∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! पूर्व क्रम के सत्संग में यह प्रश्न उठा था कि " बाल्य " , " पाण्डित्य " , और " मौन " को छोड़कर और कौन - सा उपाय है जिससे " ब्रह्मभावात्मक ब्राह्मणता " मिलती है?
उत्तर है कि इन से ही ब्रह्मता मिलती है , इनके बिना नहीं । राग - द्वेष से रहित होना, गुरुदेव भगवान् से वेदान्तशास्त्र का रहस्य समझना और विचार एवं ध्यान से खुद रहस्य के बारे में निःशंक होना ; ये तीन ही विचारकों द्वार बताये साधन हैं । इनमें युक्त ब्राहण ही ब्रह्मज्ञान में परिनिष्ठित होता है । इन तीनों को ही श्रुतियों में अर्थात् वेदों में बाल्य, पाण्डित्य व मौन कहा है । { श्रुति में प्रश्न है " वह किस उपाय से ब्राह्मण होता है " और उत्तर है " जिस उपाय से होता है उससे ऐसा ही होता है । " इसी का यहाँ स्पष्टीकरण है कि वहाँ इसी फल के लिये उपायान्तर की अनुमति नहीं वरन् इन्हीं का अवधारण है ।
नारायण ! नाम - रूपात्मक द्वैत से निरपेक्ष साक्षाद् अपरोक्ष आनन्द " भूमतत्त्व " ही ब्रह्म है और जिसे उसका ऐसा निर्विकल्पक ज्ञान है जिसमें ज्ञाता - ज्ञान - ज्ञेय यह जिक्र नहीं होता , वह ब्राह्मण है । यह ब्राह्मण पूर्वोक्त उपायों से ही बनता है , अन्य तरीके से नहीं । तथापि प्रधान यह है कि साधक निर्विशेष परिपूर्ण चेतन का निर्विकल्पक निश्चयात्मक अपरोक्ष पा ले । अतः साधनों की इयत्ता में मेरा अर्थात् { याज्ञवल्क्य का} कोई अभिनिवेश नहीं , इतना ही तात्पर्य है कि ये उपाय तो अवश्य इस उपेय को सम्पन्न करते हैं । नदी से पार नाव अर्थात् नौका से जा सकते हैं और सेतु आदि से भी । जहाँ सेतु अर्थात् पुल bridge की सुविधा हो वहाँ नाव अर्थात् नौका boats ही जाने का आग्रह क्यों होगा ! अगर नदी गहरी हो , बहाव तेज हो और पाट चौड़ा हो तो सेतु का निर्माण कर नदी पार करने की अपेक्षा नौका का प्रयोग ही समुचित होता है । ऐसी स्थिति में सेतु आदि को उपाय नहीं माना जाता । { जो नदियाँ अपना बहाव बदलती रहती हैं उन पर सेतु बनाना भी अव्यावहारिक होता है , वहाँ नौका ही प्रयोग सुलभ होता है । } इसी प्रकार प्रकृत ब्राह्मणता पाने के लिये बाल्यादि ही साधन हैं, अन्य तरीकों से ऐसी ब्राह्मणता नहीं मिलती ।
{ अर्थात् हिरण्यगर्भोपासनादि उपाय भी हैं पर एक उनमें काल बहुत लगता है और दूसरा उनके अवल्मबन के बाद भी बाल्यादि का सहारा तो फिर भी चाहिये ही । अतः सीधे ही इन उपायों का अनुष्ठान करना उचित है । वस्तुतस्तु निर्विशेष आत्मबोध के अव्यभिचारी साधन ये ही हैं , उपासनादि तो तत्तत् फलों के लिये हैं , भले ही उन फलों सहित ऐसी शुद्धि भी सिद्ध हो जाये कि धूप - छाया की तरह सुस्पष्ट आत्मज्ञान सुलभ हो जाये । }
नारायण ! धर्मात्मा " कहोल मुनि " ने यों ब्रह्मभाव के साधनों को खुलासा समझकर आगे कुछ भी पूछना जरूरी न समझा , क्योंकि साधनों का यों निश्चय उसी को संभव है जिसने साध्य पा लिया है , यह उन्हें पूणरूपेण समझ आ गया । अपने सामने बैठी " गार्गी " की ओर देखकर " कहोल " चुप हो गये । { ज्ञात रखें कहोल मुनि अष्टावक्र के पिता थे }
