∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! महामुनि के जीभ पर आज भगवान् भुवनभास्कर आदित्य विराजमान हैं । महामुनि ने विदग्ध शाकल्य से कहा : हे शाकल्य ! तूने बहुत प्रश्न पूछे , मैं तो एक ही बार प्रश्न कर रहा हूँ ; मैंने तेरे सभी सवालों का जवाब दिया , तू भी मेरे सवाल का जवाब दे : जिस परम पुरुष का मैंने अभी वर्णन किया है उसे के बारे में पूछ रहा हूँ , बता वह कौन है , कैसा है?। यदि नहीं बता पायेगा तो अभी तेरा सिर कट कर ज़मीन पर गिर पड़ेगा ! तेरी मृत्यु अभी यहीं होने वाली है । यह जगह मृत्यु के लिये उचित हो ऐसी बात नहीं , क्योंकि विविध प्रकारों के लोगों की भीड़ वाला यह शहर है , कोई तीर्थ नहीं। समय भी अशुभ है - दक्षिणायन , कृष्ण पक्ष अमावस्या । तुझ दुर्बुद्धि के प्राण अब गये हुए ही हैं , तेरा सिर गिरने ही वाला है । तू मुझ जैसे परमात्मवेत्ता से अकारण अत्यन्त द्वेष करता है , इसलिये तेरी हड्डियाँ भी तेरे घर नहीं पहुँच पायेंगी ! तेरी मिट्टी भी बिगड़ेगी । यहाँ जलाकर तेरे फूल लेकर जब तेरे शिष्य तेरे घर ले जा रहे होंगे तब चाण्डाल चोर रास्ते में ही हड्डियाँ यह सोचकर चुरा लेंगे कि जनक की यज्ञसभा से धन लेकर ये ब्राह्मण लौट रहे हैं ।
नारायण ! सृष्टि - स्थिति - संहार करने वाले भगवान् आदित्य ने ही अत्यन्त रोष से ये वचन याज्ञवल्क्य की वाणी में आविष्ट होकर कहे । स्वयं महर्षि तो शाप देते यह सम्भव नहीं क्योंकि क्रोधादि विकारों का बीज जो अज्ञान है , वह तो उनके द्वारा जलाया जा चुका था । आदित्य को तो जगत् की मर्यादायें स्थापित रखनी हैं , सभी अच्छे - बुरे कर्मों का यथायोग्य फल देना है , इसलिये उन्होंने ब्रह्मवेत्ता से द्वेष करना रूप घोर अपराध का ऐसा कठोर दण्ड दिया ।
नारायण ! परमात्मा से अपने अभेद को न जानने वाले शाकल्य का वैसा ही हाल हुआ जैसा मुनिमुख से भगवान् आदित्य ने निर्धारित कर दिया । औपनिषद् पुरुष के बारे में वह कुछ भी जानता था नहीं अतः उनके प्रश्न का उत्तर देने में अक्षम होकर वह चुप हो गया । तुरन्त ही उसकी वाणी आदि सभी इन्द्रियाँ और इन्द्रियपति मन शरीर छोड़ गये । " नमुचि " नामक असुर ने जब स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था तब उसका सिर वज्र से जैसे काट डाला गया था वैसे ही शहर में , वहाँ भी राजा के महल में नाना प्रकार के करोड़ों लोगों के सम्मुख उस रात उसकी मूर्धा भूतर पर गिर पड़ी । " विदग्ध शाकल्य " कट कर गिर गया तो " हा ! हा " का भीषण कोलाहल होने लगा । राजपुरोहित की ऐसी दुर्गति देखकर राजा की सारी मण्डली को असीम दुःख हुआ । जो उत्तम द्विज उसके शिष्य या बान्धव थे सभी रो पड़े। बालक , स्त्रियाँ आदि जितने भी द्विज लोग सभा में उपस्थित थे सभी ने कट कर भूमि पर शाकल्य को गिरा देखकर उसे खूब धिक्कारा ।
