∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य " उषस्त चाक्रायण " को बताते है कि "संन्यास" आत्मज्ञान का उपाय है और ज्ञान हो चुकने पर स्वतः सिद्ध है क्योंकि तब सब कामनायें निवृत्त हो जाने से निष्कामता से विशिष्ट आत्मरूप संन्यास ही रह जाता है । केवल इच्छात्याग से परमात्मा की अपरोक्ष जानकारी नहीं होती , उसके लिये श्रवण , मनन , निदिध्यासन अवश्य चाहिये । मुख्यतः तो संन्यास भी ज्ञानोत्पत्ति के समय जरूरी है , फिर भी किसी प्रतिबन्धकवश उसके न हो पाने पर भी ज्ञान हो जाता है , अतः जन्मान्तरीय संन्यास को ज्ञान के प्रति हेतु कहीं - कहीं मान लिया गया है । किन्तु श्रवणादि दृष्ट अर्थात् इसी लोक में होने वाले द्वार से उपकार करते हैं , अतः इनका ज्ञानार्थ अनुष्ठान अव्यभिचारी है । श्रवणादि यत्नसाध्य होने से कर्मविशेष हैं , जिनका फल निश्चयोत्पत्ति तथा असंभावना - विपरीतभावना की निवृत्ति है जिन्हें " दृष्ट द्वार " कहा जाता है, क्योंकि इन्हें संभव करने पर ही अज्ञाननिवृत्ति के लिये सशक्त तत्त्वज्ञान श्रवणादि से उत्पन्न होता है । यद्यपि वैध होने से श्रवणादि का भी अदृष्ट फल होता है तथापि जिस शरीर में तत्त्वज्ञान हो उसी में श्रवणादि को किसी - न - किसी ढंग से उपस्थित तो होना ही पड़ता है चाहे वह स्मरणरूप से ही हो । इसलिये श्रवणादि को विहित ही मानना संप्रदाय - शास्त्र - युक्ति से सिद्ध है ।
नारायण ! कुछ विचारकों ने स्वाध्याय विधि से गुजारा चलाने की कोशिश की है और श्रवणादिविधियों को अनावश्यक करार किया है लेकिन वह न केवल भाष्याशय से विरुद्ध है वरन् मनोविज्ञान के भी प्रतिकूल है ; क्योंकि आदर्श अधिकारी तो हमेशा असंभव ही होगा , हर अधिकारी में कमियाँ होंघी ही जिससे यह ज़रूरी होगा कि उसे श्रवणादि में प्रेरित करने का कोई शक्त उपाय हो । स्वाध्यायविधि तो आपातविचार से भी गतार्थ है । अपरोक्षपर्यन्त विचार ही आवर्तनीय है , यह उस विधि से प्राप्त नहीं होता । अत्यन्त विवेकवैराग्यशील अधिकारी भले ही बिना श्रवणविधि के श्रवण में तत्तपर हो लेकिन सामान्य अधिकारी के लिये वह सम्भव नहीं होगा और प्रायः सभी अधिकारी सामान्य श्रेणी में ही आते हैं । इसलिये वैचारिक लाघव होने पर भी श्रवणादिविधि न मानना ऐसा आग्रह है जो मुमुक्षुओं की श्रवणादितत्परता का अप्रयोजक ही होता है । वस्तुतस्तु विधि उपायज्ञापन ही करती है , अतः तत्त्वबोध के प्रति श्रवणादि की उपायता स्वीकार करने के लिये श्रवणादिविधि अवश्य मान्य है । इन्हें लोकसिद्ध इसलिये नहीं कह सकते कि लोक में न केवल मोक्ष के वरन् तत्त्वज्ञान के भी विभिन्न परस्पर विरुद्धि उपाय आस्तिक - नास्तिक मतावलम्बी मानते व सिखाते देखे जाते हैं । कुछ तो मोक्ष न मानने वाले भी हैं और कैवल्य न मानने वाले तो सभी गैर - अद्वैती हैं ! ऐसे में श्रवणादि की उपायता लोकसिद्ध कहना हास्यास्पद ही है । शास्त्र में शास्त्रीय उपाय का जिज्ञासु होता है । लोक में पुत्रादिलाभ के विविध टोने - टोकटके आदि उपाय हैं , भूतप्रेतादि की अर्चनाये हैं , लेकिन शास्त्रश्रद्धा वाला उन्हें अशास्त्रीय जानकर ही शास्त्रप्रदर्शित उपायों का अनुष्ठान करता है जिससे उन उपायों की विधि सार्थक हो जाती है । ऐसे ही श्रवणादिविधि भी सार्थक है । विधि प्रेरक नहीं लेकिन कर्तव्यबोध प्रेरक बना रहता है , उपाय न करने पर वह बोध ही ग्लानि पैदा कर उपाय के अनुष्ठान के लिये मज़बूर करता है । कर्तव्यबोध श्रद्धास्पद से अवगत विधि का फल है । इसलिये मुमुक्षु को शास्त्र से यह ज्ञात होना चाहिये कि लौकिक प्रवृत्तियाँ छोड़ने पर श्रवणादि उसका कर्तव्य है और इसके लिये विधि ही एकमात्र उपाय है । इसलिये मनोविज्ञान की उपेक्षा से ही कुछ विचारक श्रवणादिविधि मानने से कतराते हैं ।
नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य इनका विधान पाण्डित्य बाल्य और मौन शब्दों से करते हैं । इस प्रसंग को समझाते हैं : लोलुपता - समेत विषयभोग में समर्थ इन्द्रियों का विषयसम्पर्क अवश्य दुःखकारक है यह वेदवेत्ताओं ने माना है , क्योंकि देखा जाता है कि उक्त प्रकार की इन्द्रियों से रहित बालक उन सब दुःखों से बचा रहता है जो वैसी इन्द्रियों वालों को अवश्य होते हैं । इसलिये मुनि को चाहिये कि बालक की तरह अपनी इन्द्रियों को राग - द्वेषवश लोलुप और भोगप्रवण न होने दे । विषयप्रयुक्त सुखों की इच्छायें छोड़कर इसे अपने उस स्वरूप में स्थिर रहना चाहिये जो खुद ही भासने वाले सुख का समुद्र है । इसके लिये जरूरी है कि जो ब्रह्मरूप होना चाहे वह अधिकारी वेदान्तवाक्यों का पदार्थज्ञान और तात्पर्यार्थ का ज्ञान प्राप्त करे जिसे पाण्डित्य कहते हैं । उसे असंदेह समझ लेना चाहिये कि परिवर्तनशील , नश्वर , यह कार्यकरणसंघात आसक्ति द्वारा सारी कामनाओं का जनक है इसलिये दुःखहेतु है । यह तथ्य इस जागरूकता से प्रकाशित होता है कि दुःख तभी होता है जब देहाध्यास हो और देहाध्यास न रहने या अस्फुट हो जाने पर दुःख भी नहीं होता जैसे गहरी नींद में । शरीर की दुःखप्रदता जानकर इस समेत सभी विषयों के प्रति विरक्त होकर वेदान्तों का के अर्थ पर मनन करना चाहिये । बहिर्मुखता रहते मनन कभी सम्भव नहीं ।
नारायण ! श्रीगुरुदेव भगवान् के सदुपदेश से आत्मसाक्षात्कार तो हो जाता है क्योंकि अपरोक्ष वस्तु की प्रमा साक्षात्काररूप होती है किन्तु उसे अविद्यानिवृत्ति के लिये कारगर होने में रुकावट डालती हैं ये भावनायें कि " मेरा ब्रह्म होना संभव नहीं " और " मैं परिच्छिन्न प्रतीत हो रहा हूँ " । इसलिये श्रवण से ज्ञान पाने के बाद साधक को चाहिये कि निजस्वरूप की जानकारी रूप पाण्डित्य बरकरार रखते हुए राग - द्वेषरहिततारूप बचपने में स्थित होकर ध्यान में तत्पर रहे , श्रुत व विचारित आत्मनिश्चय से विपरीत कोई निश्चय न बनने दे और न ही उस तथ्य के प्रति बेखवर रहे । यह ध्यान समाधिरूप भी हो सकता है और श्रवणादि की पुनरावृत्तिरूप भी ; वैयक्तिक मानसिकता के अनुसार प्रक्रिया बदल सकती है पर होना यही चाहिये कि अद्वैतनिश्चय स्थिर हो । श्रुतिमाता ने " निदिध्यासन " को " मुनि " का कर्म कहा है , क्योंकि संन्यासी का वही कृत्य रह जाता है । उसकी निष्ठा निरन्तर इस निश्चय पर टिकने की रहती है कि मैं निर्भय हूँ , वाणी व मनन से विषय किये जाने वाले दृश्यमात्र से विलक्षण स्वरूप वाला हूँ , आनन्द हूँ , प्रत्यक् हूँ , स्वयंप्रकाश हूँ , स्वगत - सजातीय - विजातीयभेदों से रहित हूँ । इस अभिप्राय को शब्द - मुक्ति के सहारे याद रखें या उनके बिना , यही निदिध्यासन है जो मुनियों का कार्य है । श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक लगातार जो " बचपने " रहित " पण्डिताई " और " मौन " का सेवन करता है , वही प्रमुख ब्राह्मण है । जन्मना ब्राह्मण क्योंकि इस निष्ठा को पाने का खाश अधिकारी है इसलिये ब्राह्मण कहलाता है । { "बचपना " अर्थात् रागादि से प्रेरित होकर इन्द्रियों से भोग में लगाना । " पण्डिताई " अर्थात् वेदान्ततात्पर्य का विचार , श्रवण । " मौन " अर्थात् निदिध्यासन । मन को " बचपने " से लक्षित - लक्षणा द्वारा कहा है - { श्रुति में ब्राह्मण से मुमुक्षु अधिकारी कहकर पाण्डित्य से श्रवण का तथा बाल्य से मनन का विधान है । बाल्य अर्थात् बचपना । प्रकृत में रागद्वेषराहित्य लक्षित है और लक्षितलक्षणा से मनन विहित है क्योंकि रागादि न होने पर ही मनन सम्भव है । } यह बता स्पष्ट कर देते हैं ।
प्रश्न हो सकता है कि उपरोक्त बाल्य , पाण्डित्य और मौन को छोड़कर अन्य कोन सा उपाय है जिससे ब्रह्मभावात्मक ब्राह्मणता मिलती है ? इसका उत्तर अगले सत्संग में विचार करेंगे : सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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