नारायण ! उपनिषद् में " कहोल " के बाद " गार्गी " ने प्रश्न किया है किन्तु उसमें कुछ अनौचित्य होने से याज्ञवल्क्य ने उसे सावधान किया तो वह चुप हो गयी । तब " उद्दालक " ने " सूत्रात्मा " व " अन्तर्यामी " के बारे में पूछा जिसपर विस्तृत प्रकाश महामुनिवर्य ने डाल दिया तो " गार्गी " ने पुनः 2 दो प्रश्न पूछे , जिनमें द्वितीय के उत्तर में " अक्षर तत्त्व " का विस्तृत वर्णन याज्ञवल्क्य महर्षि महाभाग ने किया । ज्ञेय ब्रह्म की चर्चा वहीं तक है। फिर " शाकल्य " ने कर्म व उपासना के प्रश्न उठाये हैं । " गार्गी " सम्बन्धी 2 दो ब्राह्मणों में प्रथम का विस्तार अब बताते हैं :
नारायण ! " वचक्नु ऋषि " की एक प्रसिद्ध पुत्री हो चुकी है " गार्गी " । वह तर्कप्रधान बुद्धि की महाधनी थीं । प्रतिज्ञा आदि न्यायशास्त्रप्रसिद्ध 5 पाँच हिस्सों वाले अनुमान का चिन्तन कर उसी के सहारे उसने मुनिवर्य याज्ञवल्क्य से प्रश्न किया –
हे याज्ञवल्त्य ! कार्य हमेशा कारण से घिरा रहता है और कार्य के भीतर भी कारण घुसा रहता है । इसमें हेतु उषका कार्य होना ही है । उदाहरार्थ पट अर्थात् कपड़ा कार्य है तो उसके भीतर - बाहर उसके कारणभूत तन्तु ही उसे घेरे रहते हैं । ऐसे ही सारा ब्रह्माण्ड { पार्थिव पदार्थ } भी कार्य कहा गया है और स्थावर - जंगमों सहित यह ब्रह्माण्ड { सभी पार्थिव पदार्थ } भीतर - बाहर से जल द्वारा घिरा है क्योंकि जल को पृथ्वी का कारण माना जाता है । यदि जल घिरा न होता तो मुट्ठी भर सत्तु की तरह ब्रह्माण्ड बिखर जाता! किन्तु जल भी तो कार्य है , अतः यह बताओ कि जल किसमें ओत - प्रोत है अर्थात् उसे भीतर - बाहर से किसने घेर रखा है ?
नारायण ! मुनिवर्य याज्ञवल्क्य ने बताया - " गार्गी ! " जल अपने कारणभूत वायु में ओत - प्रोत है , उससे घिरा है । तुम फूछ सकती हो कि उपनिषदों के मानने वालों के अनुसार जलक का उपादान तेज होने से उसमें ओत - प्रोत कहना चाहिये , वायु में ओत - प्रोत क्यों कहा ? मेरा अभिप्राय है कि लोक में वह्नि अर्थात् आग आदि रूप तेज काष्ठ आदि रूप इन्धन में ही मिलता है , बल्कि जल को वह्नि का विरोधी मानते हैं , इसलिये जिस वायु के बिना तेज नहीं मिलता उसे सी मैंने व्यापक कहा है। जल का साक्षात् उपादान वायु है यह मेरा कथन नहीं । बिना ईंधन के जल को ही उपादान मानने वाली वह्नि शास्त्र में भले ही प्रसिद्ध हो , लोक में प्रायः नहीं मिलती , इसलिये सामान्य दृष्टि से स्पष्टता रखने के लिये जल छोड़कर वायु का उल्लेख किया है । फिर भी शास्त्रविरोध नहीं क्योंकि तेज का कारण वायु है ही , अतः तेज द्वारा वह जल को ओत - प्रोत करता ही है, यहाँ केवल द्वार का उल्लेख नहीं किया इतने से मुख्य बात में अन्तर न आने से शास्त्र का अपलाप नहीं हुआ ।
नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि के उत्तर से " वाचकन्वी गार्गी " पुनः - पुनः ओत - प्रोतता का प्रश्न उठाती गयी : सो बताते हैं - " वचकन्वी गार्गी " ने पूछा " वायु किसमें ओत - प्रोत है ? " महर्षि याज्ञवल्क्य ने बताया " अन्तरिक्ष लोकों में । " " गर्न्धर्व लोक में । " " गन्धर्वलोक " ? यायु , अन्तरिक्ष नामक लोक , गन्धर्व जाति वालों के लोक , सूर्य व चन्द्र के लोक , नक्षत्रलोक , देवलोक , देवेन्द्रलोक , प्रजापतिरूप परमात्मा के लोक - इन सबके बारे में जैसे - जैसे महामुनि वचकन्वी गार्गी को बताते गये गार्गी भी प्रत्येक से व्यापक का प्रश्न उठाती गयी । लोको का बहुवचनांत उल्लेख यह घोषित करने के लिये है कि वे 5 पाँचभौतिक ही हैं । पूर्वलोक का आश्रय अगला लोक है । यह इस क्रम में नियम है । वायु का आधार अन्तरिक्ष लोक कहा है जिसका अभिप्राय इस आकाश से ही है जो जगह रूप से सर्वत्र प्रसिद्ध है । गन्धर्वलोक से इन्द्रलोक तक के शब्द महाभूतों की क्रमशः सूक्ष्म - सुक्ष्मतर अवस्था के बोधक हैं । अर्थात् अन्तरिक्ष आकार में परिणत महाभूतों से सूक्ष्म वे हैं जो गन्धर्वशरीर के आरम्भक भूत हैं तथा उनसे सूक्ष्म हैं सूर्यलोक के आरम्भक भूत, इत्यादि । पूर्व - पूर्व से सूक्ष्म होने पर भी हर अगले लोक से पूर्व लोक स्थूल ही रहता है। इन्द्रलोक तक जो महाभूतों की 6 छह अवस्थायें कहीं हैं , उनमें यही न्याय समझना चाहिये ।
नारायण ! इन्द्रलोक , प्रजापतिलोक तथा ब्रह्मलोक का स्पष्टीकरण भी कर देते हैं : यहाँ विराट् को इन्द्र लोक कहा गया है , जिसने इस सबको - सभी दृश्य को - आत्मरूप से देख लिया था । यह सारा विश्व विराट् के शरीर में ही विद्यमान है । प्रजापति यहाँ उस सूत्रात्मा को कहा है जो ब्रह्माण्ड - गोलक से बाहर भी मौजूद है , जिस परम महेश्वर के बारे में कहा गया था कि " पारिक्षित " उसे प्राप्त करते हैं । ब्रह्मलोक यहाँ सूत्रात्मा की भी अव्यक्त स्थिति कही है जो सभी कुछ का कारण है और माया , अज्ञान आदि नामों से भी जाना जाता है । समष्टिरूप से वह एक है और व्यष्टिरूपों से अनेक हैं।
नारायण ! कार्य हमेशा कारण से भीतर - बाहर घिरा ही रहता है । आखिरी कारण है माया जो यद्यपि आत्मरूप में - आत्मा की ही रूप्यमाण , प्रतियमान स्थिति में वर्तमान है तथापि अनुमानों से उसका निश्चय कभी नहीं किया जा सकता क्योंकि व्याप्ति , लिंग आदि उपलब्ध नहीं है । { बतायी गयी व्याप्ति है कि कार्य में कारण व्याप्त रहता है ; अतः लिंग हुआ कार्य होना । अव्याकृत { माया } तो कार्य नहीं है तब उसे व्याप्त करने वाला जो आत्मा है , उसे उक्त अनुमान द्वारा कैसे कहा - समझा जाये ? आत्मा कारण भी है नहीं कि स्वस्वभाववश ही माया को व्याप्त करले ; वास्तव में तो सूत्रात्मा भी अनुमानसिद्ध नहीं, इसीलिये तार्किकों ने इसका कहीं उल्लेख नहीं किया है । यह शास्त्रैकगम्य वस्तु है ।} किन्तु प्रश्न के उत्साह में " वचकन्वी गार्गी " ने यह विचार नहीं किया कि अब तर्कमूलक प्रश्नों की चरम सीमा पर बात पहुँच चुकी है ; बिना विचारे उसने सिर्फ शास्त्र से जिसे सही तरह समझा जा सकता है उसे मूर्खतापूर्ण अनुमान के ढंग से जब " वचकन्वी गार्गी " ने पूछा तो वे मुनिश्रेष्ठ प्रातःस्मरीय याज्ञवल्क्य उस गागी से बोले –
