सर्वज्ञ शंकरेन्द्र
∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! धनी व्यक्ति लक्ष्मी के नशे में अंधा हो जाता है । वह राजा , देवता व गुरु की भी अवज्ञा कर देता है । उसे अपने धनबल का इतना भरोसा होता है कि बिना विचारे ही श्रेष्ठों का अनादर कर देता है । यों सब दोषों से युक्त होकर धनी असह्य दुःख पाता है और इहलोक परलोक दोनों जगह अनर्थ प्राप्त कर लेता है । मोहग्रस्त व्यक्ति शीघ्र ही अपकीर्ति और धिक्कार ही कमाता है । जैसे आग को जितना ईंधन मिलता जाता है उतन- उतना वह अधिक ईंधन जलाने में समर्थ होती जाती है ऐसे ही धनी व्यक्ति का लोभ भी लाभ से बढ़ता ही जाता है । सागरपर्यन्त सारी पृथ्वी धन भरी हुई भी किसी को मिल जाये तो भी वह सदा स्वर्ग की कामना से ग्रस्त रहता ही है । लोभी अन्यों के पत्नी - धनादि का अपहरण कर उसका उपहास करता है जबकि पापभार से वस्तुतः वह स्वयं शोकयोग्य होता है । उसकी यह मनोवृत्ति स्पष्ट करती है कि धनमद नर की अधमता की सीमा तक पहुँचा देता है । धन के नशे में लोग न अपना हित पहचानते हैं न अहित और इस तरह न केवल अपने हितैषियों से वरन् स्वयं से भी द्वेष करने में हिचकिचाता नहीं क्योंकि उसकी मति धन से संमुग्ध रहती है ।
नारायण ! दरिद्र तो मानो महात्मा है ! उसे न लोभ होता है न मोह । वह तो यों विचारकर बिना उद्यम किये आराम से रहता है - लगातार भी चाहे माँगता रहूँ फिर भी मुझे कोई कुछ देगा तो है नहीं , फिर मैं कोई इच्छा क्यों रखूँ ? { अतः उसमें लोभ नहीं होता । } माँ , बाप , बन्धु , हितैषी आदि मुझे जो बतायें वह मुझे अवश्य करना चाहिये । { अतः उसमें मोह या श्रेष्ठों के प्रति अवज्ञा का भाव नहीं होता । } ।
इस तरह निश्चित है कि काम - क्रोधादि समस्त विकार संसार में धन से उत्पन्न होते हैं। वेदज्ञों में भी धन के निमित्त से लोभादि सम्भव हैं तो बहिर्मुखी जनसामान्य का क्या कहना ।
नारायण ! अतः सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण के निर्णय के लिये मैं { मिथिला नरेश } अतिप्रचुर धन पण { शर्त की राशि } रूप से सभा में स्थापित कर दूँगा । जब कोई उसे ग्रहण करेगा तब बाकी क्रुद्ध होंगे और खुद ही आपसी वादविवाद में प्रवृत्त हो जायेंगे । राजा का धर्म है कि विशिष्ट के सम्मानार्थ उपाय से पता लगाये कि श्रेष्ठ कौन है , अतः यों युक्ति से सर्वश्रेष्ठ की खोज करने पर मुझे कोई पाप भी नहीं लगेगा । अपात्र को धन देने से दाता भी दोषी होता है लेकिन इस प्रक्रिया से सर्वोत्तम को दान देने से मुझे कोई दोष नहीं होगा क्योंकि वह व्यक्ति कोई पाप करेगा नहीं , धन से पापप्रवृत्ति तो नीचों में ही होती है , उत्तमों में नहीं । { नीतिकार कहते हैं कि जो असज्जनों के मदकारी होते हैं वे ही सज्जनों का दमन करने में समर्थ होते हैं । } किं च प्रकृत में कोई खास संशय भी नहीं क्योंकि अवश्य ही यह " सूर्यशिष्य मुनीश्वर वाजसनेयक याज्ञवल्क्य महोदय " ही यहाँ सर्वाधिक श्रेष्ठ है । काम, क्रोध , लोभ , मोह , गर्व आदि कोइ दोष इसमें नहीं क्योंकि किसी तरह के प्रदर्शन से रहित यह शान्ति से बैठा है ।
