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Showing posts from November, 2017

* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २३ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २३ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! विगत दो दिवस से यह दिव्य सत्संग “ जनक – याज्ञवल्क्य संवाद “ का विराम था ! अब फिर चलते है उन गुरुदेव भगवान के सत्संग में जहाँ गुरुदेव भगवान अपने अन्तेवासी शिष्य को " जनक - याज्ञवल्क्य संवाद " सुना रहे हैं । आप सभी सत्संगी बन्धु पुनः इस दिव्य सत्संग गंगा में स्नान कर पुण्य के भागी बनें - नारायण ! गुरदेव भगवान् कहते हैं कि हे सौम्य ? जैन लोग " अनेकान्तवाद " के नाम से अव्यवस्थितता का प्रतिपादन करते हैं । वे कहते हैं कि किसी पदार्थादि के बारे में " वह है ही " या " नहीं ही है " यों निश्चित करना गलत है , उसे इकट्ठे ही 7 सात तरह के समझना चाहिये : वह है ; वह नहीं है ; उसे कह नहीं सकते ; वह नहीं है और उसे कह नहीं सकते , वह है और नहीं है और उसे कह नहीं सकते ! ये सातों एक - साथ हर चीज़ के बारे में समझने चाहिये ऐसी उनकी मान्यता है । इस दृष्टि के अनुसार किसी को " एक ही है " यों निर्धारित नहीं कर सकते , अतः एक की भी अनेकत...

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २० }

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन ! " ध्यानपूर्वक सुनना: वादि यदि चेतन मन की वह आत्मता मानता है जिसका हम विचार कर रहे हैं तो विचारणीय है कि उस वादि के अनुसार मन परिच्छिन्न है या व्यापक ? यदि परिच्छिन्न हो तो उससे अपंचीकृत महाभूत और खाये हुए अन्न की याद आयेगी ! { तात्पर्य है कि जो परिच्छिन्न है वह कार्य होता है और कार्य अपने कारण को याद दिलाता है। मन का कारण सूक्ष्म भूत और अन्न का सूक्ष्मांश है वह अन्नमय कहलाता है । यों जड का कार्य होने पर वह चेतन और आत्मा माना जाये यह गलत है । } परिच्छिन्न न मानकर यदि वादी कहे कि मन किसी देश - काल - वस्तु में नहीं है अर्थात् विभु है , अतः तीनों परिच्छेदों से रहित है; तब तो वह मन ही नहीं होगा वरन् विज्ञान - आनन्दरूप वाला यह स्वप्रकाश आत्मा ही होगा । इस त्रिलोकी में मन उसे कहते हैं जो तैजस अर्थात् सत्त्वप्रधान अन्तःकरण सैकड़ों संकल्पों के प्रति कारण बनता है । अपरिच्छिन्न पदार्थ को मन कहकर आपने ऐसी वस्तु तो कही नहीं...

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २१ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २१ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे ब्रह्मचारी ! " आत्मा स्वप्रकाश है मुनि याज्ञवल्क्य ने यह समझाने के लिये सब शरीरों में विद्यमान आत्मरूप परमेश्वर को स्वप्न में जिस तरह कर्ता बताया बताया वह ब्राह्मण वाक्यों में चार मन्त्रों में भी कहा गया है । महर्षि राजा को ब्राह्मण वाक्यों का शब्दादर्थ करते हुए उनके तात्पर्य को समझाते हुए कहते हैं : हे राजन् ! प्रथम ब्राह्मण मन्त्र है : स्वप्नावस्था द्वारा स्थूल शरीर को निश्चेष्ट बनाकर आत्मा अपने ज्ञानरूप से जगा रहता है । जाग्रत् से स्वप्न में जाते हुए वह इन्द्रियों की वासनायें साथ ले जाता है और संस्कारों से उत्पन्न विषयों का वहाँ अनुभव करता है । अकेला चलने वाला चेतनरूप पुरुष कर्मानुसार पुनः जाग्रदवस्था में अपना स्वप्रकाश स्वरूप लेकर आ जाता ह। इसका और स्पष्ट व्याख्यान कर देते हैं :   हे राजन् ! स्वप्न देखने के लिये पुरुष { आत्मा } स्थूलशरीर सम्बन्धी विषय - इन्द्रिय समूह को छोड़कर इन सब जड विषयों को देखता है जो तब मन से ...

