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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ════ ③ ════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! विदेहवासी मिथिला नरेश का ऋत्विक् बहुत बोलने वाला था । बहुत ओले बरसाने वाले बादलों से जैसे पहाड़ कभी चिढ़ता नहीं , ऐसे ही यशस्वी महामुनि विप्र याज्ञवल्क्य ऋत्विक् आश्वल के बातों से विचलित हुए बिना स्मित हास्य करते हुए अर्थात् मन्द - मन्द मुस्कुराते - हुए यों बोले –
"हे आश्वल ! इस ब्राह्मणसभा में जो - जो उत्तम ब्राह्मण ब्रह्मनिष्ठा की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं उन सभी को मेरा सदा प्रणाम है । { इससे सुचित है कि ब्रह्मज्ञ की एक विशेषता है उद्धत न होना , गर्व से अपना सिक्का न जमाने वाला न होना । } मैने यहाँ स्वर्णजड़ित गाये देखीं तो मुझे उन्हें ग्रहण करने की इच्छा हो गयी , इसी से मैंने उन्हें आश्रम भेज दिया । इसमें कोई कारण नहीं कि ब्राह्मण मुझ पर क्रोध करें । ब्राह्मणों का तो मैंने कुछ अपहृत किया नहीं है । राजा देने वाला और मैं गायें ले जाना वाला । बीच में ब्राह्मण कहाँ से आ गये जो बिना कारण मुझपर क्रुद्ध हों ? आप तो मननसमर्थों में महान् हैं , कहिये मुझपर विप्ररोष कैसे सम्भव है ? मैंने राजा को यह तो कहा नहीं कि आगे दान न करे । मेरी तरह यदि धनेच्छुक हैं तो ये ब्राह्मण भी राजा से धन ग्रहण कर लें , आप भी ले लेवें । जो इन्हें अच्छा लगे वही लें । राजा के पास काफी सम्पत्ति है , भगवान् करे और बढ़े । मैं कहाँ मना करता हूँ ।
नारायण ! घी की आहुति से जैसे अग्नि की ज्वाला भड़क उठती है ऐसे ही याज्ञवल्क्य महर्षि की बता सुनकर ऋत्विक् आश्वल उत्तेजित हो गया और मुनि होने पर भी उसने याज्ञवल्क्य महर्षि को वाद के लिये ललकारा । उसने " याज्ञवल्क्य " यों सम्बोधित कर 8 आठ सवाल पूछे , जिनमें 4 चार " अतिमोक्ष " के बारे में और बाकी " सम्पद् " के बारे में थे। 
ऋत्विक् आश्वकृत प्रथम 4 चार प्रश्न यों थे –
①. अग्निहोत्रादि कर्म यद्यपि ऋत्विक् आदि साधनों से सम्पन्न होता है तथापि परिच्छेद के प्रति हेतुभूत प्रमादरूप मृत्यु से व्याप्त ही होता है । तात्पर्य है कि शास्त्रविहित कर्म करने से इन्द्रियों की शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्तियाँ निवृत्त हो जाती हैं फिर भी सीमितता तो उपासना के बिना हटती नहीं । यह कैसी उपासना है जिससे यजमान जो कुछ परिच्छिन्न है उस सब को छोड़कर असीम फल पाये ?
② . दिन - रात रूप काल से सब सीमित हैं , इससे परे जाने का क्या उपाय है ?
③ . शुक्लपक्ष व कृष्णपक्ष रूप काल की सीमा कैसे लाँघी जाती है ?
④ . वर्तमान शरीर छोड़कर यजमान किस सहारे से उस आश्रयरहित आकाश में जाता है ? 
