∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि " जरत्कारव " को बताते हैं कि देश , काल आदि के सम्बन्ध से कर्म का फल करोड़ों गुणा बढ़ जाता है , जैखे खेत की जमीन उपजाऊ हो तो बरसात में बीज की बुआई की हो तो धान अधिका मात्रा में मिलते हैं जबकि मौसम व जमीन के अन्तर से उतनी ही मेहनत का फल कम होता है । { अविमुक्तक्षेत्र काशी जी आदि देश में , व्यतीपाद आदि काल में , वेदज्ञ ब्राह्मणादि निमित्त से किया पुण्य अधिक फल देगा जबकि अन्यत्र उसी कर्म का फल सामान्य होगा । ऐसे ही पवित्र तीर्थों में , देवालयों में , ब्रह्मज्ञों की संनिधिमें किये पाप भी करोड़ों गुणा अधिक दुःख देते हैं । } ब्याज कमाने वाले का धन - धान्य आदि संग्रह जैसे दिनों - दिन बढ़ता जाता है ऐसे ही देहाभिमानी का कर्मसंचय पतिपल अधिक होता जाता है । वट का बीज छोटा - सा होता है पर महान् वृक्ष पैदा कर देता है । ऐसे ही पुण्यपाप हैं तो सूक्ष्म पदार्थ लेकिन बड़े - से - बड़े सुख - दुःख उन्हीं से पैदा होते हैं । { जैसे बीज में वृक्ष प्रत्यक्षसिद्ध नहीं अनुमेय है , ऐसे ही कर्म से फल शास्त्रज्ञेय है । बीज तत्काल वृक्ष बनता नहीं , कर्म भी प्रायः तत्काल फल देते नहीं । बीज मिट्टी जल आदि सहायक चाहता है , कर्म भी भोग्य आदि सहायक चाहता है । बीज भूँजा जा सकता है , कर्म भी ज्ञानाग्नि से दग्ध किया जा सकता है । इत्यादि मसमातयें समझ लेनी चाहिये । } ।
नारायण ! इस प्रकार वेदज्ञ महर्षि याज्ञवल्क्य महाभाग ने जब शास्त्रीय रहस्य को उपपत्ति आदि से सु - स्पष्ट कर दिया तो " महामनि आर्तभाग " ने " याज्ञवलक्य महर्षि की उस महा ब्रह्मसंसद में प्रशंसा की और उन्होंने भी सूक्षार्थक प्रश्न पूछने और उसका उत्तर समझने में कुशल होने से " जारत्कारव अर्थात् की प्रशंसा की । प्रश्न - उत्तर द्वारा उन दोनों वेदज्ञश्रेष्ठों ने घोषणा की कि कालादि कारण भले ही बहुत से होते हैं पर फलकाल में भी निर्णायक भूमिका निभाने वाला कर्म ही प्रधान है । इस प्रकार प्रश्न - उत्तर की गम्भीरता समझते हुए उन्होंने न केवल कर्म की वरन् एक - दूसरे की भी प्रशंसाकी । उत्तर से सन्तुष्ट " महामुनि आर्तभाग " अर्थात् जरत्कारव मुस्कुराते हुए चुप हो गया पर " भुज्यु लाह्यायनि " की और यों देखकर कि वह कुछ पूछने को प्रेरित हो ।
नारायण ! उन दो दिग्गजों { ऋत्विक आश्वल और आर्तभाग जरत्कारव पर विजय हासिल कये हुए "महात्मा याज्ञवल्क्य महाभाग " ने " भुज्यु लाह्यायनि " ने एक ऐसा प्रश्न पूछा जिसका अर्थ लोक में प्रसिद्ध नहीं । यह सवाल कुटिल अभिप्राय से पूछा गया था । { भुज्यु लाह्यायनि का अभिप्राय था कि ऐसे रहस्य सार्वजनिक करना दोषावह है , अतः याज्ञवल्क्य यदि बता भी देगा तो उसे पाप लगेगा । पूर्व प्रश्न की तरह एकान्त में जाकर बताना चाहेगा तो बार - बार समाज से हटकर उत्तर देने पर समाज में स्थित विद्वान् नाराज होकर शाप देंगे । } ।
