी की तरह आत्मा तमाल की श्यामलता वाला नहीं है । { एक काले तने वाला वृक्ष तमाल कहलाता है । } आत्मा गतिशून्य होने से वायुविलक्षण है और निश्छिद्र होने से आकाश जैसा नहीं है । तेज मूर्त होने से संग वाला है जबकि निःसंग अतः अमूर्त होने से आत्मा तेजोरूप नहीं । रस और गन्ध से रहित वह तत्त्व न जल है , न भूमि । ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ , मन और सब जानने वाली प्रकाशतुल्य बुद्धि भी अक्षर का स्वरूप नहीं हैं । अतःकरण के ही रूप जो अहङ्कार और चित्त तथा क्रियाशक्ति रूप प्राण - ये भी इसका स्वरूप नहीं हैं । मोक्ष तक बना रहने से , लोकांतरगामी होने से , स्थूलदेह की अपेक्षा प्रधान होने से सूक्ष्म - नामक शरीर जो " मुख " कहलाता है , वह भी आत्मा का स्वरूप नहीं है । जो अविद्या है वह " मात्रा " कही जाती है , वह भी इसका स्वरूप नहीं है। मन्ता अर्थात् मनन का साक्षी आत्मा है तो अद्वितीय , फिर भी क्योंकि अविद्या उसे परिच्छिन्न कर देती है , जीव ईश्वर विभाग वाला बना देती है इसलिये उस अविद्या को " मात्र " शब्द से भी कहते हैं । आत्मा यदि सिर्फ भीतरी होता तो बाहरी को कौन जानता ? यदि वह केवल बाहरी होता तो भीतरी को कौन जानता ? संसार में अन्दर - बाहर जो कुछ है उसे यह सबका साक्षी अक्षर आत्मा जानता ज़रूर है इसलिये निश्चय ही इसमें बाहरी - भीतरीपन नहीं है । इससे स्पष्ट है कि जीववाचक "त्वम्पद" का यह लक्ष्यार्थ है । " तत्पद " का भी लक्ष्य जो परम आत्मस्वरूप है , वह न भोग करने वाला है और न भोगा जाने वाला । नभ में बादलसमूहों की तरह , प्रकाशरहित स्थल में अँधेरे की तरह , माला में साँप की तरह यह सारा दृश्य उस अक्षर पर अध्यस्त है ।
नारायण ! शास्त्रोक्त रीति से अक्षर का स्वरूप समझा देने पर भी सामान्य मति वाले को वह सही - सही समझ नहीं आता अतः कूपाकर श्रुतिमाता ने अन्तर्यामी के चिन्हों का प्रदर्शन किया है कि माया उपाधि वाले अन्तर्यामी का परिचय मिल जाने पर उसके लक्षणों से उपलक्षित अक्षर भी बुद्धिस्थ हो जायेगा । लक्षण स्वसापेक्ष के होते हैं तथा जब वे स्वनिरपेक्ष की भी प्रमा में उपयोगी हों तो उसके उपलक्षण बन जाते है । काक वाले गृह का लक्षणभूत काक ही गृह का उपलक्षण हो जाता है । उन चिह्नों को महाभाग महर्षि याज्ञवल्क्य ने व्यक्त किया –
हे गार्गी ! इस जगत् के व्यवहारों के प्रवर्तक दीप्तिमान सूर्य व चन्द्र इस अक्षर परमात्मा के आज्ञावशवर्ती हैं जैसे नियमित चेष्टा करने वाले कर्मचारी राजादि के प्रशासन में रहते हैं। सब प्राणियों को धारण किये हुए -
" द्यु " व " भू " लोक इस अक्षर द्वारा ही टिकाये रखे हैं , जैसे बालक पहने हुए कपड़ों को सहारा दिये रहता है । भार आदि रहने पर भी लोक गिर नहीं पड़ते तो अवश्य किसी ने इन्हें धारण किया है ; वह अक्षर ही है । जैसे राजा प्रदेशों के अधिकारी नियुक्त करता है , ऐसे ही निमेष से संवत्सर तक के रूपों वाला यह प्रसिद्ध काल प्रशासक अक्षर से नियुक्त हुआ ही सब पदार्थों की आयु आदि गिनते हुए कार्यरत हैं ।
हे गार्गी ! हिमाच्छन्न पर्वतों से निकली विविध नदियाँ सभी दिशाओं में नियमित रूप से बह रही हैं और प्राणियों को सुख दे रही हैं । यही पर्याप्त प्रमाण है कि सर्वप्रशासक अक्षर जगन्नियन्ता है । दान , होम , स्वधाकार आदि शास्त्रीय कूत्यों में तत्पर लोगों का सत्पुरुष , देवता और पितर समाश्रयण लेते हैँ , जिससे निश्चित है कि कर्मफलों का प्रदाता अक्षर है । यदि ऐसा न होकर सत्कर्म व्यर्थ होते तो जुआ आदि में धन गँवाने वाले की तरह कर्मठ जन भी शिष्टादि से निन्दा ही पाते । देवता अपनी सामर्थ्य से जीविकोपार्जन में सक्षम हैं फिर भी जैसे रोजगार चाहने वाले लोग राजा का सहारा लेते हैं ऐसे ही कर्मानुष्ठाता मनुष्यों पर आश्रित रहते हैं । यही स्थिति पितरों की है । अपनी अपेक्षा निकृष्ट जो मानवयोनि वाले , उनके भरोसे रहना यह देवताओं व पितरों में तभी हो सकता है जब इन्हें ऐसा करना अनिवार्य हो , किसी नियामक ने यही विधान बना रखा हो । अन्यथा कौन ऐसी हीन वृत्ति से जीवन चलायेगा ! यह सब अक्षर को सिद्ध करता है ।
हे गार्गी ! यों यह सारा संसार उस अक्षर के शासन में रहता है जिसमें आकाश को स्थित बताया है । यदि इस अक्षर को जाने बिना बहुत समय तक याग - होम - तप आदि कर्म किये जाते रहें फिर भी उनका फल अत्यन्त शीघ्र ही समाप्त हो जाता है । उस प्रभु ने ही यह नियम बना रखा है कि उसका अज्ञान रहते सभी कर्म " क्षयिष्णु " फल वाले हों । उस महादेव की सत्ता की असम्भावना कहाँ । इसी - वर्तमान - देह द्वारा श्रवणादि सम्पन्न कर जो अक्षर को साक्षात्कार कर यह शरीर छोड़ता है वही इस संसार में ऐसा है जिसने वह सब कर लिया जो करने योग्य है । ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ ही मुख्य ब्राह्मण है जिसका उल्लेख " कहोल मुनि " को समझाते हुए किया था ।
नारायण ! इस अक्षर का अनुभव पाने के उपाय अभी हाल ही में " कहोल मुनि " को सुनाये हैं जिन्हें सभी ने सुना है , अतः उन्हें पुनः कहना अनावश्यक है ऐसा मानकर प्रातःस्मरणीय महर्षि याज्ञवल्क्य ने 
" वाचकन्वी गार्गी " को उपायोपदेश अलग से नहीं किया। वे उपाय क्या हैं? इसे अगले क्रम के सत्संग में उपस्थापित अवश्य करेंगे : सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

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