∬ श्री महादेवेन्द्र गुरुभ्यो नमः ∬
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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❀ याज्ञवल्क्य महामुनि ❀
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नारायण ! अब अक्षर तत्त्व पर विचार करते हैं । अक्षर तत्त्व का अनुभव पाने के उपाय महर्षि याज्ञवल्क्य ने विदेहवासी मिथिलाधिपति जनक के द्वारा आयोजित ब्रह्मसभा में हाल ही में " कहोल मुनि को बताया था । इसलिये गार्गी द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर के क्रम में महर्षि ने अलग से उस अक्षर तत्त्व का अनुभव कैसे हो यह गार्गी को नहीं बताया था। उस तत्त्व का अनुभव पाने के उपाय क्या हैं सो बताते हैं :
1 . बालकपन - कामना आदि से रहित होना ।
2 . पण्डिताई - वेदान्तों के तात्पर्य का सविचार निश्चय कर लेना ।
3 . मौन - उक्त निश्चय का युक्ति व प्रमाणों से विरोध नहीं यह निर्धारित कर उस निश्चय का सतत प्रवाह बनाये रखना ।
नारायण ! यहाँ ध्यान देने योग्य है कि भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर स्वामी जी ने " पाण्डित्य " से श्रवण , " बाल्य " से मनन और " मौन " से निदिध्यासन को विवक्षित माना है क्योंकि रागादि को छोड़ना तभी सम्भव है जब श्रवणजन्य निश्चय प्राप्त हो जाये । तीव्र जिज्ञासा होने पर भी अनात्माकर्षण हो सकता है , अतः अर्थक्रम के अनुसार "बालकपन" को पहला साधन कह दिया है । अत एव मनन - निदिध्यासन को मौन में एकत्र करना पड़ा है ।
नारायण ! वस्तुतस्तु " वृद्धकुमारीवर " की कहावत के अनुसार महर्षि याज्ञल्क्य ने " वाचकन्वी गार्गी " को भी साधननिर्देश कर ही दिया है । कोई कुँवारी बुढ़िया थी जिसपर किसी कारण इन्द्रदेव प्रसन्न हो गये और उससे एक वर माँगने को कहा । उस चतुर वृद्धा ने वर मांगा " मेरे बहुतेरे पुत्र काँसे की थालियों में दूध पिया करे !" इस एक ही वर से उसने अपने सभी अभीष्ट माँग लिये । इसी प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्य महाभाग ने वाचकन्वी गार्गी से कहा " जो अक्षर को जानता है वह ब्राह्मण है । " " कहोल " प्रश्न में बताया था कि एषणात्यागादि मौननिर्वेद पर्यन्त साधनों के अनुष्ठान के बाद ब्राह्मण होता है । इस प्रकार यहाँ " ब्राह्मण " जिस विशेषतावश ब्राह्मण होता है उसका नाम है " ब्राह्मण्य " { ब्राह्मणता } जो प्रकृत में साक्षात्कार कहलाने वाली फलस्वरूप " ब्रह्मविद्या " ही है । फल का साधनों से निश्चित सम्बन्ध है , कि फल है तो साधन अवश्य हैं । एवं च फलावस्था " ब्राह्मण " शब्द से कहकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने वाचकन्वी गागी को भी वे साधन बता दिये जो स्वयं उन्हीं ने पहले " कहोल " को समझाये थे । तात्पर्य है कि साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म और अक्षर एक ही है ।