नारायण ! " भुज्यु लाह्यायनि " ने पूछा - याज्ञवल्क्य ! हम वेदाध्ययन के लिये " मद्र देश " में विचरण कर रहे थे । उस समय " काप्य पतञ्जल " के घर हमने एक अद्भुत वृत्तांत देखा । काप्य पतञ्जल की पुत्री पर अग्निदेव का आवेश था जैसे भूतावेश हो जाता है । वही अग्नि गन्धर्व शब्द से भी व्यवहृत है । उस देवता से हम सभी आगन्तुकों ने पूछा " तुम कौन हो ? " तो उपस्थित ब्राह्मणों को उसने अपना परिचय " सुधन्वा आङ्गिरस " बताया । गन्धर्वश्रेष्ठ से हमने कर्मफलों के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा की , जिसका हमें उचित उत्तर प्राप्त हुआ । लोकों का परिणाम गन्धर्व ने बताया " जहाँ पारिक्षित स्थित हैं वहाँ लोकों की समाप्ति है । " तात्पर्य है कि कर्मफल की वह चरम सीमा है । हमने आगे पूछा " पारक्षित कहाँ स्थित है? " तो उसने हमें वह भी समझा दिया । " अरे याज्ञवल्क्य ! अब तुम बताओ वह स्थान कौन सा है ? उसके अन्तर्गत आये लोको का परिमाण कितना है ? पारिक्षितों का स्वरूप क्या है ? " याज्ञवल्क्य महर्षि ने पहले संक्षेप में उत्तर दे दिया ।
नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि ने उलाहना देते हुए कहना प्रारम्भ किया - पहले गन्धर्व ने तुम्हें जो बताया था वह देवसम्बन्धी रहस्य है यह जानते हुए भी यों समाज में तुम उसके बारे में क्यों पूछ रहे हो ? तुम वेद को जानने वाले हो , श्रुतिमर्यादा समझते हो , तुमसे ऐसी आशा नहीं । फिर भी मुझे उक्त जानकारी है ऐसा तुम्हें विश्वास हो जाये इसलिये संक्षेप में बता देता हूँ । " अश्वमेध " करने वाले श्रेष्ठ राजा जहाँ सुखभोग करते हैं वहीं से " पारिक्षित " भी गये जिनके बारे में तुम पूछ रहे हो ! { उपासना - समेत अश्वमेध करने वालों का श्रुतिप्रसिद्ध नाम " पारिक्षित " है , यह याज्ञवल्क्य महर्षि ने गोपनीयता बनाये रखने के लिये व्यक्त नहीं किया । } ।
यह सुनकर भी " भुज्यु लाह्यायनि " को विश्वास नहीं हुआ , अतः उसने पूछा " हे मुनि ! अश्वमेध करने वाले कहाँ जाते है यह तो बताइये ।
नारायण ! यों मुखतः पूछे जाने पर उस देवरहस्य को " जनसंसत् " में मुनि ने साफ - साफ कह डाला क्योंकि उन्होंने यह समझ लिया था कि सावधान कर देने पर भी पुनः पूछने वाला " भुज्यु लाह्यायनि " ही रहस्यप्रकाशन के पाप का भागी बनेगा , मैं नहीं । { यों कुटिलता से याज्ञवल्क्य बच गये और स्वयं भुज्यु लाह्यायनि ही उसमें फँस गया ।}। धन सम्पन्न व समुद्रपर्यन्त पृथ्वी जिनके वश में है उन्हें " पारिक्षिति " या " पारिक्षित " कहा जाता है , क्योंकि " पारि " अर्थात् सब ओर " क्षिति " अर्थात् भूमि उन्हीं की होती है । यों अश्वमेध करने वालों का ही यह नामान्तर है जो स्पष्ट होने से याज्ञल्क्य महर्षि ने कहा नहीं और लोकों का परिमाण बताने लगे । { किं च सारा रहस्य न बताने से स्शं देवकोप से बचे भी रहे । } ।