नारायण ! सारी सभा में ऐसी ही चर्चायें होने लगीं : ब्रह्मवित् से द्वेष करना अवश्य ही अमोघ जहर का पौधा है जिसका कष्ट भी सहा न सकने वाला फल इसे हमारे सामने मिल गया है । शाकल्य में सभी अच्छे गुण थे , फिर भी इस एक दोष के कारण - कि वह ब्रह्मज्ञ से ही द्वेष करता था - वह मारा गया । इस दोष की सामर्थ्य अद्भुत है क्योंकि जैसे संसार में सागर सूख जायेगा ऐसी हम सम्भावना नहीं कर सकते , उसी तरह यह भी सम्भव नहीं कि विदग्ध शाक्ल्य जैसा कर्मी उपासक किसी सामान्य ब्राह्मण के शाप से मर जाये ! ब्रह्मवेत्ता से द्वेष करना रूप पाप से जब इस जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण की यह दुर्दशा हो गयी तो इस दोष से किसकी क्या दुर्गति नहीं हो सकती ! यह जो सनातन श्रुति है कि ब्रह्मवेत्ता परमात्मा को पा लेता है यह अवश्य सत्य है , क्योंकि परब्रह्म से अन्य और कौन " विदग्ध " को समाप्त कर सकता था ? जीवों के बूते का तो यह काम हो ही नहीं सकता ।
हम लोगों ने पहले केवल सुन रखा था कि ब्रह्म को जानने वाला सभी का आत्मा ही हो जाता है , लेकिन अब वह बात हम लोगों के लिये परोक्ष नहीं रह गयी है क्योंकि ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य के शत्रु विदग्ध के मरने पर सभी लोगों को वैसे ही सन्तोष हो रहा है जैसे स्वयं उन्हीं का कोई शत्रु मरा हो ! सभी केवल शाकल्य की निन्दा कर रहे हैं , याज्ञवल्क्य की निन्दा कोई नहीं कर रहा यद्यपि वही ह्त्यारा दीखा । इस प्रकार सभी को याज्ञवल्क्य शत्रु के प्रति शत्रुबुद्धि होना और उसकी मृत्यु पर सन्तोष होना इसे प्रत्यक्ष कर रहा है कि यह मुनि सभी का आत्मा है क्योंकि यदि यह सबसे अभिन्न न होता तो सभी को इससे ऐसा तादात्म्य सम्भव नहीं था ।
नारायण ! ब्रह्महत्या महापाप है , लेकिन ब्रह्मज्ञ से द्वेष तो उससे भी घोरतर है । ब्राह्मण की हत्या करने वाले पुरुष को प्रायः अगले किसी जन्म में उस पाप का दुष्फल मिलता है किन्तु शाक्ल्य के प्रसंग में हमने हाल में ही देख लिया कि ब्रह्मज्ञ से द्वेष तो इस जन्म में भी अत्यधिक पीड़ा देती है और अशुभ देश - काल आदि में हुई मृत्यु से यह भी निश्चित है कि इससे परलोक भी बिगड़ता है क्योंकि द्वेष का फलरूप यह आकस्मिक निमित्त न होता तो शाकल्य जैसे कर्मनिष्ठ - उपासनानिष्ठ ब्राह्मण की मृत्यु ऐसे अशुभ ढ़ंग से न होती । था तो यह लायक कि किसी अतिश्रेष्ठ शय्या पर बैठता लेकिन आज इसका शरीर इस गैर - तीर्थस्थान में भूतल पर धूल - धूसरित हो रहा है , मानो किसी ऐसे का देह हो जो किसी पिशाच के प्रवेश आदि में उन्मत्त हो गया हो । दक्षिणायन - कृष्णपक्ष - अमावस्या की रात को शाकल्य ब्रह्मशाप से मरा है तो अवश्य नरक जायेगा। आश्चर्य है कि इस मूर्ख शाकल्य ने इतनी मूढता की कि व्यर्थ ही " महामुनि याज्ञवल्क्य " से इतना अधिक द्वेष करता रहा । इस द्वेष के कारण ही इसने अपने नाते - रिश्तेदारों को शोकसमुद्र में धकेल दिया , खुद को नरक पहुँचा लिया , अपनी पत्नी को विधवा बना दिया , शरीर नंगी भूमि पर गिरा दिया और पहले से अर्जित पुण्य पापरूप आग में जला डाला ! ब्रह्मज्ञ से द्वेष के कारण पैदा हुई असह्य वडवाग्नि - समुद्री आग - सभी के इहलोक - परलोक नष्ट करने में समर्थ है ।
