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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ 18 ═════

श्री महादेवेंद्र गुरुभ्यो नमः !!


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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀


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नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि द्वारा बार - बार समझाये जाने पर भी कि अब तुम दूसरा कोई भी प्रश्न न पूछ । तेरा अनर्थ हो जायेगा शाकल्य ! फिर भी " विदग्ध शाकल्य " ने पुनः प्रश्न पूछ ही दिया कि " विश्वचित्र धारण करने वाला हृदय कहाँ प्रतिष्ठित है ? "

नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि ने " शाकल्य " को उसके एक नाम " अहल्लिक " से सम्बोधित कर तब उत्तर दिया । इस शब्द " अहल्लिक " के कई अर्थ हैं । { एक अर्थ वार्तिककार "भगवान् आचार्य सुरेश्वर " ने बताया है - दिन में छिप जाये , रात में प्रकट हो अर्थात् प्रेत ; अकालमृत्यु के कारण प्रेतयोनि पायेगा इस अभिप्राय से यह सम्बोधन है । अन्य अर्थ भी बता देते हैं : याज्ञवल्क्य का अभिप्राय था कि मैंने जो विषय समझाया वह दिन की तरह सुस्पष्ट है लेकिन उसमें भी संशय से तुम लय के , विनाश के योग्य बन रहे हो अतः " अहल्लिक " हो । अथवा जो सूक्ष्म बात समझ सके वह सहृदय कहलाता है । तुम इस सूक्ष्म वस्तु को हमझने में सर्वथा अक्षम हो अतः " अहृदय हो । " अ " अर्थात् नहीं है , " अल्लिक " हृदय वाला । जो मैंने बताया , इससे आगे कौन बुद्धिमान् पुरुष पूछेगा ? फिर भी यह पूछने से बाज नहीं आ रहा तो जरुर अविवेकी है । अथवा मुनि का तात्पर्य था - मरने पर शरीर गिर जायेगा तो तुम्हारे जिस मांसपिण्ड रूप हृदय को कुत्ते खायेंगे उसे ही तुम " हृदय " समझ रहे हो जबकि मैंने परमात्मा के लिये " हृदय " शब्द का प्रयोग किया है । अतः हृदय - पद का सही अर्थ न समझने से तुम अहृदय है , " अहल्लिक " हो । किं च तुम्हारा शव समूचा जल नहीं पायेगा क्योंकि हृदय कुत्ते नोच खायेंगे इसलिये अहल्लिक हो। अथवा मुनि सावचेत कर रहे हैं - "भगवान् दिवाकर हाल में ही तुम्हारा नाश कर देंगे" इस अर्थ को कहने के लिये महर्षि ने " अहल्लिक" नाम दिया । { अहल् अहस्कर सूर्य, क्योंकि अहन् दिन को कहते हैं । लिक लीन , नष्ट कर देंगे । } ।

नारायण ! " अहल्लिक " यो सम्बोधित कर महर्षि याज्ञवल्क्य बोले - जिसे मैंने " विश्वचित्र " का धारक हृदय कहा उसे तुम मांसखण्ड ही समझ रहे हो तो यही जानो कि वह मेरे सूक्ष्मशरीर में प्रतिष्ठित है क्योंकि मेरे सूक्ष्मशरीर के बिना मेरा स्थूल शरीर स्थित नहीं रह सकता । स्थूल के बिना सूक्ष्म भी कार्यसमर्थ नहीं होता यह तो प्रसिद्ध है । जब सूक्ष्मदेह से स्थूलदेह का विच्छेद हो जाता है तब मांसमय हृदय समेत इस स्थूल देह को कुत्ते खाते हैं , पक्षी नोच - नोच कर इसे तितर - वितर कर देते हैं । इसलिये जो " मैं " शब्द से जुड़ा रहता है , " मैं " का अर्थ है , " मैं " से तादात्म्यापन्न है , उस सूक्ष्म शरीर को हृदय सहित स्थूल देह का वासस्थान कहा । { श्रुति में याज्ञवल्क्य ने इतना ही कहा - " हदय को मुझसे अन्यत्र मान रहे हो ? जब यह मुझ से अन्यत्र होगा तब इसे कुत्ते खायेंगे या पक्षी मथ डालेंगे । " अतः हृदय मुझमें प्रतिष्ठित है यह अर्थ निकला । 