नारायण ! ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्कय महर्षि ने 4 चारों प्रश्नों का उत्तर दिया –
① . अध्यात्म में जो यजमान की वाक् है उसका आधिदैविक रूप है अग्नि और यज्ञ में उसी का रूप है "होता" अर्थात् ऋग्वेद का जानकार " ऋत्विक् " । होता कर्मकाल में यह दृष्टि बनाता है " मैं अग्नि हूँ जो यजमान की वाक् का आधिदैविक रूप है । " इसके फलस्वरूप यजमान असीम फल पा लेता है ।
② . ऐसे ही चक्षु - सूर्य - अध्वर्यु का अभेदानुसंधान यदि अध्वर्यु आर्थात् यजुर्वेदीय ऋत्विक् करे तो दिन - रात से यजमान परे चला जाता है ।
③ . प्राण - वायु - उद्गाता का ऐसा चिन्तन उद्गाता अर्थात् सामवेदी ऋत्विक् करे तो दोनों पक्षों की सीमा यजमान लाँघ जायेगा ।
④ . मन - चन्द्रमा - ब्रह्मा की इसी तरह की उपासना ब्रह्मा अर्थात् दीनों वेदों का जानकार ऋत्विक् करे तो यजमान आकाश में जाने के लिये सहारा पा लेता है ।
नारायण ! विदेहवासी राजा जनक के होता ऋत्विक ने आश्वल ने पुनः 4 चार प्रश्न किये–
① . " होता " यज्ञ में कितनी ऋचाओं का प्रयोग करेगा , वे कौन – कौन हैं और { उनमें किस ध्यान से } क्या फल होगा ?
② . " अध्वर्यु " कितनी आहुतियाँ डालेगा , ये कौन - सी हैं और { उनकी कैसी उपासना से} क्या फल होगा ?
③ . " ब्रह्मा " कितने देवताओं से यज्ञा की रक्षा करेगा , देवता नाम क्या है , { उपासना कैसी व फल क्या है } ?
④ . " उद्गाता " कितनी स्तोत्रिया - ऋचायें गायेगा , ये हैं कौन - सी , अध्यात्म में उनका क्या रूप है और उनकी उपासना का फल क्या है ।
नारायण ! आश्वल ने जो उपरोक्त पुनः प्रश्न किये थे उनका उत्तर महर्षि याज्ञवल्क्य ने यों दिया –
① . " होता " यज्ञ में 3 तीन तरह की ऋचाओं का प्रयोग करेगा - " याज्या " , " पुरोनुवाक्या " और " शस्या " । { विभिन्न कार्यों में विनियुक्त ऋङ्मन्त्रों के ये पारिभाषिक नाम हैं । } इनमें "होता" त्रिलोकी की दृष्टि करेगा जिसके फलस्वरूप यजमान को " लोकत्रय " प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि यज्ञकाल में यज्ञांगभूत उपासनाओं का फल यजमान पाता है , कारण कि वह दक्षिणा द्वारा ऋत्विजों को खरीद लेता है ।
② . " अध्वर्यु " द्वारा " प्रक्षिप्त आहुतियों " में जो उज्जव हों उन्हें देवलोक समझें , जो सशब्द हों उन्हें पितृलोक समझे और जो नीचे बैठ जायें उन्हें मनुष्यलोक समझे तो अध्वर्युकृत इस उपासना से यजमान ये तीन लोक जीत जाता है ।
③ . " ब्रह्मा " एक ही देवता से रक्षा करता है । वह देवता " मन " है । मनोवृत्तियाँ और विश्वेदेव अनन्त हैं , अतः मन विश्वेदेव है ऐसी उपासना ब्रह्मा करता है , जिससे यजमान कोअनन्त फल मिलता है ।
④ . " उद्गाता " गान करते समय " याज्या " को प्राण , " पुरोनुवाक्या " को अपान और " शस्या " को व्यान समझता है , जिससे भूरादि तीन लोकों पर यजमान विजय होती है ।