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २० } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { २० } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन ! " ध्यानपूर्वक सुनना: वादि यदि चेतन मन की वह आत्मता मानता है जिसका हम विचार कर रहे हैं तो विचारणीय है कि उस वादि के अनुसार मन परिच्छिन्न है या व्यापक ? यदि परिच्छिन्न हो तो उससे अपंचीकृत महाभूत और खाये हुए अन्न की याद आयेगी ! { तात्पर्य है कि जो परिच्छिन्न है वह कार्य होता है और कार्य अपने कारण को याद दिलाता है। मन का कारण सूक्ष्म भूत और अन्न का सूक्ष्मांश है वह अन्नमय कहलाता है । यों जड का कार्य होने पर वह चेतन और आत्मा माना जाये यह गलत है । } परिच्छिन्न न मानकर यदि वादी कहे कि मन किसी देश - काल - वस्तु में नहीं है अर्थात् विभु है , अतः तीनों परिच्छेदों से रहित है; तब तो वह मन ही नहीं होगा वरन् विज्ञान - आनन्दरूप वाला यह स्वप्रकाश आत्मा ही होगा । इस त्रिलोकी में मन उसे कहते हैं जो तैजस अर्थात् सत्त्वप्रधान अन्तःकरण सैकड़ों संकल्पों के प्रति कारण बनता है । अपरिच्छिन्न पदार्थ को मन कहकर आपने ऐसी वस्तु तो कही...

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १९ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १९ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे सौम्य ! " महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि " हे राजन् ! " यदि मन को अनात्मा मानकर भी उसे चेतन कहो तो बताओ कि यह सभी कुछ जो अनात्मा है वह चेतन क्यों नहीं हो जायेगा ! भूत , भौतिक अर्थात् घटादि और मन - सभी में जब चैतन्य मानोगे , क्योंकि अनात्मा सभी हैं , तब मन का कार्य क्या रह जायेगा ? भूतादि के समान न भी चेतन हो तो जैसे एक दीपक को अन्य दीपक की ज़रूरत नहीं पड़ती वैसे ही भूतादि को मन की जरूरत नहीं होगी । { और मन घटादि की तरह निर्विवाद पदार्थ तो है नहीं ; क्रमिक ज्ञान कराने वाले आदि रूप से उसे सिद्ध करते हैं। जब घटादि स्वतः चेतन हैं तब उनके ज्ञान के लिये मन चाहिये ही नहीं तो मन नामक वस्तु ही " है " ऐसा नहीं माना जा सकता । } हमारे अनुभव का कोई प्रमाण इस बात में है नहीं कि सभी कुछ चेतन है । यदि कहो कि " आत्मा सर्वरूप है " आदि आगम इसमें प्रमाण है ; तो विचारणीय है कि यों बताने वाला आगम वाक्य अनुवादरूप है...

