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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀ ═════ ⑮ ═════

∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬

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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! द्वेष से परिपूर्ण , क्रोधाग्नि से जलता हुआ द्विजोत्तम " विदग्ध शाकल्य " अपने मन में बहुत - सा अनर्गल विचार करते हुए " मुनिवर्य याज्ञवल्क्य " से प्रश्न करने की ठान ली । भविष्य में होने वाले अनर्थ की जानकार " वाचकन्वी गार्गी " द्वारा कही हित की बात का तिरस्कार कर विदग्ध शाकल्य ने जो निर्णय किया उसके पीछे उसकी यह मनोभावना थी- यह " वाचकन्वी गागी " कुँवारी है , ब्राह्मणों के घरों से बाहर ही स्वेच्छाचारी हुई फिरती है , हमेशा बलिष्ठ पुरुषों की कामना रखती है । सभा में स्थित ये द्विजश्रेष्ठ सभी सदाचारी हैं , इस नंगी की ओर देखते भी नहीं तो इसकी ओर आकृष्ट क्या होंगे ? जटा - दाढ़ी धार किये ये तापस हमेशा स्नान - शौच में लगे रहते हैं और व्रतों से इन्होंने अपने शरीर सुखा डाले है , धमनियाँ उभरी हुई हैं , सभी बुड्ढों - से दीख रहे हैं । इनसे विपरीत यह याज्ञवल्क्य है : विटों का - सा { " मजनुओं " जैसा } इसका वेष है । जवानी का हृष्ट - पुष्ट ताकतवर दीखने वाला देह है , जिस पर तेल - मालिश आदि से इसने रूखापन नहीं रहने दिया है । वेद में ही जो मन - माना परिवर्तन करने से नहीं चूका वह " भण्ड " अपनी कामुकता से क्या नहीं कर लेगा ! पाप - भरी आँखों से यह " गागी " के योनि , मुँह और स्तन ही देखे जा रहा है । जब से संसत् में घुसा है तब से एक नज़र राजा पर और एक इस सुन्दर जानुओं अर्थात् जंघाओं वाली " वचक्नुकन्या " { गार्गी } पर टिकाये है । बाकी भी सैंकड़ों ब्राह्मण हैं पर सब गुरुओं की चरणसेवा में तत्पर होकर शिक्षित हैं । अतः इधर - उधर देखे बिना अपनी नाक के ही अग्रभाग पर दृष्टि एकाग्र किये हैं । निश्चित ही यह नीच यायज्ञवल्क्य धन और स्त्री पाने इस सभा में आया है , न कि इसलिये कि इसका ज्ञान सब विद्वानों के सामने आये । व्यभिचारिणी ही व्यभिचारी को और वही उसे पहचानते हैं , क्योंकि सभी लोग वही सब समझ पाते हैं जिसका उन्हें अनुभव है । जल में मछली ही अन्य मछलियों की हरकत समझ सकती है । यह "वचक्नुकन्या गार्गी " बचपन से यथेष्ट आचरण वाली अनियन्त्रित लड़की है । कुलीन नारियाँ पति , पुत्र , भाई , बन्धु , मामा , ससुर , किसी अन्य भद्रमहिला आदि के बिना घर की देहली भी नहीं लाँघा करतीं जब कि यह स्त्री अकेली ही स्वैरी पुरुष खोजते हुए इधर - उधर भटकती रहती है । कलियुग की तरह इस " त्रेता युग " में स्वेच्छाचारी पुरुषों की भरमार नहीं है । अभी तो भूतल पर वर्णाश्रम धर्म का पालन न करने वाले दुर्लभ ही हैं । गृहस्थ लोग पुत्रलाभ के लिये ही - न कि कामुकता से - केवल अपनी ही पत्नियों से समागम करते हैं , वस भी ऋतुकाल में ही , न कि जब कभी । वे परायी स्त्री से सम्पर्क करें इसकी कोई आशा नहीं। बाकी तीनों आश्रमों वाले तो ब्रह्मचर्य पालन करते हैं ही ।