नारायण ! " वाचकन्वी गार्गी " एवं विदेहवासी जनक समेत जितने भी ब्राह्मणादि वहाँ उपस्थित थे सभी ने " महद् ब्रह्म " का निश्चय रखने वाले याज्ञवल्क्य महर्षि की इसी तरह और भी प्रशंसा की ।
" विदग्ध शाकल्य " के शिष्यों ने लौकिक अग्नि में शवदाह किया और फूल चुनकर विदग्ध के आश्रम की ओर लौट चले । आदरवश उन्होंने शहर से बाहर निकलते समय गुरु की अस्थियाँ एक रेशमी कपड़े में लपेट कर साथ रख लीं । रास्ते में चाण्डाल जाति के चोरों ने काफिला देखा तो सोचा कि राजा के यज्ञ से पुरोहित के शिष्य लौट रहे हैं तो अवश्य इतना सम्भालकर स्वर्णादि थ ही ले जा रहे होंगे । चोरों को वह धन पाने की उत्कट इच्छा भी थी और यह भी भय था कि शिष्यों ने लौटकर राजा को बता दिया तो सासा इलाका घेर कर या अन्य तरह से हमें खोज कर दण्डित किया जायेगा । अतः जो कुछ शिष्य हड्डियाँ लिये थे , चोरों ने उन्हें जान से ही मार डाला और उन निदर्यों ने स्वर्ण मानकर शाकल्य की अस्थियाँ चुरा ली ।
नारायण ! विदग्ध मर जाने पर हुआ कोलाहल जब शान्त हो गया तब " यशस्वी याज्ञवल्क्य " ने सभी ब्राह्मणों को यों सम्बोधित किया : नाना देशों के वासी यहाँ आये पूज्य विद्वान् ब्राह्मणों ! आपभी अब मेरी बात सुनें - आप में से जो विप्र मुझसे कुछ भी पूछना चाहे पूछ ले या मेरे सवाल का जवाब देना चाहे तो उस उत्तम ब्राह्मण से मैं प्रश्न करूँगा । अथवा आप सब मिलकर मुझसे कोई प्रश्न कर लीजिये ! या फिर मैं ही आप सभी से प्रश्न करता हूँ ।
यद्यपि उन उपस्थित ब्राह्मणों मेँ " वाचकन्वी गार्गी " " उद्दालक " आदि जैसे सर्वज्ञतुल्य विप्र भी थे लेकिन शाकल्य को मरा देगर सब चुप हो गये । ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य से उन्हें न कुछ पूछने की हिम्मत हुई और न उनके प्रश्न का समाधान करने की ।
नारायण ! विदेहवासी जनक की शर्त थी कि ब्रह्मिष्ठ गायें प्राप्त करेगा , अतः जब तक निश्चित न हो जाये कि किसी अन्य ब्राह्मण का उन गायों पर अधिकार नहीं तब तक ब्रह्मधनरूप उन्हें अकेले याज्ञवल्क्य रखें यह अनुचित होता । इसलिये सबके चुप रहने पर भी महर्षि याज्ञवल्क्य ने स्वयं सभी से एक विलक्षण प्रश्न किया । " वाजसनेयक याज्ञवल्क्य" तथा सभी विद्वान् मन्त्र - मन्त्रार्थ के जानकार थे ही , अतः मन्त्रों द्वारा ही मुनि ने प्रश्न रखा : यह सत्य है कि जैसे लोक में पीपल आदि वनस्पतियाँ प्रतीत होती है वैसे ही यह मिथ्या शरीर भी प्रतीत होता ही है । केवल इतनी ही देह और वृक्ष में समानता नहीं , और भी बहुत - सी बातें हैं - जैसे वृक्ष के पत्ते होते है ऐसे ही शरीर में रोयें { लोम } होते हैं । शरीर की चमड़ी भी ऊपर से कठोर होती है और वृक्ष की ऊपरी छाल भी - जिसे " उत्पाटिका " कहते हैं - कठोर ही हुआ करती है । पुरुष की त्वचा से ही रक्त और उत्पट निकलता है। " उत्पट " कहते हैं भीतरी चमड़ी को जो सफेद कपड़े की तरह होती है । वृक्ष पर भी कुल्हाड़ी मारें तो खून - जैसा रस निकलता है और भीतरी छाल भी बाऱी की अपेक्षा वैसी ही कोमल , सफेद आदि होती है जैसी शरीर की भीतरी चमड़ी । वृक्ष हो या शरीर , जब बाहरी त्वचा काटी जाती है तब रक्त और उत्पट बाहर निकलते हैं , यह भी दोनों में तुल्य है । वृक्ष काटने पर जो रस निकलता है वह शरीर के रक्त जैसा ही है । वनस्पति को कुल्हाड़ी से काटें तो टुकड़े - टुकड़े बाहर निकलते हैं । ऐसे ही शरीर काटने पर मांस के टुकड़े निकलते हैं । नाढियों की गाँठ को " किनाट " कहते हैं । शरीर में हड्डियाँ होती हैं तो वृक्ष की भीतरी लकड़ी - जिसे " सार " कहते है, - भी वैसी ही होती है । हड्डियों के अन्दर का जो रस " मज्जा " है , वह भी वृक्ष और शरीर में तुल्य है ।
हे बुद्धिमान् ब्राह्मणों ? पुरुष { शरीर } और वृक्ष में यों बहुतेरी समानता है फिर भी एक महान् अन्तर है , उसका हेतु आप लोग बताइये ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! महामुनि के जीभ पर आज भगवान् भुवनभास्कर आदित्य विराजमान हैं । महामुनि ने विदग्ध शाकल्य से कहा : हे शाकल्य ! तूने बहुत प्रश्न पूछे , मैं तो एक ही बार प्रश्न कर रहा हूँ ; मैंने तेरे सभी सवालों का जवाब दिया , तू भी मेरे सवाल का जवाब दे : जिस परम पुरुष का मैंने अभी वर्णन किया है उसे के बारे में पूछ रहा हूँ , बता वह कौन है , कैसा है?। यदि नहीं बता पायेगा तो अभी तेरा सिर कट कर ज़मीन पर गिर पड़ेगा ! तेरी मृत्यु अभी यहीं होने वाली है । यह जगह मृत्यु के लिये उचित हो ऐसी बात नहीं , क्योंकि विविध प्रकारों के लोगों की भीड़ वाला यह शहर है , कोई तीर्थ नहीं। समय भी अशुभ है - दक्षिणायन , कृष्ण पक्ष अमावस्या । तुझ दुर्बुद्धि के प्राण अब गये हुए ही हैं , तेरा सिर गिरने ही वाला है । तू मुझ जैसे परमात्मवेत्ता से अकारण अत्यन्त द्वेष करता है , इसलिये तेरी हड्डियाँ भी तेरे घर नहीं पहुँच पायेंगी ! तेरी मिट्टी भी बिगड़ेगी । यहाँ जलाकर तेरे फूल लेकर जब तेरे शिष्य तेरे घर ले जा रहे होंगे तब चाण्डाल चोर रास्ते में ही हड्डियाँ यह सोचकर चुरा लेंगे कि जनक की यज्ञसभा से धन लेकर ये ब्राह्मण लौट रहे हैं ।