नारायण ! सभी कर्म जहाँ भोगे जाते हैं वह विराट् शरीर ही है अर्थात् स्थूल प्रपञ्च में ही कर्मफल का उपभोग होता है । उस विराट् का भूलोक के रूप में वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य महाभाग ने उसका माप बताना आरम्भ किया - सारा यह " जम्बू द्वीप " 100000 एक योजन विस्तृत है और इसे घेरकर विद्यमान नमकीन समुद्र भी इतना ही बड़ा है । जैसे "जम्बू द्वीप " सागर से धिरा है , वैसे ही वह सागर से 6 छह द्वीपों से घिरा है , जो द्वीप सागरों से युक्त है । समुद्र - समेत अगल द्वीप समुद्र - समेत पूर्व द्वीप को घेरे है और घिरे हुए की अपेक्षा घेरने वाले का परिमाण 2 दो गुणा है । जैसे लवणोदक - समेत जम्बू द्वीप 200000 दो लाख योजन का है तो ईंख के रस के समेत " प्लक्ष द्विप " 400000 चार लाख योजन का है । इन सब को मिलाकर जो परिमाण होता है उतना ही उस भूमि का परिणाम है जो " शुद्धोदक " से परे है । वहाँ लोकालोक नाम पर्वतराज है जो मानो भूलोक को सब तरफ से घेर कर किला हो । उस पर्वत
से घिरे स्थान में ही दिन - रात सूर्य चलता है । भास्कर दिन - रात में जितने क्षेत्र की यात्रा करता है उससे 32 गुणा परिमाण भूलोक का विद्वानों ने बताया है ।
नारायण ! भूलोक कहलाने वाला विराट्शरीररूप जो देश है वह " स्थण्डिल" की तरह है जिसके चारों ओर भीत अर्थात दीवार की तरह स्थित भूमि उसेसे 2 दोगुणी है और उसे घेरे स्थित समुद्र उससे भी 2 दो गुणा है जिसे अन्यत्र " घनोद " भी कहते हैं । घनोद से परे है ब्रह्माण्ड जिसका आधा हिस्सा अर्थात् एक कपाल रजतमय और दूसरा कपाल स्वर्णमय है। दोनों कपालों की संधि - जोड़ छुरे की धार - सी है , मक्खी के पंख - सी सूक्ष्म है। ब्रह्माण्ड से बाऱ निकलने का वह रास्ता है । हे भुज्यु लाह्यायनि ! जिन पारिक्षितों के बारे में तुमने पूछा है वे जब मर जाते हैं तब अपनी उपासना के बल से विविध देवताओं द्वारा घनोद तक ले जाये जाते हैं । उपासना - सहित अश्वमेध अनुष्ठान कर चुके राजा जब अश्वमेध का फल पा लेते हैं तब " पारिक्षित " कहलाते हैं । जो अश्व अर्थात् उस आकार वाले अग्नि की { जिसे बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रारम्भ में बताया है } और हिरण्यगर्भ की उपासना करने वाले द्विज हैं वे भी पारिक्षित कहे जाते हैं । { जिसके पाप पूरी तरह क्षीण हो जाये वह अश्वमेध परिक्षित् है , अतः उसकी भी उपासना परिक्षित् है , जिससे उस उपासना को करने वाले पारिक्षित हों यह संगत ही है । } । जब उस अत्यन्त सूक्ष्म मार्ग से निकल कर जाने में अश्वमेध देवता विराट् रूप अग्नि भी समर्थ नहीं तो घनोद से ही पीछे ही रह जाने वाले अन्य देवताओं के असामर्थ्य का कहना ही क्या । इन्द्र अर्थात् विराट् पक्षिरूप धारण कर पारिक्षितों को घनोद से पार करा कर आकाशस्थित हिरण्यगर्भरूप वायु को सुपुर्द कर निवृत्त हो जाता है । वायु उन पारिक्षितों को सूक्ष्म बना कर अपने से एक कर उक्त कपालद्वय - संधि मार्ग से ब्रह्माण्ड से बाहर निकाल देता है। पहले के उपासक भी वहीं स्थित हैं । तात्पर्य है कि हिरण्यगर्भरूप से पारिक्षित लोग सारे ब्रह्माण्ड को भीतर - बाहर व्याप्त कर मौजूद है ।