" अन्त्यज " भी अपनी पत्नियाँ छोड़कर अन्य स्त्रियों की कामना नहीं किया करते । बाकी श्रेष्ठ लोग अपनी - अपनी "धर्मलब्ध पत्नि " से अरिक्त किसी "ललना" की ओर आकृष्ट हों यह इस "त्रेतायुग" युग में कहाँ सम्भव है ! देवता तो इस "मानवी गार्गी " को छुएँगे तक नहीं और पशुओं में यह देखा गया कि वे " विजातीय मादा " का उपभोग करें । यह हमेशा कामातुर होने से निर्वस्त्र हो पुरुषों के सामने मौजूद रहती है , पर ये सज्जन तो इसे किसी तरह देखते भी नहीं । बस एक "पापी याज्ञवल्क्य" है जो कलियुग में जन्में की तरह है । नट की तरह रहने वाला उत्तेजनाशील जवान आदमी है इस दुष्ट " स्वैरी " को पहचान कर खुद भी स्वेच्छाचारिणी यह " गार्गी " स्वैरिणियों के ढंग से " यह ब्रह्मज्ञ है " ऐसा कहकर इसकी चरणवन्ता कर रही है और इसके साथ एकान्तवास पाने को यत्नशील है । ब्राह्मण , राजा और बाकी भी लोगों के देखते ही देखते मैं अपनी कुशलता से "ऐन्द्रजालिक" की तरह सबकी आँखे बाँधकर व्यभिचारकर्म कर लूँगी - इस निश्चय से यह ब्राह्मों के सम्मुख इसको बारम्बार स्तुति किये जा रही है । आश्चर्य है कि इस स्वैरिणी की बातों में आकर ये विद्वान् भी भ्रम में पड़ गये हैं । धर्मात्माओं में अग्रगण्य राजा भी इस " पुंश्चली " की बात मानकर इस स्वच्छन्दाचार याज्ञवल्क्य को खुद नमस्कार कर रही है ।
नारायण ! काल के पाश में फँस चुकने से सही ढंग से सोचने में अक्षम " विदग्ध शाकल्य" इसी तरह की अनर्गल कल्पनाओं में डूबा रहा । नित्य " ब्रह्मचारिणी गार्गी " यद्यपि उस समेत सभी के हित की बात कह चुकी थी फिर भी उसकी अवज्ञाकर ज्ञानसागर की ओर जाये ऐसे ही " शाकल्य " " ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य " से विवाद करने को उद्यत हुआ ।
नारायण ! " भगवान् सूर्य के शिष्य - ब्रहनिष्ठ वाजसनेयक याज्ञावल्क्य " को सम्बोधित कर उस दुराग्रही ने बहुतेरे प्रश्नों सहित देवताओं की संख्या पूछी पर याज्ञवल्क्य ने तुरन्त सभी सभी प्रश्नों का पूरा खुलासा कर दिया । देवसंख्या की विस्तृत गणना " वैश्वदेव " नामक " शस्त्र " की "निवित् " में आये पदों के अनुसार उन्होंने बतायी और संक्षिप गणना कही कि " प्राण " ही एक देव है । यों संक्षेप व विस्तार में उत्तर दिये । और भी 8 आठ प्रश्न दुराग्रह से उठाये , उनका भी जवाब मुनि ने दे दिया । { शस्त्र " - न गायी जाने वाली स्तुति । " निवित् " - देवताओं की संख्या बताने वाले मन्त्रगत शब्द । प्रकृत में संख्या कही थी 3306 तीन हजार तीन सौ छह । फिर - फिर पूछे जाने पर संख्यायें बतायी 33 तैंतीस , 6 छह , 3 तीन , 2 दो , अध्यर्ध { डेढ ! } और 1 एक । 33 तेंतीस आदि कौन - कौन हैं ? यह भी विस्तार से बताया । फिर प्राणरूप ब्रह्म के 8 प्रकार के भेदों के बारे में प्रश्नोत्तर हुए , जिनका सार है - { अनुलग्नक छायाचित्र का अवलोकन करें इसका व्याख्यान भी आगे के क्रम अवश्य करेंगे । }
यों निर्विषयक ब्रह्म की बात चलते ब्रह्मविद्यासमानता से " विदग्ध शाकल्य " ने उपास्य तत्त्व की चर्चा छेड़ी लेकिन " वाजसनेयक याज्ञवल्क्य " ने उस पर भी पूर्ण प्रकाश डाला । अब वे { याज्ञवल्क्य } स्वयं उसे सावधान करते हैं : काले साँप के मुँह में फँसे मेंढक जैसे विदग्ध शाकल्य को , जिसकी मति मारी गयी थी , याज्ञवल्क्य ने " कुलबोधक " नाम से सम्बोधित कर कहा -
हे शाकल्य ! तुम्हारे पूर्वजों ने इस तरह किसी से बिना कारण द्वेष नहीं किया । अन्य ब्राह्मण , ब्रह्मचारी व मनुष्य भी यों निर्हेतु द्वेष नहीं किया करते ।