नारायण ! सृष्टि - स्थिति - संहार करने वाले भगवान् आदित्य ने ही अत्यन्त रोष से ये वचन याज्ञवल्क्य की वाणी में आविष्ट होकर कहे । स्वयं महर्षि तो शाप देते यह सम्भव नहीं क्योंकि क्रोधादि विकारों का बीज जो अज्ञान है , वह तो उनके द्वारा जलाया जा चुका था । आदित्य को तो जगत् की मर्यादायें स्थापित रखनी हैं , सभी अच्छे - बुरे कर्मों का यथायोग्य फल देना है , इसलिये उन्होंने ब्रह्मवेत्ता से द्वेष करना रूप घोर अपराध का ऐसा कठोर दण्ड दिया ।
नारायण ! परमात्मा से अपने अभेद को न जानने वाले शाकल्य का वैसा ही हाल हुआ जैसा मुनिमुख से भगवान् आदित्य ने निर्धारित कर दिया । औपनिषद् पुरुष के बारे में वह कुछ भी जानता था नहीं अतः उनके प्रश्न का उत्तर देने में अक्षम होकर वह चुप हो गया । तुरन्त ही उसकी वाणी आदि सभी इन्द्रियाँ और इन्द्रियपति मन शरीर छोड़ गये । " नमुचि " नामक असुर ने जब स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था तब उसका सिर वज्र से जैसे काट डाला गया था वैसे ही शहर में , वहाँ भी राजा के महल में नाना प्रकार के करोड़ों लोगों के सम्मुख उस रात उसकी मूर्धा भूतर पर गिर पड़ी । " विदग्ध शाकल्य " कट कर गिर गया तो " हा ! हा " का भीषण कोलाहल होने लगा । राजपुरोहित की ऐसी दुर्गति देखकर राजा की सारी मण्डली को असीम दुःख हुआ । जो उत्तम द्विज उसके शिष्य या बान्धव थे सभी रो पड़े। बालक , स्त्रियाँ आदि जितने भी द्विज लोग सभा में उपस्थित थे सभी ने कट कर भूमि पर शाकल्य को गिरा देखकर उसे खूब धिक्कारा ।
नारायण ! सारी सभा में ऐसी ही चर्चायें होने लगीं : ब्रह्मवित् से द्वेष करना अवश्य ही अमोघ जहर का पौधा है जिसका कष्ट भी सहा न सकने वाला फल इसे हमारे सामने मिल गया है । शाकल्य में सभी अच्छे गुण थे , फिर भी इस एक दोष के कारण - कि वह ब्रह्मज्ञ से ही द्वेष करता था - वह मारा गया । इस दोष की सामर्थ्य अद्भुत है क्योंकि जैसे संसार में सागर सूख जायेगा ऐसी हम सम्भावना नहीं कर सकते , उसी तरह यह भी सम्भव नहीं कि विदग्ध शाक्ल्य जैसा कर्मी उपासक किसी सामान्य ब्राह्मण के शाप से मर जाये ! ब्रह्मवेत्ता से द्वेष करना रूप पाप से जब इस जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण की यह दुर्दशा हो गयी तो इस दोष से किसकी क्या दुर्गति नहीं हो सकती ! यह जो सनातन श्रुति है कि ब्रह्मवेत्ता परमात्मा को पा लेता है यह अवश्य सत्य है , क्योंकि परब्रह्म से अन्य और कौन " विदग्ध " को समाप्त कर सकता था ? जीवों के बूते का तो यह काम हो ही नहीं सकता ।
हम लोगों ने पहले केवल सुन रखा था कि ब्रह्म को जानने वाला सभी का आत्मा ही हो जाता है , लेकिन अब वह बात हम लोगों के लिये परोक्ष नहीं रह गयी है क्योंकि ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य के शत्रु विदग्ध के मरने पर सभी लोगों को वैसे ही सन्तोष हो रहा है जैसे स्वयं उन्हीं का कोई शत्रु मरा हो ! सभी केवल शाकल्य की निन्दा कर रहे हैं , याज्ञवल्क्य की निन्दा कोई नहीं कर रहा यद्यपि वही ह्त्यारा दीखा । इस प्रकार सभी को याज्ञवल्क्य शत्रु के प्रति शत्रुबुद्धि होना और उसकी मृत्यु पर सन्तोष होना इसे प्रत्यक्ष कर रहा है कि यह मुनि सभी का आत्मा है क्योंकि यदि यह सबसे अभिन्न न होता तो सभी को इससे ऐसा तादात्म्य सम्भव नहीं था ।
