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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 17 ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! पूर्व के सत्संग क्रम में बतलाया गया था कि अध्यात्म मन ही हिरण्यगर्भ है , अतः ईश्वर हिरण्यगर्भ द्वारा विराट् बनते है ।
उदाहरण से यह विषय और सुस्पष्ट होगा : भींत पर पहले रेखांकन किया जाता है । रेखाचित्र में सफेद आदि रंग भरे जाते हैं । रंगों में मुँह , अंजन , मुख आदि द्रव्यों का व्यवहार होता है । किन्तु सभी कुछ प्रतिष्ठित भींत पर ही है । ऐसे ही हृदयकमल से अवच्छिन्न परमात्मा में दिगादिरूपव आदित्यादिदेवतारूप यह विश्व साक्षात् या परम्परा से प्रतिष्ठित है । वृत्तियों समेत अन्तःकरण साक्षात् और बाकी सब परम्परा से स्थित है । भींत पर मिट्टी का लेप कर दें तो चित्र नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार ब्रह्मानुभूतिरूप मिट्टी का लेप कर देने से यह हृदयप्रतिष्ठित चित्र भी बाधित हो जाता है । भींत तो समतल होती है पर चित्र में नीचा - ऊँचापन दीखता है , गहराई आदि दीखती है । ऐसे ही हृदय से अवच्छिन्न आत्मा तो सम है जिसपर यह उत्कर्ष - अपकर्ष वाला विश्वात्मक चित्र प्रतीत हो ऱहा है । जैसे विविध रंगों से दीवाल पर चित्र बनाया जाता है वैसे अज्ञानजन्य नानाविध विपर्ययात्मक ज्ञानों से हृदयात्मा में विश्वचित्र तैयार होता है । जैसे हमेशा चित्रकार ही भींत पर चित्र बनाता है ऐसे प्रतिदिन बुद्धि हृदय में विश्वचित्र बनाती है । { ईश्वर भी बुद्धि के अवच्छेद से रहने वाले कर्मसंस्कारों की अपेक्षा से ही बनाते हैं अतः बुद्धि की हेतुता है ही।} चित्रणीय शरीर के अंगों के आकार में कटा लकड़ी , गत्ते आदि बिम्ब { पुतला } रोशनी रहते दीवाल के सामने लाया जाने पर केवल संनिधिवश भींत पर तुरन्त चित्राकार { छायारूप में } उत्पन्न कर देता है । इस कार्य में भींत की सहायता भी सराहनीय है क्योंकि बिम्ब की संनिधिसे ही वह खुद पर चित्राकार बना लेता है , दीवाल ही न होती तो चित्र { छाया } बनता कहाँ ! इसी प्रकार विश्वरूपचित्र हृदय में बना है । यहाँ मायाविशिष्ट ब्रह्म भींत है और नाना वासनाओं वाली बुद्ध बिम्ब - पुतला - है ।
नारायण ! संसारचित्र पूर्णतः तभी समाप्त होग जब भींतस्थानीय मायाविशिष्ट ब्रह्म की विशेषणभूत माया का बाध , निरबशेष नाश , हो और प्रपञ्चप्रतीतिरूप औपाधिक कार्य के प्रति प्रयोजक प्रारब्धरूप उपाधि न रह जाये । मायाबाध होने पर भी जीवन चलते समय विश्वानुभूति हुआ करती है यद्यपि विचार काल में प्रपञ्चदर्शन नहीं होता और व्यवहारकाल में भी जगत्सत्यता का अनुदर्शन नहीं रहता । भाष्यकार शङ्कर चित्रोदाहरण से ही बृहदारण्यक भाष्य में प्रकट करते हैं : सचित्र भींत पर बार - बार मिट्टी का लेप करने पर चित्र दीखना बन्द हो जाता है , हालाँकि भीतर लेशमात्र तो वह बचा ही रहता है { क्योंकि