नारायण ! श्रुति में आगे शाकल्य ने पूछा " तुम और आत्मा दोनों किसमें प्रतिष्ठित हो ? " उथर मिला " प्राण " में । आगे प्रतिष्ठाप्रश्नोत्तरक्रम में अपान , व्यान , उदान और समान का उल्लेख हुआ , फिर याज्ञवल्क्य ने आत्मा का वर्णन किया कि वही प्रत्यक्स्वरूप अतद्व्यावृत्ति से बोध्य है , वह अग्राह्य है , अविनाशी है , असंग है , बंधव्यथा से और हिंसित होने से बचा रहता है । इस संदर्भ को समझा देते हैं : 

जैसे पहले मंदमति शाकल्य ने यह बिना समझे कि याज्ञवल्क्य हृदयपद से परमात्मा को कह रहे हैं , हृदय के आश्रय का प्रश्न कर दिया था वैसे ही पुनः तात्पर्य समझे बिना पूछने लगा - " आश्रय व आश्रित रूप से जिन्हें तुमने कहा वे स्थूल और सूक्ष्म शरीर कहाँ है ? " मुनि ने कहा " प्राण में । " उसने पूछा " प्राण कहाँ है ? " " अपान में । " " अपान ? " " व्यान में । " " व्यान ? " " उदान में । " " उदान कहाँ प्रतिष्ठित है ? " " समान में । " { यहाँ ऊर्ध्ववृत्ति अर्थात् मुख - नासिका से चलने वाले को प्राण , अधोमार्गों में कार्यशील को अपान , प्राण - अपान की गाँठ को व्यान और जिस कील पर वे बँधे हैं उसे उदान कहा है । सूत्र की तरह शरीर को धारण किये रहने वाला समान है । } ।

नारायण ! याज्ञवल्क्य महर्षि का अभिप्राय न समझकर " विदग्ध शाकल्य" ने क्या समझा - यह बताते हैं : " याज्ञवल्क्य ने दिक्सम्बन्धी उपासना के प्रसंग में " हृदय " शब्द से परमात्मा ही कहा था क्योंकि हृत् शब्दित बुद्धि में उसका साक्षी यह शिव ही अपरोक्ष भासमान है । समस्त जन्मधारियों के मन का वही इकलौता प्रकाशक है । किन्तु जहाँ वह प्रत्यक्ष होता है उस अन्तःकरण के आधार मांसपिण्ड को ही "विदग्ध शाकल्य " हृदय समझ बैठा ! यदि सही अर्थ जान गया होता तो आगे प्रतिष्ठा न पूछता क्योंकि उसे वेदप्रसिद्ध तथ्य याद आ जाता कि परमात्मा अपने से अन्य किसी में प्रतिष्ठित नहीं है । इसी तरह ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य ने हृदयाश्रय के प्रश्न के जवाब में जो " मैं " शब्द का प्रयोग किया उससे उनका अभिप्राय उस आत्मा से था जो मन - वाणी की गिरफ़्त में नहीं आता लेकिन " मैं " इस प्रतीति के रहते सुस्पष्ट भास जाता है । इस तथ्य से अपरिचित " शाकल्य " की समझ आया कि याज्ञवल्क्य ने सूक्ष्मशरीर को " मैं " शब्द से कहा है । आगे प्राण , अपान आदि शब्दों द्वारा भी उन वृत्तियों के प्रवर्तक प्रज्ञारूप परमात्मा को मुनि ने बताने की कोशिश की थी। प्राणादिशब्दों में " अन " - इतना जो हिस्सा है उसका विद्वानों ने लोकप्रचलित अर्थ बताया है " चलना । सभी जन्तुओं का चलना प्रज्ञारूप प्रेरक परमात्मा की संनिधिसे ही होता है । अतः " अन " से उन परमेश्वर को कहना संगत है । प्राणादिशब्दों के जो " प्र - अप " आदि हिस्से हैं उनके अर्थ हैं - प्र : नासिका आदि ऊँचे देहांगो से सम्बन्ध । अप : अधोवयवों से सम्बन्ध । वि : वह विशेषता जो प्राण - अपान के निरोध से प्रकट होती है । उद् : ऊँचापन , ऊपर की ओर धक्का दिये रहना । सम् : सब तरफ सही तरह फैले रहना । ये 5 पाँचों विशेषण " चलने " के ही हैं , चलने के ही ये ढंग हैं । इन सभी को अपनी संनिधि से सम्भव करने वाला परमात्मा इन शब्दों से महामुनि को अभिप्रेत था । किन्तु निर्बुद्धि " शाकल्य " तो मरने को उतावला हो रहा था , अतः बिना विचारे , जो आपात अर्थ विविन्नगतिक वायु , उसे ही समझ गया और " कहाँ ? " " कहाँ " ? " यों बार - बार प्रतिष्ठाविसक प्रश्न पूछता गया ।