नारायण ! ब्रह्महत्या महापाप है , लेकिन ब्रह्मज्ञ से द्वेष तो उससे भी घोरतर है । ब्राह्मण की हत्या करने वाले पुरुष को प्रायः अगले किसी जन्म में उस पाप का दुष्फल मिलता है किन्तु शाक्ल्य के प्रसंग में हमने हाल में ही देख लिया कि ब्रह्मज्ञ से द्वेष तो इस जन्म में भी अत्यधिक पीड़ा देती है और अशुभ देश - काल आदि में हुई मृत्यु से यह भी निश्चित है कि इससे परलोक भी बिगड़ता है क्योंकि द्वेष का फलरूप यह आकस्मिक निमित्त न होता तो शाकल्य जैसे कर्मनिष्ठ - उपासनानिष्ठ ब्राह्मण की मृत्यु ऐसे अशुभ ढ़ंग से न होती । था तो यह लायक कि किसी अतिश्रेष्ठ शय्या पर बैठता लेकिन आज इसका शरीर इस गैर - तीर्थस्थान में भूतल पर धूल - धूसरित हो रहा है , मानो किसी ऐसे का देह हो जो किसी पिशाच के प्रवेश आदि में उन्मत्त हो गया हो । दक्षिणायन - कृष्णपक्ष - अमावस्या की रात को शाकल्य ब्रह्मशाप से मरा है तो अवश्य नरक जायेगा। आश्चर्य है कि इस मूर्ख शाकल्य ने इतनी मूढता की कि व्यर्थ ही " महामुनि याज्ञवल्क्य " से इतना अधिक द्वेष करता रहा । इस द्वेष के कारण ही इसने अपने नाते - रिश्तेदारों को शोकसमुद्र में धकेल दिया , खुद को नरक पहुँचा लिया , अपनी पत्नी को विधवा बना दिया , शरीर नंगी भूमि पर गिरा दिया और पहले से अर्जित पुण्य पापरूप आग में जला डाला ! ब्रह्मज्ञ से द्वेष के कारण पैदा हुई असह्य वडवाग्नि - समुद्री आग - सभी के इहलोक - परलोक नष्ट करने में समर्थ है ।
नारायण ! " वाचकन्वी गार्गी " एवं विदेहवासी जनक समेत जितने भी ब्राह्मणादि वहाँ उपस्थित थे सभी ने " महद् ब्रह्म " का निश्चय रखने वाले याज्ञवल्क्य महर्षि की इसी तरह और भी प्रशंसा की ।
" विदग्ध शाकल्य " के शिष्यों ने लौकिक अग्नि में शवदाह किया और फूल चुनकर विदग्ध के आश्रम की ओर लौट चले । आदरवश उन्होंने शहर से बाहर निकलते समय गुरु की अस्थियाँ एक रेशमी कपड़े में लपेट कर साथ रख लीं । रास्ते में चाण्डाल जाति के चोरों ने काफिला देखा तो सोचा कि राजा के यज्ञ से पुरोहित के शिष्य लौट रहे हैं तो अवश्य इतना सम्भालकर स्वर्णादि थ ही ले जा रहे होंगे । चोरों को वह धन पाने की उत्कट इच्छा भी थी और यह भी भय था कि शिष्यों ने लौटकर राजा को बता दिया तो सासा इलाका घेर कर या अन्य तरह से हमें खोज कर दण्डित किया जायेगा । अतः जो कुछ शिष्य हड्डियाँ लिये थे , चोरों ने उन्हें जान से ही मार डाला और उन निदर्यों ने स्वर्ण मानकर शाकल्य की अस्थियाँ चुरा ली ।