नारायण ! इस प्रकार गन्धर्व से प्राप्त जानकारी के अनुकूल ही सारा वर्णन याज्ञवल्क्य महर्षि से सुनकर चकित हुआ " भुज्यु लाह्यायनि " और कुछ पूछना छोड़कर " उषस्त चाक्रायण " और " कहोल कौषितकेय " के बीच जाकर बैठ गया मानों दोनों को पूछने के लिये प्रेरित कर रहा हो ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि " जरत्कारव " को बताते हैं कि देश , काल आदि के सम्बन्ध से कर्म का फल करोड़ों गुणा बढ़ जाता है , जैखे खेत की जमीन उपजाऊ हो तो बरसात में बीज की बुआई की हो तो धान अधिका मात्रा में मिलते हैं जबकि मौसम व जमीन के अन्तर से उतनी ही मेहनत का फल कम होता है । { अविमुक्तक्षेत्र काशी जी आदि देश में , व्यतीपाद आदि काल में , वेदज्ञ ब्राह्मणादि निमित्त से किया पुण्य अधिक फल देगा जबकि अन्यत्र उसी कर्म का फल सामान्य होगा । ऐसे ही पवित्र तीर्थों में , देवालयों में , ब्रह्मज्ञों की संनिधिमें किये पाप भी करोड़ों गुणा अधिक दुःख देते हैं । } ब्याज कमाने वाले का धन - धान्य आदि संग्रह जैसे दिनों - दिन बढ़ता जाता है ऐसे ही देहाभिमानी का कर्मसंचय पतिपल अधिक होता जाता है । वट का बीज छोटा - सा होता है पर महान् वृक्ष पैदा कर देता है । ऐसे ही पुण्यपाप हैं तो सूक्ष्म पदार्थ लेकिन बड़े - से - बड़े सुख - दुःख उन्हीं से पैदा होते हैं । { जैसे बीज में वृक्ष प्रत्यक्षसिद्ध नहीं अनुमेय है , ऐसे ही कर्म से फल शास्त्रज्ञेय है । बीज तत्काल वृक्ष बनता नहीं , कर्म भी प्रायः तत्काल फल देते नहीं । बीज मिट्टी जल आदि सहायक चाहता है , कर्म भी भोग्य आदि सहायक चाहता है । बीज भूँजा जा सकता है , कर्म भी ज्ञानाग्नि से दग्ध किया जा सकता है । इत्यादि मसमातयें समझ लेनी चाहिये । } ।
नारायण ! इस प्रकार वेदज्ञ महर्षि याज्ञवल्क्य महाभाग ने जब शास्त्रीय रहस्य को उपपत्ति आदि से सु - स्पष्ट कर दिया तो " महामनि आर्तभाग " ने " याज्ञवलक्य महर्षि की उस महा ब्रह्मसंसद में प्रशंसा की और उन्होंने भी सूक्षार्थक प्रश्न पूछने और उसका उत्तर समझने में कुशल होने से " जारत्कारव अर्थात् की प्रशंसा की । प्रश्न - उत्तर द्वारा उन दोनों वेदज्ञश्रेष्ठों ने घोषणा की कि कालादि कारण भले ही बहुत से होते हैं पर फलकाल में भी निर्णायक भूमिका निभाने वाला कर्म ही प्रधान है । इस प्रकार प्रश्न - उत्तर की गम्भीरता समझते हुए उन्होंने न केवल कर्म की वरन् एक - दूसरे की भी प्रशंसाकी । उत्तर से सन्तुष्ट " महामुनि आर्तभाग " अर्थात् जरत्कारव मुस्कुराते हुए चुप हो गया पर " भुज्यु लाह्यायनि " की और यों देखकर कि वह कुछ पूछने को प्रेरित हो ।
नारायण ! उन दो दिग्गजों { ऋत्विक आश्वल और आर्तभाग जरत्कारव पर विजय हासिल कये हुए "महात्मा याज्ञवल्क्य महाभाग " ने " भुज्यु लाह्यायनि " ने एक ऐसा प्रश्न पूछा जिसका अर्थ लोक में प्रसिद्ध नहीं । यह सवाल कुटिल अभिप्राय से पूछा गया था । { भुज्यु लाह्यायनि का अभिप्राय था कि ऐसे रहस्य सार्वजनिक करना दोषावह है , अतः याज्ञवल्क्य यदि बता भी देगा तो उसे पाप लगेगा । पूर्व प्रश्न की तरह एकान्त में जाकर बताना चाहेगा तो बार - बार समाज से हटकर उत्तर देने पर समाज में स्थित विद्वान् नाराज होकर शाप देंगे । } ।