नारायण ! यह कभी सम्भव नहीं कि यह अपने उपभोग के लिये धन ले । यह विप्र तो अनुग्रह से भरा हुआ है । लगभग तय है कि यही बाकी ब्राह्मणों पर विजय हासिल करेगा। इसके हाथ लगा तो यह धन वैसे ही सबके उपकार में लगेगा जैसे इसका शरीर सबका हित कर रहा है । इसे मुझपर अपार स्नेह है , तभी बार - बार मेरी ओर नज़र करता है जैसे सामान्य व्यक्ति राजा की ओर देखता हो ! { सामान्य व्यक्ति श्रेष्ठ को देखे और दोनों की आँखें मिलें तो सामान्य जन आँखे झुका लेता है ; फिर कुछ देर बाद उधर ही देखने लगता है । प्रेमी तो परस्पर यों ही देखते हैं । याज्ञवल्क्य सामान्य आदमी तो है नहीं , अतः प्रेमी ही हो सकता है । } । याज्ञवल्क्य को हराने की इच्छा से ही गर्वीले ये ब्राह्मण आपस में हँसते हुए ऐसे प्रश्न पूछ रहे हैं जिनके उत्तर अतिदुर्बोध हैं । किन्तु उनकी बातें सुनते हुए भी यह " विप्रेन्द्र याज्ञवल्क्य " कोई जवाब नहीं दे रहा , मानो अज्ञानी या मूर्ख हो या सुन ही न रहा हो ।
नारायण ! विदेहनिवासी मिथिलापति ने इस तरह मन ही मन काफी विचार किया और यह पण रखा : कामधेनुतुल्य एक हज़ार गायें जिनके एक - एक सींग पर 20 - 20 बीस - बीस दीनारों जितना स्वर्ण मढा था , फलतः कुल 40000 चालीस हजार दीनारें थीं । शास्त्रविहित ढंग से गायें सांगोपाङ्ग सजाकर महासभा के निकट खड़ी करायीं और ब्राह्मणों से निवेदन किया - " आपमें जो श्रेष्ठ ब्रह्मवित् हो , वह इन्हें ले जाये ।
नारायण ! विदेहनिवासी राजा जनक द्वारा यों कहे जाने पर सभी विप्र स्तब्ध हो गये और चुपचाप सिर झुकाकर बैठ गये क्योंकि उन एकत्र हुए ब्राह्मणों को अपनी विद्या के आधिक्य से अभिभूत करने के लिये आवश्यक प्रागल्भ्य किसी में उद्बुद्ध नहीं हो पाया ।
नारायण ! सभी विद्वान् चुप हैं , यह देखकर याज्ञवल्क्य महर्षि ने अपने आज्ञाकारी " सामवेदपाठी " शिष्य से कहा " सामवेद पढ़ने वाले छात्र ! ये गायें शीघ्र हमारे घर पहुँचा दो यह घोषणा करते हुए कि ब्राह्मण के लिये पणरूप से रखी ये गायें ब्रह्मिष्ठ याज्ञवल्क्य ले जा रहा है । " मुनि का कहा मानने वाले उस तेजस्वी शिष्य ने महात्मा श्रीगुरु द्वारा कहा कार्य तुरन्त कर डाला ; गायें लेकर चल दिया ।
नारायण ! ब्रह्मिष्ठ द्विज याज्ञवल्क्य ने जब गायें अपने आश्रम की ओर भेज दीं तो अनेक देशों से आये ब्राह्मण क्रुद्ध हो उठे । मिथिलानरेश जनक को बेहद सन्तोष हुआ । यों याज्ञवल्क्य ने इकट्ठे ही कुछ को दुःख और अन्य को सुख प्रदान किया , जिससे यह दिखा दिया कि सब प्राणियों को अभूयमान सुख - दुःख किसी विषय का स्वरूप नहीं हैं , जैसा सांख्यवादी मानते हैं , वरन् अपने मन में ही ये होते हैं : स्नेहशाली चित्त में स्नेहास्पद के लाभ से सुख हो जाता है यहाँ जनक को हुआ और द्वेषशाली चित्त में द्वेषास्पद के लाभ से दुःख हो जाता है , जैसे यहाँ ब्राह्मणों को हुआ । बाह्य विषय में सुख - दुःख के प्रति उत्पादकता नहीं वरन् रमणीयता - प्रतिकूलता विषयक संकल्प से ही सुख – दुःख पैदा होते हैं । प्राणियों से रहित महावन में वीतरागों को सुख और रागियों को दुःख होता है जो इस बात को पुष्ट करता है । { एवं च सांख्यपरिकल्पना गलत है कि विषय का सत्त्वादि गुण उसे सुखादिहेतु बनाता है । } वहाँ उपस्थित अन्य द्विज क्रोधोद्वेग में यों काँपे मानो उनके आसन डोलने लगे हों । निचला ओठ दाँतों से दब रहा था , जैसा क्रोध में सहज है , इससे सब की दाढ़ियाँ हिल रही थीं । खूनभरी आँखों से कुछ के कोपाश्रु वह रहे थे और अन्य लोग पागलों की तरह हँसने लगे { कि देखो कैसा मूर्खतापूर्ण दुःसाहस इस याज्ञवल्क्य ने किया है } । उस यज्ञमहामण्डप में ब्राह्मणों का अत्यधिक कोलाहल हो गया जैसे पूर्णिमा आने पर समुद्र में ज्वार आता है । विप्र कहने लगे " हमारे कुलों को धिक्कार है , हमारी पाठशालाओं को , जीवन को , गुरुसेवा को , वेदाध्ययन को , हम जैसे विद्वानों को , हमारे शिष्यों को, कीर्ति कोर्प सभी को धिक्कार है क्योंकि यह अकेला ब्राह्मण हम सब की अवज्ञा कर गया ! " सभास्थ द्विजों की ये सब बातें सुनकर तथा स्वयं विचार कर विदेहवासी मिथिलाधिपति का " होता ऋत्विक् आश्वल " क्रोध से डगमगाता - सा और हँसता - सा आगे बढ़ा ताकि याज्ञवल्क्य से कुछ पूछें । सम्मुख आकर वह उस शान्त मुनि की भर्त्सना करते हुए कहने लगा –
" अरे रे ! याज्ञवल्क्य ! दुराचारी ! वाजसनेयक ! किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को गुरु बनाकर उनके चरणकमलों की सेवा बिना किये ही विद्वान् बनता है ? यहाँ उपस्थित हम ब्राह्मण लोग ब्रह्मा के तुल्य हैं , सभी का हृदय गम्भीर है , गर्व लोभ आदि दोष हममें हैं नहीं , उपशम हमारा स्वभाव बन चुका है , चौदहों विद्याओं की हमे पूरी जानकारी है और तर्कप्रयोग से भी हम विद्यासिद्धान्तों की स्थापना कर सकते हैं । क्या हम सब की अपेक्षा तू ही एक श्रेष्ठ है ? अरे तू तो गर्व और लोभ इन दुर्गणों में ही हमसे आगे है , सद्गुणों में नहीं । तू अधम ही है । कोई भी निर्लज्ज अपने को पण्डित तो घोषित कर ही सकता है जैसे हम ब्रह्मवादी मुनियों में तू स्वघोषित श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञ बन बैठा है । गर्व और लोभ से भरे , विनयरहित , नीच द्विज एक तुझे छोड़कर कौन होगा जो विविध देशों से आये इन वेदज्ञों को नाराज करे, मानो घोर विषैली जाति वाले साँपों को पैर से छेड़ना हो , या योगसाधना से रहित द्वारा कालकूट विष को खाना हो , या जलती आग मुट्ठी में बाँधकर घर ले जानी हो ! यहाँ जो उत्तम ब्राह्मण हैं इनमें प्रत्येक ऐसा समर्थ है कि क्रोधित हो जाये तो सारा संसार भस्म कर डाले । अनेक देशों से आये ये सभी कुपित होकर तुझ नीच ब्राह्मण को जला देंगे इसमें सोचना ही क्या ?" ऐसे ही अन्य भी ब्राह्मणों से " आश्वल " { विदेहवासी जनक का ऋत्विक् } ने याज्ञवल्क्य महामुनि के कर्णछिद्रों पर घोर प्रहार किये । सावशेष ......
नारायण स्मृतिः
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