नारायण ! विदग्ध मर जाने पर हुआ कोलाहल जब शान्त हो गया तब " यशस्वी याज्ञवल्क्य " ने सभी ब्राह्मणों को यों सम्बोधित किया : नाना देशों के वासी यहाँ आये पूज्य विद्वान् ब्राह्मणों ! आपभी अब मेरी बात सुनें - आप में से जो विप्र मुझसे कुछ भी पूछना चाहे पूछ ले या मेरे सवाल का जवाब देना चाहे तो उस उत्तम ब्राह्मण से मैं प्रश्न करूँगा । अथवा आप सब मिलकर मुझसे कोई प्रश्न कर लीजिये ! या फिर मैं ही आप सभी से प्रश्न करता हूँ ।
यद्यपि उन उपस्थित ब्राह्मणों मेँ " वाचकन्वी गार्गी " " उद्दालक " आदि जैसे सर्वज्ञतुल्य विप्र भी थे लेकिन शाकल्य को मरा देगर सब चुप हो गये । ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य से उन्हें न कुछ पूछने की हिम्मत हुई और न उनके प्रश्न का समाधान करने की ।
नारायण ! विदेहवासी जनक की शर्त थी कि ब्रह्मिष्ठ गायें प्राप्त करेगा , अतः जब तक निश्चित न हो जाये कि किसी अन्य ब्राह्मण का उन गायों पर अधिकार नहीं तब तक ब्रह्मधनरूप उन्हें अकेले याज्ञवल्क्य रखें यह अनुचित होता । इसलिये सबके चुप रहने पर भी महर्षि याज्ञवल्क्य ने स्वयं सभी से एक विलक्षण प्रश्न किया । " वाजसनेयक याज्ञवल्क्य" तथा सभी विद्वान् मन्त्र - मन्त्रार्थ के जानकार थे ही , अतः मन्त्रों द्वारा ही मुनि ने प्रश्न रखा : यह सत्य है कि जैसे लोक में पीपल आदि वनस्पतियाँ प्रतीत होती है वैसे ही यह मिथ्या शरीर भी प्रतीत होता ही है । केवल इतनी ही देह और वृक्ष में समानता नहीं , और भी बहुत - सी बातें हैं - जैसे वृक्ष के पत्ते होते है ऐसे ही शरीर में रोयें { लोम } होते हैं । शरीर की चमड़ी भी ऊपर से कठोर होती है और वृक्ष की ऊपरी छाल भी - जिसे " उत्पाटिका " कहते हैं - कठोर ही हुआ करती है । पुरुष की त्वचा से ही रक्त और उत्पट निकलता है। " उत्पट " कहते हैं भीतरी चमड़ी को जो सफेद कपड़े की तरह होती है । वृक्ष पर भी कुल्हाड़ी मारें तो खून - जैसा रस निकलता है और भीतरी छाल भी बाऱी की अपेक्षा वैसी ही कोमल , सफेद आदि होती है जैसी शरीर की भीतरी चमड़ी । वृक्ष हो या शरीर , जब बाहरी त्वचा काटी जाती है तब रक्त और उत्पट बाहर निकलते हैं , यह भी दोनों में तुल्य है । वृक्ष काटने पर जो रस निकलता है वह शरीर के रक्त जैसा ही है । वनस्पति को कुल्हाड़ी से काटें तो टुकड़े - टुकड़े बाहर निकलते हैं । ऐसे ही शरीर काटने पर मांस के टुकड़े निकलते हैं । नाढियों की गाँठ को " किनाट " कहते हैं । शरीर में हड्डियाँ होती हैं तो वृक्ष की भीतरी लकड़ी - जिसे " सार " कहते है, - भी वैसी ही होती है । हड्डियों के अन्दर का जो रस " मज्जा " है , वह भी वृक्ष और शरीर में तुल्य है ।
हे बुद्धिमान् ब्राह्मणों ? पुरुष { शरीर } और वृक्ष में यों बहुतेरी समानता है फिर भी एक महान् अन्तर है , उसका हेतु आप लोग बताइये ।
सावशेष .....
नारायण स्मृतिः
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