नारायण ! " भुज्यु लाह्यायनि " ने पूछा - याज्ञवल्क्य ! हम वेदाध्ययन के लिये " मद्र देश " में विचरण कर रहे थे । उस समय " काप्य पतञ्जल " के घर हमने एक अद्भुत वृत्तांत देखा । काप्य पतञ्जल की पुत्री पर अग्निदेव का आवेश था जैसे भूतावेश हो जाता है । वही अग्नि गन्धर्व शब्द से भी व्यवहृत है । उस देवता से हम सभी आगन्तुकों ने पूछा " तुम कौन हो ? " तो उपस्थित ब्राह्मणों को उसने अपना परिचय " सुधन्वा आङ्गिरस " बताया । गन्धर्वश्रेष्ठ से हमने कर्मफलों के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा की , जिसका हमें उचित उत्तर प्राप्त हुआ । लोकों का परिणाम गन्धर्व ने बताया " जहाँ पारिक्षित स्थित हैं वहाँ लोकों की समाप्ति है । " तात्पर्य है कि कर्मफल की वह चरम सीमा है । हमने आगे पूछा " पारक्षित कहाँ स्थित है? " तो उसने हमें वह भी समझा दिया । " अरे याज्ञवल्क्य ! अब तुम बताओ वह स्थान कौन सा है ? उसके अन्तर्गत आये लोको का परिमाण कितना है ? पारिक्षितों का स्वरूप क्या है ? " याज्ञवल्क्य महर्षि ने पहले संक्षेप में उत्तर दे दिया ।
नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि ने उलाहना देते हुए कहना प्रारम्भ किया - पहले गन्धर्व ने तुम्हें जो बताया था वह देवसम्बन्धी रहस्य है यह जानते हुए भी यों समाज में तुम उसके बारे में क्यों पूछ रहे हो ? तुम वेद को जानने वाले हो , श्रुतिमर्यादा समझते हो , तुमसे ऐसी आशा नहीं । फिर भी मुझे उक्त जानकारी है ऐसा तुम्हें विश्वास हो जाये इसलिये संक्षेप में बता देता हूँ । " अश्वमेध " करने वाले श्रेष्ठ राजा जहाँ सुखभोग करते हैं वहीं से " पारिक्षित " भी गये जिनके बारे में तुम पूछ रहे हो ! { उपासना - समेत अश्वमेध करने वालों का श्रुतिप्रसिद्ध नाम " पारिक्षित " है , यह याज्ञवल्क्य महर्षि ने गोपनीयता बनाये रखने के लिये व्यक्त नहीं किया । } ।
यह सुनकर भी " भुज्यु लाह्यायनि " को विश्वास नहीं हुआ , अतः उसने पूछा " हे मुनि ! अश्वमेध करने वाले कहाँ जाते है यह तो बताइये ।
नारायण ! यों मुखतः पूछे जाने पर उस देवरहस्य को " जनसंसत् " में मुनि ने साफ - साफ कह डाला क्योंकि उन्होंने यह समझ लिया था कि सावधान कर देने पर भी पुनः पूछने वाला " भुज्यु लाह्यायनि " ही रहस्यप्रकाशन के पाप का भागी बनेगा , मैं नहीं । { यों कुटिलता से याज्ञवल्क्य बच गये और स्वयं भुज्यु लाह्यायनि ही उसमें फँस गया ।}। धन सम्पन्न व समुद्रपर्यन्त पृथ्वी जिनके वश में है उन्हें " पारिक्षिति " या " पारिक्षित " कहा जाता है , क्योंकि " पारि " अर्थात् सब ओर " क्षिति " अर्थात् भूमि उन्हीं की होती है । यों अश्वमेध करने वालों का ही यह नामान्तर है जो स्पष्ट होने से याज्ञल्क्य महर्षि ने कहा नहीं और लोकों का परिमाण बताने लगे । { किं च सारा रहस्य न बताने से स्शं देवकोप से बचे भी रहे । } ।
नारायण ! सभी कर्म जहाँ भोगे जाते हैं वह विराट् शरीर ही है अर्थात् स्थूल प्रपञ्च में ही कर्मफल का उपभोग होता है । उस विराट् का भूलोक के रूप में वर्णन करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य महाभाग ने उसका माप बताना आरम्भ किया - सारा यह " जम्बू द्वीप " 100000 एक योजन विस्तृत है और इसे घेरकर विद्यमान नमकीन समुद्र भी इतना ही बड़ा है । जैसे "जम्बू द्वीप " सागर से धिरा है , वैसे ही वह सागर से 6 छह द्वीपों