∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! महामुनि याज्ञवल्कय का नाम आप ने सुना होगा ! वे महामुनि थे । उनकी यशगान विदेह राज जनक ने सुना । उनका दर्शन कैसे होगा , दर्शन पाने को उत्सुक हुए। विदेहवासी मिथिला नरेश के ऋत्विक ब्राह्मण आश्वल आदि नाना उपायों से और निन्दा के द्वारा विदेहवासी नरेश को रोकते रहे कि वह " याज्ञवल्क्य " से मुलाकात न कर पाये । राजा तो धामिक था अतः पुरोहितों की भी अवज्ञा नहीं करना चाहता था लेकिन उन सबके दुरभिप्राय को समझ वह गया था । बुद्धिमान् होने से उसने अपने मनोरथ को सिद्ध करने के लिये उपाय खोज लिया । उसने अपने " त्रैवर्णिक विश्वस्त अधिकारियों " को निर्देश दिया " मैं एक यज्ञ करना चाहता हूँ , जिसके लिये सभी देशों के ब्राह्मणों को निमन्त्रित करो " उन अधिकारियों ने अनेक देशों में जाकर वेदज्ञ ब्राह्मणों को शिष्यमण्डली समेत निमन्त्रित किया और मिथिला आये । " कुरुपाञ्चाल " देशों के ब्राह्मण भी लाये गये , जिनमें " तत्त्ववेत्ता महामुनि याज्ञवल्क्य " भी थे । इतने विद्वान् ब्राह्मणों के उस " महासम्मेलन " के स्थल उस " जनकपुरी " { मिथिलापुरी } में " महान् वेदघोष " गूँज उठा था, जो सब त्रैवर्णिक वेदरसिकों के कानों को शीतल कर रहा था , क्योंकि सांसारिक चर्चाओं से सभी के कान प्रायः सन्तप्त रहते थे ।
नारायण ! विदेहवासी राजा जनक के ऋग्वेदीय ऋत्विक् " आश्वल " भी उस समाज में आये थे । " जरत्कारु " के महान् पुत्र " आर्तभाग " नामक वेदज्ञ भी वहाँ उपस्थित थे । " भुज्यु लाह्यायनि { लह्य के पौत्र } , ब्राह्मणोत्तम " उसस्त चाक्रायण " , सर्वज्ञ द्विजोत्तम " कहोल " { अष्यावक्र महामुनि के पिता } " कुषीतक " के पुत्र थे , ब्रह्मनिष्ठ स्त्रीरत्न " गार्गी " , " उद्दालक आरुणि " जिन्होंने गार्गी के प्रश्नों के बीच में अपना प्रश्न रखा था , इत्यादि बड़े - बड़े ब्रह्मवादी उस अधिवेशन में आये थे । " शकल " पुत्र " विदग्ध " भी वहाँ मौजूद था । वह अत्यन्त बातूनी और वृथा अभिमानी था । पाप से उसका विवेक ग्रस्त रहने से वह "याज्ञवल्क्य महामुनि " से द्वेष रखता था । महर्षि याज्ञवल्क्य चारों वेदोः के ज्ञाता अपने बहुतेरे शिष्यों सहित उपस्थित थे मानो किरणों समेत सूर्य हों । अपने - अपने छात्रों से घिरे " आश्वल " आदि सब मुनियों को मिला ले तो करोड़ों ब्राह्मण मिथिला में एकत्र थे ।
नारायण ! यद्यपि याज्ञवल्क्य द्वेषी जागरूक रहते थे तथापि विदेहवासी मिथिला नरेश ने उक्त उपाय से याज्ञवल्क्य के मिथिला - आगमन की योजना सफल कर ली ! किसी प्रसंग से जब पुरोहित आदि विद्वान् लोग सभा में इकट्ठे हुए तब राजा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया –
नारायण ! यद्यपि याज्ञवल्क्य द्वेषी जागरूक रहते थे तथापि विदेहवासी मिथिला नरेश ने उक्त उपाय से याज्ञवल्क्य के मिथिला - आगमन की योजना सफल कर ली ! किसी प्रसंग से जब पुरोहित आदि विद्वान् लोग सभा में इकट्ठे हुए तब राजा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया –
"हे विप्रों ! " " प्रभूत दक्षिणा वाले यज्ञ मैं करना चाहता हूँ । आप सब की अनुज्ञा मिल जाये तो इस आशय की घोषणा सब दिशाओं में फैला दूँ । " सभी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा " अवश्य ही यज्ञ प्रारम्भ करो । "
नारायण ! यागारम्भ के अनन्तर यागस्थल पर जब सब ब्राह्मण बैठे थे तब विदेहवासी राजा ने कहा कि उन सर्वज्ञ महात्माओं में सर्वाधिक "अनूचान" अर्थात् अङ्गों समेत वेद को व उसके अर्थ को जानने वाला कौन है । उसने सोचा - ये सभी विशाल हृदय वाले हैं, वेद - वेदाङ्ग को जानते हैं , अच्छे आचरण रखते हैं , इनके महान् शिष्य भी हैं , पर सबसे अधिक जानकारी वाला कौन है ? उत्तम ब्राह्मण में विद्यमान उत्कर्ष का मुझे कैसे पता चले ? यदि मैं किसी से पूछूँगा तो वह अपने ही चित्त के अनुसार जवाब देगा और आप्त वक्ता इस विषय में दुर्लभ हैं । जिसे जिसके प्रति द्वेष होता है वह हर तरह उसकी निन्दा ही करेगा ! देवता , गुरु , ब्रह्मा या स्वयंभू के बारे में भी द्वेषी को निन्दा करने में संकोच नहीं होता । जिस पर स्नेह हो वह चाहे " हलवाहे जैसा निरक्षर " हो तो भी उसकी हर तरह स्तुति भी रागवान् के लिये सम्भव हो जाती है । जो राग - द्वेष वाले नहीं वे प्रायः सबसे दूरी रखते हैं , अतः किसी के गुण - दोष जानते ही नहीं कि बता सकें । ऐसे व्यक्ति को मैं जिन - जिन की विशेषता बताऊँगा उनकी न्यायोचित तुलना कर यद्यपि वे उत्तम का निर्णय निष्पक्ष दे सकते हैं तथापि जिस जानकारी से वे निश्चय करेंगे वह तो मेरी दी हुई ही होगी , अतः उनसे पूछने की बजाय मैं ही क्यों न निर्णय तक पहुँच जाऊँ? यदि उपस्थित हर - एक ब्राह्मण से यह प्रश्न करूँ तो भी निर्णय होना मुमकिन नहीं क्योंकि अपनी कमी खुद कौन बताता है ! अगर विविध प्रश्न पूछकर पता लगाऊँ तो ये उत्तम ब्राह्मण क्रुद्ध होकर मुझे शाप देंगे क्योंकि इसने अधिक जानकार ही इनका परिक्षक हो सकता है , अतः मैं परीक्षा करूँगा तो इन्हें लगेगा कि मैं स्वयं को इनसे श्रेष्ठ मान रहा हूँ जिससे इनका ब्रह्मतेज क्षुब्ध होगा ही । किन्तु विद्वानों को वाद - विवाद का शौक होता है ! अतः मैं इनका आपासी शास्त्रार्थ कराता हूँ । सभा में प्रत्यक्ष हो जायेगा कि इनमें अधिक विद्वान् कौन है । लेकिन अगर मैंने कहा " हे ब्राह्मणो ! आप आपस में वाद - विवाद कीजिये । " तो भी ये नाराज होकर मुझे जला डालेंगे क्योंकि ऐसे आज्ञा तो बच्चों को दी जाती है! यों कहना मेरी मूर्खता होगी । इसलिये ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे मुझे कहना न पड़े और ये खुद ही विवाद में प्रवृत्त हों ।
नारायण ! बहुतेरा धन किसके चित्त को विचलित नहीं कर देता ! ब्रह्मविद् कहलाने वाले संन्यासी भी अधिक धन देखकर अपने अपरिग्रहव्रत को उपेक्षित कर देते हैं तों गृहस्थों का मन वित्तातिशय से डोलेगा इसमें कहना ही क्या ? { अतः बहुत - सा धन पण या शर्त रूप से घोषित कर देना चाहिये जिसके निमित्त ये ब्राह्मण वाद - विवाद में प्रवृत्त हो जायें।} काम - क्रोध - लोभ - मोह सभी धन से पैदा होते हैं । भूख से हमेशा परेशान गरीब को कामना क्या सतायेगी ? वह तो सोचता है कि जितना अन्न पत्नी खायेगी उतना मैं ही क्यों न खा कर भूख मिटाऊँ ? ब्याह कर पत्नी लाने से तो बल्कि भोजन और बैठकर कम ही मिलेगा । इस विचार से वह भरसक पत्नी का मुख ही नहीं देखता तो क्या कामोभोग करेगा ! स्त्रियाँ भी चाहे कामातुर हों फिर भी पुरुष को दरिद्र देखकर उसे छूना भी नहीं चाहतीं जैसे कीड़े पड़े शव को कोई नहीं छूना चाहता । ब्राह्म आदि विधि - अनुसारी विवाहों से प्राप्त तथा पतिव्रता भी स्त्री जब भूख से अतीव पीडित होती है तब अपने दरिद्र पति की मौत चाहने लगती है । श्री के मद को मिटाकर धर्मरूप निधि दिखाने वाला सिद्धांजन है द्रारिद्र्य ! जैसे कोई अपनी माता को कामुकदृष्टि से नहीं देखता ऐसे ही निर्धन भी किसी स्त्री की ओर कामदृष्टि से देखता नहीं । एक अन्न छोड़कर वह कुछ और कभी नहीं चाहता । { यहाँ धर्मभीरु दरिद्र की मनः स्थिति समझनी चाहिये ।}।
नारायण ! राजा आदि से और धर्मराज से हमेशा डरने वाला दरिद्र कभी किसी पर क्रोध नहीं करता जैसे विवेकी सज्जन क्रोध से दूर रहते हैं । { धनी तो उत्कोच या घूस आदि द्वारा राजा से और प्रायश्चित द्वारा धर्मराज से बचने की आशा में मौके पर क्रोध कर लेता है । } दरिद्र यों विचार कर पाप से बचता है - पहले किये पापों का फल तो मैंने यह दरिद्रता पायी है , जिससे अधिक दुःखद पापफल और कुछ नहीं , अब और पापकर अपने लिये दुःख क्यों बढ़ाऊँ ? जैसे महापापी का अनादर सारा समाज करता है , ऐसे ही दरिद्र का तिरस्कार माता , पत्नी , पुत्रादि सभी करते हैं । जैसे जो देख ले कि जहरीला साँप पड़ा है वह उसे लांघने की कोशिश नहीं करता , ऐसे ही गरीबी के कारणभूत पाप के फल का स्वयं अनुभव कर पुनः पाप कैसे करूँ ? धर्मज्ञान से शून्य दरिद्र भी पाप नहीं कर पाता तो जो पुरुष धर्म जानता है वह नहीं करता इसमें कहना ही क्या ! पाप से डरा निर्धन परस्त्री या पराया धन नहीं हथियाना चाहता । भूख से परेशान गरीब थोड़ा - बहुत जो कुछ मिल जाये उसी से हमेशा सन्तोष कर लेता है । सावशेष ......
नारायण स्मृतिः
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