आत्मबोध

आत्मबोध के लिए सबसे बड़ी बाधा - मन विचार हैं जब तक मनुष्य मन से काम लेता रहता है तब तक वह अचेतना की स्थिति में मन के साथ अपने को जोड़ रहा है , इसलिये व्यक्ति को आभास नहीं होता कि वह मन का दास बन चुका है और मन के आधिपत्य को ही वह अपना अ स्तित्व मान बैठता है । अतः जैसे ही व्यक्ति को इसका अभिज्ञान हो जाता है ; वह मन के अधिपत्य से अर्थात् विचारों की निरन्तर श्रृंखलाओं से मुक्ति का प्रयास करता है और तदनुसार वह स्वतन्त्रा की पहली सीढ़ी पार कर चुका होता है । इसी क्षण चेतना की एक उच्च लहर उसकी सत्ता में जागृत हो उठती है जिससे यह अनुभूति होने लगती है कि विचारों { मन } के परे ज्ञान का एक विस्तृत साम्राज्य विद्यमान है । विचार तो उस महान् सामाज्य का अंश मात्र है । जब व्यक्ति यह जान लेता है कि सत्यतः सभी महत्वपूर्ण चीजों जैसे सुन्दरता , प्रेम , सृजनात्मकता , उल्लास - आनन्द और अन्तरशान्ति का स्रोत्र मन के परे है , तभी आत्मबोध की जागृति होती है । इस प्रकार मन { विचारों } से ऊपर उठना ही आत्मज्ञान है । आत्मज्ञान होने पर व्यक्ति सांसारिक कार्य - व्यहार के लिये आवश्यकतानुसार पहले से अधिक केन्द्रित और बाध्य...
!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १८ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! श्रीगुरुदेव भगवान् कहते हैं " हे सौम्य ! " उपनिषद् जिस आत्मा को पुरुष कहती है वह पुरुष वास्तव में ब्रह्मस्वरूप है लेकिन " पुर्यष्टक " से घिरकर यह बार - बार शरीरों को ग्रहण करता व छोड़ता है अर्थात् जन्मता - और मरता है । इसकी विहारभूमियाँ 2 दो ही बताई गयी है : { 1 } यह लोक अर्थात् प्रत्यक्ष होता हुआ यह स्थूल देह । { 2 } परलोक अर्थात् जहाँ अभी मौजूद है उससे भिन्न शरीरादि । यह बात महर्षि याज्ञवल्क्य राजा जनक को बताते हुए आगे कहते हैं : हे राजन् ! उसी आत्मा की तीसरी भोगभूमि स्वप्न है ऐसा कुछ लोग समझते हैं । विचारशील तो कहते हैं कि दोनों लोकों की संधि में उत्पन्न होने से वह तीसरा स्थान नहीं हो सकता जैसे दो गाँवों की संधि कोई तीसरा गाँव नहीं हो जाता । स्वप्न इहलोकरूप ही हो यह सम्भव नहीं क्योंकि उस अवस्था में पुरुष को इस स्थूल देह में स्फूट अभिमान नहीं रहता । देहवान् जब सपने में होता है तब यह स्थूल शरीर ज़मीन पर शव जैसा पड़ा हो तो भी वह इसे नहीं जानता ।...