हे ! गागी ! तुने प्रश्न - मर्यादा लाँघ यह सवाल व्यर्थ ही उठाया है । सभी का अधिष्ठान जो आत्मा है उसे कभी कोई अनुमान से नहीं समझ सकता , अतः इस परा देवता के बारे में तुझे अनुमान के सहारे प्रश्न नहीं पूछना चाहिये । गार्गी ! मनोनिष्ठ दुराग्रह के कारण विचार किये बिना यदि पूछने का साहस करेगी - अनुमान से ही समझना चाहेगी - तो तेरी " मूर्धा "भूमि पर गिर जायेगी ! उत्कृष्ट को निकृष्टतुल्य मान लेने से अनर्थ होता है । यह आनुमानिक निर्णय सही नहीं कि अर्जुन के हाथ में स्थित " पाशुपताशस्त्र " अन्य फाणों के समान ही है क्योंकि है तो अस्त्र ही , जैसे अन्य योद्धाओं के बाणादि ! यदि हठ से कोई इस अनुमान को " प्रमा " मानेगा तो इसी भरोसे लड़ने पहुँच जायेगा और वह " दिव्यास्त्र " तुरन्त उसका मस्तक काट कर गिरा देगा । इसी तरह अत्याधिक क्रोधी को परम्परा से ज्ञात "शत्रुमारण" के अथर्ववेदीय मन्त्रों को कोई अनुमान से प्राकृत अक्षरों के तुल्य समझ कर उन ब्राह्मणों को उत्तेजित कर देगा तो वे उन मन्त्रों के बल पर उसकी गर्दन काट ही देंगे । ऐसे ही देवाधिदेव के बारे में जैसे नहीं पूछना चाहिये वैसे पूछेगी तो तेरी भी दुर्गती अवश्य होगी ।
नारायण ! यह सुनकर " वाचकन्वी गार्गी " बहुत डर गयी , किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी । यह तुरन्त " उद्धालक आरुणि " के निकट जाकर बैठ गयी ताकि अब वे कोई प्रश्न उठायें ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! पूर्व क्रम के सत्संग में यह प्रश्न उठा था कि " बाल्य " , " पाण्डित्य " , और " मौन " को छोड़कर और कौन - सा उपाय है जिससे " ब्रह्मभावात्मक ब्राह्मणता " मिलती है?
उत्तर है कि इन से ही ब्रह्मता मिलती है , इनके बिना नहीं । राग - द्वेष से रहित होना, गुरुदेव भगवान् से वेदान्तशास्त्र का रहस्य समझना और विचार एवं ध्यान से खुद रहस्य के बारे में निःशंक होना ; ये तीन ही विचारकों द्वार बताये साधन हैं । इनमें युक्त ब्राहण ही ब्रह्मज्ञान में परिनिष्ठित होता है । इन तीनों को ही श्रुतियों में अर्थात् वेदों में बाल्य, पाण्डित्य व मौन कहा है । { श्रुति में प्रश्न है " वह किस उपाय से ब्राह्मण होता है " और उत्तर है " जिस उपाय से होता है उससे ऐसा ही होता है । " इसी का यहाँ स्पष्टीकरण है कि वहाँ इसी फल के लिये उपायान्तर की अनुमति नहीं वरन् इन्हीं का अवधारण है ।
नारायण ! नाम - रूपात्मक द्वैत से निरपेक्ष साक्षाद् अपरोक्ष आनन्द " भूमतत्त्व " ही ब्रह्म है और जिसे उसका ऐसा निर्विकल्पक ज्ञान है जिसमें ज्ञाता - ज्ञान - ज्ञेय यह जिक्र नहीं होता , वह ब्राह्मण है । यह ब्राह्मण पूर्वोक्त उपायों से ही बनता है , अन्य तरीके से नहीं । तथापि प्रधान यह है कि साधक निर्विशेष परिपूर्ण चेतन का निर्विकल्पक निश्चयात्मक अपरोक्ष पा ले । अतः साधनों की इयत्ता में मेरा अर्थात् { याज्ञवल्क्य का} कोई अभिनिवेश नहीं , इतना ही तात्पर्य है कि ये उपाय तो अवश्य इस उपेय को सम्पन्न करते हैं । नदी से पार नाव अर्थात् नौका से जा सकते हैं और सेतु आदि से भी । जहाँ सेतु अर्थात् पुल bridge की सुविधा हो वहाँ नाव