से घिरा है , जो द्वीप सागरों से युक्त है । समुद्र - समेत अगल द्वीप समुद्र - समेत पूर्व द्वीप को घेरे है और घिरे हुए की अपेक्षा घेरने वाले का परिमाण 2 दो गुणा है । जैसे लवणोदक - समेत जम्बू द्वीप 200000 दो लाख योजन का है तो ईंख के रस के समेत " प्लक्ष द्विप " 400000 चार लाख योजन का है । इन सब को मिलाकर जो परिमाण होता है उतना ही उस भूमि का परिणाम है जो " शुद्धोदक " से परे है । वहाँ लोकालोक नाम पर्वतराज है जो मानो भूलोक को सब तरफ से घेर कर किला हो । उस पर्वत
से घिरे स्थान में ही दिन - रात सूर्य चलता है । भास्कर दिन - रात में जितने क्षेत्र की यात्रा करता है उससे 32 गुणा परिमाण भूलोक का विद्वानों ने बताया है ।
नारायण ! भूलोक कहलाने वाला विराट्शरीररूप जो देश है वह " स्थण्डिल" की तरह है जिसके चारों ओर भीत अर्थात दीवार की तरह स्थित भूमि उसेसे 2 दोगुणी है और उसे घेरे स्थित समुद्र उससे भी 2 दो गुणा है जिसे अन्यत्र " घनोद " भी कहते हैं । घनोद से परे है ब्रह्माण्ड जिसका आधा हिस्सा अर्थात् एक कपाल रजतमय और दूसरा कपाल स्वर्णमय है। दोनों कपालों की संधि - जोड़ छुरे की धार - सी है , मक्खी के पंख - सी सूक्ष्म है। ब्रह्माण्ड से बाऱ निकलने का वह रास्ता है । हे भुज्यु लाह्यायनि ! जिन पारिक्षितों के बारे में तुमने पूछा है वे जब मर जाते हैं तब अपनी उपासना के बल से विविध देवताओं द्वारा घनोद तक ले जाये जाते हैं । उपासना - सहित अश्वमेध अनुष्ठान कर चुके राजा जब अश्वमेध का फल पा लेते हैं तब " पारिक्षित " कहलाते हैं । जो अश्व अर्थात् उस आकार वाले अग्नि की { जिसे बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रारम्भ में बताया है } और हिरण्यगर्भ की उपासना करने वाले द्विज हैं वे भी पारिक्षित कहे जाते हैं । { जिसके पाप पूरी तरह क्षीण हो जाये वह अश्वमेध परिक्षित् है , अतः उसकी भी उपासना परिक्षित् है , जिससे उस उपासना को करने वाले पारिक्षित हों यह संगत ही है । } । जब उस अत्यन्त सूक्ष्म मार्ग से निकल कर जाने में अश्वमेध देवता विराट् रूप अग्नि भी समर्थ नहीं तो घनोद से ही पीछे ही रह जाने वाले अन्य देवताओं के असामर्थ्य का कहना ही क्या । इन्द्र अर्थात् विराट् पक्षिरूप धारण कर पारिक्षितों को घनोद से पार करा कर आकाशस्थित हिरण्यगर्भरूप वायु को सुपुर्द कर निवृत्त हो जाता है । वायु उन पारिक्षितों को सूक्ष्म बना कर अपने से एक कर उक्त कपालद्वय - संधि मार्ग से ब्रह्माण्ड से बाहर निकाल देता है। पहले के उपासक भी वहीं स्थित हैं । तात्पर्य है कि हिरण्यगर्भरूप से पारिक्षित लोग सारे ब्रह्माण्ड को भीतर - बाहर व्याप्त कर मौजूद है ।
नारायण ! इस प्रकार गन्धर्व से प्राप्त जानकारी के अनुकूल ही सारा वर्णन याज्ञवल्क्य महर्षि से सुनकर चकित हुआ " भुज्यु लाह्यायनि " और कुछ पूछना छोड़कर " उषस्त चाक्रायण " और " कहोल कौषितकेय " के बीच जाकर बैठ गया मानों दोनों को पूछने के लिये प्रेरित कर रहा हो ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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