नारायण ! अन्त में जिसे समझाया कि वह वर्णित सभी भूतों का आश्रय है - उस " समान" को शाकल्य ने वायुरूप समझा जबकि याज्ञवल्क्य का तात्पर्य वायु से नहीं था । उनका अभिप्राय था उस सर्वात्मा आनन्दररूप " महेश्वर देव " से जो " यह नहीं , यह नहीं " इस वचन से कहा जाता है । प्रत्येक " नहीं " से उस आत्मा में स्थूल व सूक्ष्म प्रपञ्चों का निषेध किया जाता है , " महादेव " में दोनों नहीं है । अध्यारोपदशा में जितने भाव या अभाव को विषय करने वाले ज्ञान हैं उनसे यद्यपि सद् - आदिरूप परमात्मा ही विषय होता लगता है तथापि उक्त दो निषेधों से उसे भाव - अभाव से रहित समझाया गया है । स्वगत , सजातीय , विजातीय - तीनों सीमायें या भेद आत्मतत्त्व में नहीं हैं । संसार में सर्वान्तर आत्मा बुद्धि आदि करणों से ग्रहण किया जाने के अयोग्य है , अतः किसी भी प्राणी द्वारा किसी तरह उस " महादेव " को ग्रहण नहीं कर सकते । काल से भी वह अनिरूपित है अतः कपड़े आदि की तरह जीर्ण - शीर्ण नहीं हो सकता , जिससे यह निश्चित है कि वह ऐसी स्थिति में नहीं पहुँचता जिसमें वह नाशोन्मुख हो । कपड़ा आदि सांश पदार्थ ही संसार में कालवश पुराने होने पर नष्ट होने लगते हैं । जैसे जलादि में वर्तमान भी आकाश उनसे संग वाला नहीं होता , ऐसे ही आत्मा कभी बुद्धि आदिसे से संग वाला हो नहीं सकता । क्योंकि वह हमेशा बन्धनमुक्त है , इसलिये दुःख का उससे कोई सम्बन्ध नहीं । नाश के अयोग्य होने के कारण किसी के द्वारा उसकी हिंसा नही की जाती ।

नारायण ! " यह शाकल्य अज्ञानी है , उक्त आत्मा से अपरिचित है , व्यर्थ ही ब्रह्मवेत्ता से "स्पर्धा" कर रहा है " यह बात स्पष्ट हो जाये इसलिये मुनि की जीभ पर स्थित होकर " भगवान आदित्य " ने " विदग्ध शाकल्य " से प्रश्न किये । सूर्यदेव का यह भी अभिप्राय था कि उनके शिष्य याज्ञवल्कय से जो शर्त तय हुई थी कि 20 बीस बार मेरी विद्या का अपमान करने पर मैं शाप से जला दूँगा , वह भी पूरा हो जाये । महर्षि याज्ञवल्क्य के जीभ पर भगवान् आदित्य स्वयं विराजमान हो " शाकल्य " से प्रश्न पूछने लगे : 

सावशेष ......

नारायण स्मृतिः

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