अर्थात् नौका boats ही जाने का आग्रह क्यों होगा ! अगर नदी गहरी हो , बहाव तेज हो और पाट चौड़ा हो तो सेतु का निर्माण कर नदी पार करने की अपेक्षा नौका का प्रयोग ही समुचित होता है । ऐसी स्थिति में सेतु आदि को उपाय नहीं माना जाता । { जो नदियाँ अपना बहाव बदलती रहती हैं उन पर सेतु बनाना भी अव्यावहारिक होता है , वहाँ नौका ही प्रयोग सुलभ होता है । } इसी प्रकार प्रकृत ब्राह्मणता पाने के लिये बाल्यादि ही साधन हैं, अन्य तरीकों से ऐसी ब्राह्मणता नहीं मिलती ।
{ अर्थात् हिरण्यगर्भोपासनादि उपाय भी हैं पर एक उनमें काल बहुत लगता है और दूसरा उनके अवल्मबन के बाद भी बाल्यादि का सहारा तो फिर भी चाहिये ही । अतः सीधे ही इन उपायों का अनुष्ठान करना उचित है । वस्तुतस्तु निर्विशेष आत्मबोध के अव्यभिचारी साधन ये ही हैं , उपासनादि तो तत्तत् फलों के लिये हैं , भले ही उन फलों सहित ऐसी शुद्धि भी सिद्ध हो जाये कि धूप - छाया की तरह सुस्पष्ट आत्मज्ञान सुलभ हो जाये । }
नारायण ! धर्मात्मा " कहोल मुनि " ने यों ब्रह्मभाव के साधनों को खुलासा समझकर आगे कुछ भी पूछना जरूरी न समझा , क्योंकि साधनों का यों निश्चय उसी को संभव है जिसने साध्य पा लिया है , यह उन्हें पूणरूपेण समझ आ गया । अपने सामने बैठी " गार्गी " की ओर देखकर " कहोल " चुप हो गये । { ज्ञात रखें कहोल मुनि अष्टावक्र के पिता थे }
नारायण ! उपनिषद् में " कहोल " के बाद " गार्गी " ने प्रश्न किया है किन्तु उसमें कुछ अनौचित्य होने से याज्ञवल्क्य ने उसे सावधान किया तो वह चुप हो गयी । तब " उद्दालक " ने " सूत्रात्मा " व " अन्तर्यामी " के बारे में पूछा जिसपर विस्तृत प्रकाश महामुनिवर्य ने डाल दिया तो " गार्गी " ने पुनः 2 दो प्रश्न पूछे , जिनमें द्वितीय के उत्तर में " अक्षर तत्त्व " का विस्तृत वर्णन याज्ञवल्क्य महर्षि महाभाग ने किया । ज्ञेय ब्रह्म की चर्चा वहीं तक है। फिर " शाकल्य " ने कर्म व उपासना के प्रश्न उठाये हैं । " गार्गी " सम्बन्धी 2 दो ब्राह्मणों में प्रथम का विस्तार अब बताते हैं :
नारायण ! " वचक्नु ऋषि " की एक प्रसिद्ध पुत्री हो चुकी है " गार्गी " । वह तर्कप्रधान बुद्धि की महाधनी थीं । प्रतिज्ञा आदि न्यायशास्त्रप्रसिद्ध 5 पाँच हिस्सों वाले अनुमान का चिन्तन कर उसी के सहारे उसने मुनिवर्य याज्ञवल्क्य से प्रश्न किया –
हे याज्ञवल्त्य ! कार्य हमेशा कारण से घिरा रहता है और कार्य के भीतर भी कारण घुसा रहता है । इसमें हेतु उषका कार्य होना ही है । उदाहरार्थ पट अर्थात् कपड़ा कार्य है तो उसके भीतर - बाहर उसके कारणभूत तन्तु ही उसे घेरे रहते हैं । ऐसे ही सारा ब्रह्माण्ड { पार्थिव पदार्थ } भी कार्य कहा गया है और स्थावर - जंगमों सहित यह ब्रह्माण्ड { सभी पार्थिव पदार्थ } भीतर - बाहर से जल द्वारा घिरा है क्योंकि जल को पृथ्वी का कारण माना जाता है । यदि जल घिरा न होता तो मुट्ठी भर सत्तु की तरह ब्रह्माण्ड बिखर जाता! किन्तु जल भी तो कार्य है , अतः यह बताओ कि जल किसमें ओत - प्रोत है अर्थात् उसे भीतर - बाहर से किसने घेर रखा है ?