मिट्टी घुलने पर पहचानी जा सके ऐसी झाई दीख ही जाती है } । विश्वरूच चित्र भी पारब्ध रहने तक हृदय में बना ही रहता है , चाहे लेशमात्र हो , किन्तु ब्रह्माकारवृत्ति रूप मिट्टी का आवृत्तिरूप लेप बारम्बार करने से वह चित्र दीखना बन्द हो जाता है । क्योंकि मायावी खेल दिखा रहा होता इसलिये आकाश में विविध तरह की सेना आदि दीखते हैं ; ऐसे ही परमार्थतः स्वात्मरूप किन्तु व्ययारदशा में हृदयभूत में बुद्धि के कारण यह विश्व दीखता है। मायावी मर जाये , सो जाये या कार्यान्तर में लग जाये तो आकाश में दीखने वाला वह चित्र दीखना समाप्त हो जाता है , वहाँ दीखने वाले अस्त्र , रथादि और भट अर्थात् सेना , अश्वादि नहीं दीखते । इसी तरह बुद्धि रोगादि से नष्ट हो जाये , सो जाये या आत्मा में समाहित हो जाये तो अभी जो यह विश्व हृदय में दीख रहा है यह उपलब्ध नहीं हुआ करता । { रोग से नाश मूर्छादि अवस्था है । यहाँ इतना ही विवक्षित है कि विश्व का दीखना - न दीखना बुद्धि की बहिर्मुखी कार्यकारिता के होने - न होने पर निर्भर करता है । अतः तत्त्वज्ञान अकेला दृश्यानुपलम्भ नहीं करता वरन् मनोनाश - वासनाक्षय ही उसमें प्रयोजक है । तत्त्वज्ञान तो यह सम्भव कर देता है कि बुद्धिनाश के बाद { प्रारब्धनाश के बाद } पुनः दृश्यदर्शन असम्भव रहे अन्यथा सुषुप्तितुल्य ही समाधि भी रह जायेगी जैसी हिरग्यगर्भों की हुआ करती है।} । आकाश में " स्थित " चित्र दीखने से पूर्व , दीखते समय और दीखना बन्द होने के बाद , हर वक्त केवल मायावी ही था , न कि उससे स्वतन्त्र सत्ता वाला । हृदय में , मायशबल ब्रह्म में , " स्थित " विश्वचित्र भी बुद्धि ही है , और कुछ नहीं । अनुभूति से पूर्व , अनुभूति के समय दा अनुभूति न रह जाने पर, सदा वह चित्र बुद्धि ही है । { यद्यपि विश्वचित्र तीनों कालों में " हृदय " है ऐसा कहना चाहिये था तथापि क्योंकि बुद्धिसंस्कारों के अनुरूप ही विश्वानुभव होता है इसलिये " बुद्धि है " ऐसा कहा। किन्तु स्वाभाविक प्रश्न होता है कि स्वयं कार्यरूप बुद्धि किमात्मिका है अर्थात् उसकी उपलब्धि किंप्रयुक्त है ? इसका उत्तर देते है । - } जैसे नभ में यह अँधेरा किसी रोशनी से नहीं दीखता , अतः कह सकते हैं कि अँधेरे से ही दीखता है , वैसे ही हृदयात्मा में बुद्धि से ही यह बुद्धि प्रतीत होती है । { घट पैदा होता है , बनता या दीखता है , इस सब में घट भी हेतु होना आवश्यक है , अतः आत्मश्रयता को अवकाश रहेगा ही ; बुद्धिदर्शन भी यों आत्माश्रय से पीडित हो तो क्या हानि है ? अनिवर्चनीय संसार मेँ ये दोष होना स्वाभाविक ही है । } साफ आसमान में नीरोग नेत्रों से निरीक्षण करने पर प्रकाश द्वारा अंधकार नहीं देखा जा सकता है । शुद्ध हृदयात्मा में भी आत्मप्रमा द्वारा यह बुद्धि और इसका कारणभूत अज्ञान कभी नहीं दीख सकते ।