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १७ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १७ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं - हे ब्रह्मचारी ! श्रुति ने आत्मा को " अन्तर्ज्योति " कहा है , इसका अभिप्राय मुनिवर्य श्री याज्ञवल्क्य राजा को जनक को समझाते हैं :   हे राजन् ! यह आत्मा आनन्दरूप परम पुरुष आत्मदेव " अन्तर्ज्योति " है। श्रुति ने ऐसा कहा है । घटादि वस्तुओं के प्रकाशक को ज्योति कहा जाता है और उनसे अन्य जो पदार्थ तैजस नहीं होते उन्हें " अज्योति " समझा जाता है । आत्मा को " ज्योति " इसलिये श्रुति ने कहा कि वह सबका प्रकाशक है - सूर्यादि ज्योतियों का भी और घटादि अज्योतियों का भी । चेतनरूप होने से वह इस सारे जडवर्ग से विलक्षण है । आत्मा को ज्योति ही नहीं " अन्तर् " भी कहा ; उसमें यह रहस्य है : शरीर से बाहर जो आदित्यादि ज्योतियाँ हैं वह ऐसी वस्तुओं को प्रकाशित करती हैं जिनकी सत्ता उन ज्योतियों की सत्ता से निरपेक्ष होती है । आत्मरूप ज्योति ऐसी नहीं । वह सभी का विवर्तोपादान या अधिष्ठान है , अतः सभी के " भीतर ...
!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १६ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! श्रुति में जो प्रश्न उठाया गया कि " आत्मा कौन सा है ? " और उत्तर दिया " जो यह विज्ञानमय प्राणों में है , हृदय के अन्दर ज्योतिरूप पुरुष है वह आत्मा है । " इसका व्याख्यान मुनि याज्ञवल्क्य विस्तार से कहते हैं । पूर्वोक्त ज्ञानप्रकाश का वर्णन सुनकर राजा जनक ने मुनिवर्य याज्ञवल्क्य से पूछा " हे ब्राह्मणदेवता ! इन शरीर - इन्द्रिय आदि में आत्मा कौन सा है ? " { पूछने से स्पष्ट है कि राजा पूर्वोक्त उत्तर सही नहीं समझा था वरन् उसने संघात के स्वरूप को ही ज्ञानरूप समझ लिया था अतः संघात में ही आत्मा का अवधारण कराने के लिये " इनमें से कौन आत्मा है ? " यों प्रश्न किया । } इस तरह जिज्ञासा व्यक्त की जाने पर मुनिश्रेष्ठ याज्ञवल्क्य ने राजा को ऐसे समझाया - हे राजन् ! आत्मा सब जन्तुओं को प्रसिद्ध ही है । " आत्मा " इस शब्द और " आत्मा " इस ज्ञान का विषय आत्मा है यह सब जानते हैं । वह केवल शब्द ही हो या " आत्मा ...
!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १५ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! मुनि स्वयं प्रश्न उठाते हुए स्वयं उत्तर भी देते हैं । वेदान्तों की यह प्रक्रिया है। प्रश्न था कि अभाव को अनुयोगिरूप मानने वालों का अनुसरण करने से अद्वैत नहीं सिद्ध होगा क्योंकि वे लोग { अनय वादी लोग } पदार्थों को स्वरूपतः भिन्न मानते हैं । इसका उत्तर है कि जितनी बात मानने लायक हो उतनी ही वादी से ग्रहण की जाती है , उसकी सारी मान्यतायें नहीं । साथ ही जो अकेला दही खाने से नुकसान होता है पर शक्कर मिलाकर खाने से लाभ होता है , इसी तरह श्रुतिसंमत तर्क रूप शक्कर { खाँड } मिला देने पर वादी की बात भी अद्वैतानुकूल हो जाती है । वेदान्तों में बताये अद्वैत अद्वैत को हृदयङ्गम बनाने के लिये परमत का उपयोग हो जाये तो हर्ज नहीं । प्रकृत में भी इसी तरह अद्वैत सिद्ध होगा यह बताते हैं : घट को जब बाकी सब का अभाव कहते हो तो अभाव भी घटस्वरूप से भिन्न नहीं रह पायेगा । जब घट सब का अभाव है तब घट से भिन्न होकर भाव - अभाव कुछ भी रहेगा कैसे ? सबका अभाव मौजूद है तो सब भी रहें यह संभव नही...

: जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १४ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !! █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ * : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { १४ } ~~~ █░░░░░░░░░░░░░░░░░░░█ नारायण ! गुरुदेव भगवान् कहते हैं कि " हे सौम्य ! " अब महर्षि याज्ञवल्क्यक राजा जनक के सामने ज्ञानों की परीक्षा करेंगे क्योंकि ज्ञान यदि स्वप्रकाश यदि सिद्ध हुए तो वे ही श्रुतिप्रसिद्ध आत्मा होंगे और यदि वे अन्य द्वारा प्रकाशित होने वाले होंगे तो उनका प्रकाशक आत्मा निश्चित हो जायेगा । इसी अभिप्राय से बोध के बारे में अब मुनि विचार करते हुए राजा से कहते हैं – हे राजन् ! ज्ञान यदि स्वयंप्रकाश हैं तो उनमें भेद कैसे ? { घटादिविषयक ज्ञान या वृत्तिरूप माने जायेंगे तो परप्रकाश्य होंगे और या चिद्रूप होने से स्वयं प्रकाश होंगे । जिस पक्ष में वे स्वयं प्रकाश हैं तब प्रश्न होगा कि ज्ञानों का आपसी भेद कैसे सिद्ध होता है - क्या खुद से सिद्ध होता है या किसी अन्य से ? खुद भेद तो स्वयं को सिद्ध करेगा नहीं क्योंकि जड है । यदि जिसमें भेद है वह ज्ञान ही उस भेद को सिद्ध करने वाला मादा चाहो तो भी बनेगा नहीं : भेदज्ञान के लिये ज़रूरी है प्रतियोगी और अनुयोगी का ज्ञान अर्थात् जिसम...