नारायण ! मुनिवर्य याज्ञवल्क्य ने बताया - " गार्गी ! " जल अपने कारणभूत वायु में ओत - प्रोत है , उससे घिरा है । तुम फूछ सकती हो कि उपनिषदों के मानने वालों के अनुसार जलक का उपादान तेज होने से उसमें ओत - प्रोत कहना चाहिये , वायु में ओत - प्रोत क्यों कहा ? मेरा अभिप्राय है कि लोक में वह्नि अर्थात् आग आदि रूप तेज काष्ठ आदि रूप इन्धन में ही मिलता है , बल्कि जल को वह्नि का विरोधी मानते हैं , इसलिये जिस वायु के बिना तेज नहीं मिलता उसे सी मैंने व्यापक कहा है। जल का साक्षात् उपादान वायु है यह मेरा कथन नहीं । बिना ईंधन के जल को ही उपादान मानने वाली वह्नि शास्त्र में भले ही प्रसिद्ध हो , लोक में प्रायः नहीं मिलती , इसलिये सामान्य दृष्टि से स्पष्टता रखने के लिये जल छोड़कर वायु का उल्लेख किया है । फिर भी शास्त्रविरोध नहीं क्योंकि तेज का कारण वायु है ही , अतः तेज द्वारा वह जल को ओत - प्रोत करता ही है, यहाँ केवल द्वार का उल्लेख नहीं किया इतने से मुख्य बात में अन्तर न आने से शास्त्र का अपलाप नहीं हुआ ।
नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि के उत्तर से " वाचकन्वी गार्गी " पुनः - पुनः ओत - प्रोतता का प्रश्न उठाती गयी : सो बताते हैं - " वचकन्वी गार्गी " ने पूछा " वायु किसमें ओत - प्रोत है ? " महर्षि याज्ञवल्क्य ने बताया " अन्तरिक्ष लोकों में । " " गर्न्धर्व लोक में । " " गन्धर्वलोक " ? यायु , अन्तरिक्ष नामक लोक , गन्धर्व जाति वालों के लोक , सूर्य व चन्द्र के लोक , नक्षत्रलोक , देवलोक , देवेन्द्रलोक , प्रजापतिरूप परमात्मा के लोक - इन सबके बारे में जैसे - जैसे महामुनि वचकन्वी गार्गी को बताते गये गार्गी भी प्रत्येक से व्यापक का प्रश्न उठाती गयी । लोको का बहुवचनांत उल्लेख यह घोषित करने के लिये है कि वे 5 पाँचभौतिक ही हैं । पूर्वलोक का आश्रय अगला लोक है । यह इस क्रम में नियम है । वायु का आधार अन्तरिक्ष लोक कहा है जिसका अभिप्राय इस आकाश से ही है जो जगह रूप से सर्वत्र प्रसिद्ध है । गन्धर्वलोक से इन्द्रलोक तक के शब्द महाभूतों की क्रमशः सूक्ष्म - सुक्ष्मतर अवस्था के बोधक हैं । अर्थात् अन्तरिक्ष आकार में परिणत महाभूतों से सूक्ष्म वे हैं जो गन्धर्वशरीर के आरम्भक भूत हैं तथा उनसे सूक्ष्म हैं सूर्यलोक के आरम्भक भूत, इत्यादि । पूर्व - पूर्व से सूक्ष्म होने पर भी हर अगले लोक से पूर्व लोक स्थूल ही रहता है। इन्द्रलोक तक जो महाभूतों की 6 छह अवस्थायें कहीं हैं , उनमें यही न्याय समझना चाहिये ।
नारायण ! इन्द्रलोक , प्रजापतिलोक तथा ब्रह्मलोक का स्पष्टीकरण भी कर देते हैं : यहाँ विराट् को इन्द्र लोक कहा गया है , जिसने इस सबको - सभी दृश्य को - आत्मरूप से देख लिया था । यह सारा विश्व विराट् के शरीर में ही विद्यमान है । प्रजापति यहाँ उस सूत्रात्मा को कहा है जो ब्रह्माण्ड - गोलक से बाहर भी मौजूद है , जिस परम महेश्वर के बारे में कहा गया था कि " पारिक्षित " उसे प्राप्त करते हैं । ब्रह्मलोक यहाँ सूत्रात्मा की भी अव्यक्त स्थिति कही है जो सभी कुछ का कारण है और माया , अज्ञान आदि नामों से भी जाना जाता है । समष्टिरूप से वह एक है और व्यष्टिरूपों से अनेक हैं।