नारायण ! इस प्रकार 8 आठ प्रश्न पूछकर और सम्यक् उत्तर पाकर होता - ऋत्विक आश्वल लज्जित हुआ और स्वयं अधिक परीक्षा में असमर्थ होने से " आर्तभाग " नामक मुनि को प्रेरित करने के लिये उसकी ओर देखते हुए चुप हो गया । उपनिषद् में " आर्तभाग " ने 5 पाँच प्रश्न उपस्थित किये हैं , जिसके प्रथम प्रश्न का अभिप्राय है कि पूर्वकथित देवतारूप " सापेक्ष मोक्ष " ही है क्योंकि ग्रह और अतिग्रह कहलाने वाली मृत्यु से ग्रस्त ही है । ग्रहादि को महर्षि याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट किया ।

नारायण ! ऋत्विक आश्वल के चुप हो जाने पर " आर्तभाग " नामक मुनि ने " याज्ञवल्क्य " यों सम्बोधित कर महर्षि से ऐसा प्रश्न मूछा जिसे मन्दमति लोग , अर्थात् परिच्छेदाभिमानी, समाहित कर नहीं सकते । प्रश्न था - " ग्रहों की और अतिग्रहों की गिनति कितनी बतायी जाती है ? " वाजसनेयक याज्ञवल्क्य " ने जवाब दिया 8 आठ ग्रह हैं और 8 आठ ही अतिग्रह है । " आर्तभाग ने पूछा - " ग्रह कौन हैं और अतिग्रह क्रौन हैं ? "
याज्ञवल्क्य ने बताया - " मनस्वी विद्वान् इन 8 को ग्रह कहते हैं - प्राण , वाक् , रसना , चक्षु , श्रोत्र , मन , हाथ और त्वक् अर्थात चर्म । ये बाँधते हैं अतः ग्रह कहलाते हैं । जिनके अधीन हुए ये बन्धक बन पाते हैं वे विषय अतिग्रह कहे जाते हैं जिनके नाम हैं - गंध , नाम , रस , रूप, शब्द , कामना , कर्म { क्रिया } और स्पर्श । समुद्र में कोई गिर पड़े तो मगरमच्छ आदि ग्रह उसे निगल लेते हैं और आगे वे ग्रह भी अपने से अधिक शक्तिशाली तिमिंगल आदि अतिग्रहों द्वारा खा लिये जाते है । इसी तरह संसार में आया जन्तु ग्रहरूप इन्द्रियों द्वारा मानो खा लिया जाता है , क्योंकि इन्द्रियाँ इसे वैसे ही अपने अधीन कर लेती है जैसे भोक्ता अन्न को पेट में डालकर लेता है । पुतः इन्द्रियों को अतिग्रह कहलाने वाले उनके विस मानो खा जाते हैं क्योंकि विषयों का नियन्त्रण इन्द्रियों पर रहता है । चूहे को बिल्ली की तरह इन्द्रियाँ पुरुष को काबू में कर लेती हैं और धीवर जलाष जैसे मछलियाँ पकड़ता है ऐसे ही गन्धादि विषय इन्द्रियों को पकड़े रहते हैं । किसी ग्रह { पिशाचादि } का आवेश हो जाने पर जन्तु जैसे हित - अहित का विवेक खो बैठता है ऐसे ही अपनी इन्द्रियों को प्रधानता देने वाला भोगी भी अपने हित - अहित का विचार नहीं कर पाता । कल्पना करो कि जैसे कुत्ते पाले जाते है ऐसे ही कोई व्यक्ति एक मगरमच्छ अपने वश में कर ले और सामने कोई मनुष्य आये तो उसे मारने के लिये मगर को प्रेरित करे । ऐसी स्थिति में मगरमच्छ न चाहे तो भी मनुष्य को खाने के लिये आक्रमण करेगा ही क्योंकि उसका मालिक उससे अधिक समर्थ हुआ उसका संचालन कर रहा है । ऐसे ही गन्धादि विषयरूप अतिग्रहों से नियन्त्रित प्राणादि इन्द्रियरूप ग्रह पुरुषों को बाँधने के लिये हर तरह से यत्नशील रहते है । सावशेष ......
नारायण स्मृतिः

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