अरे ! तुम मुझसे इतना ज्यादा द्वेष क्यों करते हो ? हे विप्र ! हमेशा मुझसे द्वेष रखने वाले तुम्हारा इसी कारण कहीं मरण न हो जाये । मेरे पिता , माता , पुत्रादि को जैसे मुझसे प्रेम है ऐसे ही तुम्हारे भी बान्धवों का तुमसे जरूर होगा । तुम्हारी अकालमृत्यु से वे सब दुःखी हों ऐसा मत करो । मैंने " भगवान् भास्कर " से जो विद्या प्राप्त की है उसका तेज सहन कर पाना मुश्किल है , अतः उसकी अवज्ञा मत करो अन्यथा तुम्हें क्षणभर में जला डालेगी । हालाँकि ब्राह्मणमात्र से द्वेष का फल अनिष्ट ही होता है लेकिन विशिष्ट विद्या धारण किये भूदेव के प्रति द्रोहबुद्धि खासकर अनर्थकारी होती है । भगवान् ज्योतिर्मय आदित्य से विद्या पाकर जब मैं पृथ्वी की ओर लौटने लगा था तब उन प्रसन्न देवश्रेष्ठ ने कहा था " मैंने जो विद्या तुम्हें दी है और तुममें प्रतिष्ठित हो गयी है , उसका यदि कोई अनादर करेगा तो मैं उसे तुरन्त भस्म कर दूँगा , इसमें संशय मत रखो । " यह सुनकर मैंने उन प्रभु की बहुत तरह प्रार्थना की और वर माँगे कि मेरे निमित्त किसी की मृत्यु न हो । तब उन्होंने इस सीमा का निर्धारण किया - " हे विप्र याज्ञवल्क्य ! जो तुम्हारे सामने ही 20 बीस बार अवज्ञा कर देगा उस पापी दुर्मति को मैं तुम्हारी जिह्वा पर स्थित होकर शाप दूँगा और अवज्ञारूप मेरे विरोध करने के कारण वह सद्यः भस्म हो जायगा । " अधिक रियायत की माँग से कहीं " आचार्य भगवान् आदित्य " क्रोधित न हो जायें , इस डर से मैंने भस्म होने वाले प्रावधान को हटाने की आगे प्रार्थना नहीं की । तुम मोह के वशीभूत होकर मुझसे द्वेष करते हो , बड़े खेद की बात है । ऐसा मत करो। अपने पाप से ढँकी मति वाले तुम मेरे गुरु " श्रीसविता " की महत्ता समझ नहीं पा रहे । तुम्हारा अन्तसमय तुम्हें विचार नहीं करने दे रहा है , जिससे तुम उनसे द्वेष कर रहे हो यह मुझे पता है । आदित्य भगवान् की बात याद कर मुझे तुम्हारी चिन्ता है । मैं तो कभी तुमसे द्वेष करता नहीं चाहे तुम कितने ही पापी हो । द्वेषादि दोषों की बीजभूत अविद्या को जला डालने वाली ब्रह्मविद्या से सम्पन्न मुझमें द्वेष की सम्भावना कहाँ ! इस " याज्ञवल्क्य " कहाने वाले शरीर में , तुममें तथा अन्यत्र भी चराचर सभी में क्योंकि " मैं ही हूँ " इसलिये द्वेषादि का प्रसंग नहीं । जन्म - स्थिति - नाश वाला यह सारा विश्व मैं ही हूँ । अद्वयरूप मुझसे ही जगत् के जन्मादि होते हैं । इसलिये सुख - दुःखादि द्वन्द्व मेरे लिये हो सकें यह कभी सम्भव नहीं। घटादि नष्ट हों चाहे बने रहें , आकाश में अन्तर नहीं आता , ऐसे ही शरीर रहने - जाने से मुझमें कोई परिवर्तन नहीं होता । हननादि को क्रिया न मैं करता हूँ न मुझे विषय कर सकती है । कोई जन्तु कभी भी मुझे मार नहीं सकता । वेदान्तों में जो निर्विकार स्वरूप मेरा बताया है वही तुम्हारा भी है, लेकिन कीड़े की तरह तुम्हारा ज्ञान वास्तविकता के अज्ञान से आच्छादित है , जिससे आत्मज्ञानी मुझे भी तुम खुद जैसे पापी { अज्ञानी } मनुष्यों के तुल्य मान रहे हो । आत्मा का अपह्रव - वह जैसा है वैसा उसे न स्वीकार कर जैसा नहीं है वैसा मानते रहना - यह पाप है , जिसके अन्तर्गत सभी दुष्कर्म आ जाते है । { भगवान् श्री मनु महाराज ने भी ऐसे आत्मचोर के लिये कहा " उससे न किया गया कौन - सा पाप बच गया ! } ।
सावशेष ....

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