नारायण ! वाचकन्वी गार्गी के प्रति उपदेशसमाप्ति में याज्ञवल्क्य महर्षि ने बताया कि उक्त अक्षर दीखता नहीं , देखता है ; सुनाई नहीं देता , सुनता है, सोचा जा नहीं सकता , सोचता है ; अनुभव किया नहीं जा सकता , अनुभव करता है । इससे अन्य कोई द्रष्टा , श्रोता , मन्ता , विज्ञाता नहीं । इसीमें " आकाश " ओत - प्रोत है । लगभग इन्हीं शब्दों में " उद्धालक आरुणि " को अन्तर्यामी समझाने का उपसंहार किया था । यों पूर्वोक्त का पुनरुल्लेख क्यों ? इसका समाधान करते हैं - पूर्व में " गौतम " के { आरुणि के } द्वितीय प्रश्न का उत्तर देते हुए जिसे अन्तर्यामी कहा था , वही यह अक्षर है । उससे अन्य नहीं। यही स्पष्ट करने के लिये मुनिश्रेष्ठ ने पूर्वोक्ततुल्य वाक्य कहा । वाचकन्वी गार्गी को वास्तव में यह पूछना चाहिये था लेकिन उसने पूछा नहीं । अतः महर्षि को स्वयं स्पष्ट करना पड़ा ताकि इस बारे में कोई शंका रह न जाये कि शुद्ध आत्मा अक्षर है । माया रूप उपाधि से सृष्टि आदि करने पर वही अन्तर्यामी है । ये कोई अलग - अलग तत्त्व नहीं हैं । इस सारे संसार का वह साक्षी है । सभी दृश्य उसे नहीं विषय कर पाते । उससे अन्य कोई जीव भी नहीं जैसे भीत से घड़ा अन्य होता है । हे गार्गी ! साक्षी को अनुभूयमान जो यह आत्मा को ढाँकने वाला आकाश है , वही स्थूल - सूक्ष्मात्मक इस विक्षेप का कारण है और हमेशा इस अक्षर में ही प्रतिष्ठा पाये पाये रहता है ।
जैसे बादल से शीतल वर्षा होती है ऐसे ही कानों में लगी भेदवाणीश्रवणरूप दावाग्नि के उपशम का हेतु यह वाक्यरूप अमृत महात्मा याज्ञवल्क्य से गार्गी ने सुना जो अपने आप में एक आश्चर्य था । उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से भर गये , वह रोमांचित हो गयी और उसका मन प्रसन्न हो गया । कृपायुक्त हो वह ब्राह्मणों से कहने लगी –
हे बाह्मणों ! सभा में मैं अपने मन की पक्षपात रहित बात कहती हूँ , आप सुने । मैंने बहुतेरे पुरुष देखे हैं पर याज्ञवल्क्य के समान आज तक कोई नहीं देखा । कुछ लोग उजले महलों जैसे दूर से तो रमणीय होते हैं पर समझ - बूझ से वंचित हुआ करते हैं । अन्य पुरुष भारवाहकों के तुल्य होते हैं जिन्हें शास्त्र व अर्थ याद तो हैं लेकिन खुद उनके काम वह आ नहीं पाता। कुछेक का मुँह तोते - सा होता है , जो दूसरों का मन हर लेने वाले वचन ही जानते हैं , उन वचनों के तात्पर्य से अनभिज्ञ हैं । बहुत - से लोगों की आँखें कमल की पंखुड़ियों जैसी सुन्दर होती हैं लेकिन बेचारे हैं अंधों के समान क्योंकि वास्तविकता नहीं देख पाते । ऐसे भी हतभाग्य हैं वे जिन्हें देखते ही मन प्रसन्न हो जाये पर वे मानों चित्र में मढ़े हुए हैं , कुछ भी कार्य नहीं सम्पादित कर सकते । जैसे कुपथ्य खाना भला लगता है , पीछे पछताना पड़ता है , ऐसे भी कुछ लोग देखे : ये महाशय चार लोगों के सामने तो सदुपदेश देते हैं अतः आपाततः लगता है सुगारी हैं पर एकान्त में ऐसी शिक्षा दे देते हैं जो फलतः दुःखबी बो जाती है । कोई तो बाध की तरह दूसरों पर झपटते ही रहते हैं , अन्यों को पराभूत करने में ही यत्नशील होते हैं । अज्ञानरूप शराब से जिनकी बुद्धि असन्तुलित हो चुकी है , ऐसे बन्दर की तरह अतिचपल पुरुष भी मैंने देखे है । प्रायः लोग काम क्रोध आदि शत्रुओं में से किसी एक के या सभी के वशीभूत मिलते हैं। वेद - वेदाङ्गों में पारंगत , दैवीसंपत् को अभिलक्षित कर पैदा हुए ब्राह्मणादि भी सत्त्वादि गुणों के परवश ही दीखे , गुणों से अतीत कोई नहीं मिला । ऐसों के सोने और जगने में मुझे कोई अन्तर नहीं मिला ! ये हमेशा त्रिगुणात्मक अज्ञान की नीन्द में ही रहते हैं । यदि जगे होते तो निद्रारूप अविद्या मिट गयी होती । जन्म से और जगने से पहले जैसे ये जन्तु अज्ञान से आवृत थे बाद में भी वैसे ही आवृत रहते हैं । यों ये हमेशा ही सोय पड़े रहते हैं । देवी सम्पत् से त्रैवर्णिकों को जो कोई भी बोध होता है वह अज्ञाननिद्रा के रहते ही होता है क्योंकि " महावाक्य " से अन्य सभी प्रमाण " मूलाज्ञान " को केवल कुछ समय तक , सीमित परिप्रेक्ष्य में कार्य - अक्षम बना पाते हैं , उनका उच्छेद नहीं कर सकते । पद - वाक्यादि शास्त्रों के प्रामाणिक जानकारों की भी बुद्धि किसी - किसी विषय में ही उपचित होती है , परमात्मा के बारे में या उसके प्रतिपादक वेदान्तशास्त्र में भी उनकी बुद्धि की गति कहीं नहीं मिली । जिन महात्माओं में आत्मविषयक ज्ञान है वह भी प्रायः अधूरा ही मिला । जिन दुर्लम पण्डितों में सारा ज्ञान मिला उनमें भी वह प्रतिबद्ध होने से मूलाज्ञान का समापन रूप अपना फल नहीं पैदा कर पाया था । जैसे भुँजे हुए धान सफ़ल खेती के काम के नहीं , ऐसे ही कामना आदि से युक्त चित्तों में बनी आत्माकार वृत्ति भी फलप्रद हो ऐसा कहीं सम्भव नहीं । जीवों को बन्धक बनाये रखने वाली कारागृह अर्थात् जेल यह संसार ही है । यह जेल गिर न पड़े इसके लिये इसे जिस प्रधान खम्भे का सहारा है वह है अहघ्कार । उसी के सहायक स्तम्भ होते हैं काम - क्रोधादि । अतः कामादि की अपेक्षा अहङ्कार ही अधिक प्रतिबन्धक है । मुख्य स्तम्भ सुदृढ रहे तो जैसे घर गिर नहीं सकता ऐसे ही अहङ्कार { अनात्माभिमान } पुष्ट रहते संसार - कारागार समाप्त होना असम्भव है ।
नारायण ! वाचकन्वी गार्गी कहती है कि मुझे कोई जन्तु अहङ्कार से रहित नहीं मिला । विप्रों में कोई कामादि में से एक , या अकेक दोषों से रहित मिलते भी हैं किन्तु अहङ्कार से शून्य वेदज्ञ भी नहीं दीखते । हे ब्राह्मणो ! शास्त्र और निजी अनुभव से इन कामनादि की शत्रुता तो पता चल भी जाती है लेकिन अहङ्कार प्रभुख शत्रु है यह रहस्य ही बना रहता है, तभी तो शास्त्र पढ़े हुए अहङ्कारी देखे जाते हैं । अहङ्कार से इहलोक में कभी सुख नहीं मिलता । इस अहङ्काररूप दोष का सहारा लेना शराब के व्यसन जैसा है । यह तुरन्त विपरीतदर्शी बना डालता है । पिता , माता , देवता , बन्धु , मित्र , विद्वान् ब्राह्मण - इन सभी की अवज्ञा करने के लिये प्रेरित करना अहङ्कार का स्वभाव है । राज लोग काले नाग जैसे खतरनाक हुआ करते हैं ; महान् बुद्धिमान् त्रैवर्णिक भी सोये सपो। की तरह सावधानी से व्यवहार्य होते हैं ; किन्तु अहङ्कार के नशे में जन्तु हमेशा ऐसों का अनादर करने में तत्पर रहता है । जब बलशाली और समञाने वालों की ही यह हैठी करता है तब जो आदरणीय स्थावर हैं - अश्वस्थादि { पीपल वृक्ष आदि } , देवप्रतिमादि - उनका क्या सम्मान करेगा ! किन्तु प्रायः यही देखा जाता है कि अभिमानी को जल्दी ही प्राणान्ततुल्य दुःख यहीं मिल जाता है । अवज्ञाजन्य पाप से आगे तो " रौरव नरक " उसे जाना ही है ।
सावशेष ....
नारायण स्मृतिः
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