नारायण ! कार्य हमेशा कारण से भीतर - बाहर घिरा ही रहता है । आखिरी कारण है माया जो यद्यपि आत्मरूप में - आत्मा की ही रूप्यमाण , प्रतियमान स्थिति में वर्तमान है तथापि अनुमानों से उसका निश्चय कभी नहीं किया जा सकता क्योंकि व्याप्ति , लिंग आदि उपलब्ध नहीं है । { बतायी गयी व्याप्ति है कि कार्य में कारण व्याप्त रहता है ; अतः लिंग हुआ कार्य होना । अव्याकृत { माया } तो कार्य नहीं है तब उसे व्याप्त करने वाला जो आत्मा है , उसे उक्त अनुमान द्वारा कैसे कहा - समझा जाये ? आत्मा कारण भी है नहीं कि स्वस्वभाववश ही माया को व्याप्त करले ; वास्तव में तो सूत्रात्मा भी अनुमानसिद्ध नहीं, इसीलिये तार्किकों ने इसका कहीं उल्लेख नहीं किया है । यह शास्त्रैकगम्य वस्तु है ।} किन्तु प्रश्न के उत्साह में " वचकन्वी गार्गी " ने यह विचार नहीं किया कि अब तर्कमूलक प्रश्नों की चरम सीमा पर बात पहुँच चुकी है ; बिना विचारे उसने सिर्फ शास्त्र से जिसे सही तरह समझा जा सकता है उसे मूर्खतापूर्ण अनुमान के ढंग से जब " वचकन्वी गार्गी " ने पूछा तो वे मुनिश्रेष्ठ प्रातःस्मरीय याज्ञवल्क्य उस गागी से बोले –
हे ! गागी ! तुने प्रश्न - मर्यादा लाँघ यह सवाल व्यर्थ ही उठाया है । सभी का अधिष्ठान जो आत्मा है उसे कभी कोई अनुमान से नहीं समझ सकता , अतः इस परा देवता के बारे में तुझे अनुमान के सहारे प्रश्न नहीं पूछना चाहिये । गार्गी ! मनोनिष्ठ दुराग्रह के कारण विचार किये बिना यदि पूछने का साहस करेगी - अनुमान से ही समझना चाहेगी - तो तेरी " मूर्धा "भूमि पर गिर जायेगी ! उत्कृष्ट को निकृष्टतुल्य मान लेने से अनर्थ होता है । यह आनुमानिक निर्णय सही नहीं कि अर्जुन के हाथ में स्थित " पाशुपताशस्त्र " अन्य फाणों के समान ही है क्योंकि है तो अस्त्र ही , जैसे अन्य योद्धाओं के बाणादि ! यदि हठ से कोई इस अनुमान को " प्रमा " मानेगा तो इसी भरोसे लड़ने पहुँच जायेगा और वह " दिव्यास्त्र " तुरन्त उसका मस्तक काट कर गिरा देगा । इसी तरह अत्याधिक क्रोधी को परम्परा से ज्ञात "शत्रुमारण" के अथर्ववेदीय मन्त्रों को कोई अनुमान से प्राकृत अक्षरों के तुल्य समझ कर उन ब्राह्मणों को उत्तेजित कर देगा तो वे उन मन्त्रों के बल पर उसकी गर्दन काट ही देंगे । ऐसे ही देवाधिदेव के बारे में जैसे नहीं पूछना चाहिये वैसे पूछेगी तो तेरी भी दुर्गती अवश्य होगी ।
नारायण ! यह सुनकर " वाचकन्वी गार्गी " बहुत डर गयी , किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी । यह तुरन्त " उद्धालक आरुणि " के निकट जाकर बैठ गयी ताकि अब वे कोई प्रश्न उठायें ।
सावशेष .....
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