नारायण ! जैसे शब्दवश शशश्रृंग स्वाकार विकल्पवृत्ति बना लेता है , वैसे ही कार्यों एवं कारण से सहकृत बुद्धि विविध विपर्ययों को संभव करती है । ऐसा भी नहीं कि बुद्धि ही सद्भिन्न हो , इसका कारणभूत अज्ञान कोई सद्वस्तु हो ! देखा जाता है कि भ्रमसिद्ध अतः सद्भिन्न सर्प होने पर भी कोई डंक लगे और तत्काल कोई कह दे " अरे तुम्हें साँप ने डस लिया ! " तो " मुझे विष चड़ गया " इस विष की शंका से भी लोग मर जाते हैं क्योंकि भय से आतुर हो जाते हैं । ठीक इसी तरह बुद्धि - देहादि { विषों } का कारण { सर्परूप } अज्ञान असत् ही है लेकिन खुद में उसे मानने पर , " मैं अज्ञानी " यह अनुभूति रहते , मानव सुख - दुःख देने वाले इस घोर संसार में भटकते रहते हैं । बेशर्म की तरह अज्ञान प्रतिदिन अपनी यह चमत्कारी योग्यता का नमुना पेश भी करता रहता है , शायद हमें चिढ़ाने के लिये कि " जिससे तुम परेशान हो वह तो ऐसा है , देख लो ! " लेकिन हम हैं कि समझने को तैयार ही नहीं ! सोया पुरुष अकेला ही रहकर सपने में बहुत तरह से " प्रादुर्भूत " हो जाता है : अविध्यावशवर्ती आत्मा भी है एक ही पर नाना तरह से " पैदा " हो जाता है ।
नारायण ! याज्ञवल्क्य महामुनि कहते है - अंधे के हाथ खजाना भी लगे तो भी वह उसे देख नहीं सकता । विदग्ध ! तुम जैसे दुराग्रही स्वचित्तसाक्षिभूत इस " महादेव " को जानो यह भी वैसा ही असम्भव है । { आग्ह अर्थात् दृश्य के प्रति , सविशेष के प्रति राग } शाकल्य ! दृश्यात्मक संसार चित्र का अज्ञानवश आश्रय बने तत्त्व को दिशासम्बद्ध उपासना के वर्णन द्वारा " हृदय " रूप से मैंने विस्तार से समझा दिया । और कुछ पूछना चाहते हो तो बोलो ।
नारायण ! जब मेढक की मौत आती है तो वह टर्र - टर्र कर मानो फणधर सर्प को अपने पास आने के लिये आमन्त्रण देता है ! याज्ञवल्क्य द्वारा यों कार्यब्रह्म और अव9 पाकर कार्यमिथ्यात्व द्वारा अद्वैततत्त्व सुस्पष्ट समझा देने पर भी उपदेश की गंभीरता से बेखबर रहने वाले दा प्रतिष्ठा पाने को उतावले " विदग्ध शाकल्य " ने प्रश्न उठाना छोड़ा नहीं । वह पुनः पूछ रहा है यह देखकर मुनि याज्ञवल्क्य करुणा से दुःखी हो सोचने लगे - अरे बड़े खेद की बात है ! इस दुर्मति की मृत्यु संनिकट है । मेरे गुरु " आदित्यपुरुष " मण्डल से उतर कर सामने आ गये हैं ताकि मेरी जीभ पर बैठकर इसे शाप दें । " त्रवेदी " रूप इन सूर्यदेव को विद्यातिरस्कार देखकर अप्रसन्नता हो गयी है जो इनकी लाल - लाल आँखों से व्यक्त है । अब मेरी जीभ इनके परवश होकर इसे शाप देगी जिले यह मर जायेगा । यह ब्राह्मण है पर मुझे निमित्त बनाकर " भगवान् श्री आदित्य " इसे समाप्त कर देंगे यह सोच महामुनि करुणापीडित थे । " इसके आगे प्रश्न पूछकर यह मर जाये " यही उनका भाव था । लेकिन " विदग्ध शाकल्य " तो मरना ही चाह रहा था ! उस मूर्ख ने पुनः प्रश्न किया - " विश्वचित्र धारण करने वाला हृदय कहाँ प्रतिष्ठित है ? " सावशेष .....
नारायण स्मृतिः

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