!! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ११ } ~~~
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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
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नारायण ! दयानिधान गुरुदेव अपने शिष्य को बताते हैं कि " हे सोम्य ! " महर्षि मिथिलापति से अब तक बताया कि चेतन परमात्मा एक है और उसकी समष्टि - उपाधि एवं व्यष्टि - उपाधियाँ भी अभिन्न हैं । अब समझाते है कि चेतन और जड परस्पर सद्वितीय नहीं हैं । यह संगत करने के लिये दृश्य { जड } को मिथ्या सिद्ध करना होगा जिसके लिये स्पष्ट समझना चाहिये कि जड केवल चेतन से प्रकाशित होता है । आत्मा सीधे तो मन को प्रकाशित करता है , अन्य सब वह मन को द्वार बनाकर प्रकाशित करता है । इस बात की भूमिका महर्षि याज्ञवल्क्य बनाते हुए बताते हैं - स्थूलों की समष्टि रूप चित्र जिस फलक पर बनता है वह है सूत्र अर्थात् सूक्ष्मों की समष्टि और स्थूल - व्यष्टि रूप चित्र भी जिस फलक पर बनता है वह सूक्ष्म - व्यष्टि अर्थात् मन । दीपक यदि चित्राधारभूत फलक को प्रकाशित करे तो फलक पर बना चित्र भी प्रकाशित हो जाता है । आत्मा भी जब जगत् - चित्र के आधारभूत मन को प्रकाशित करता है तब मन आधारारित जगद्रूप चित्र भी प्रकाशित होता ही है । यहाँ " मन " से व्यष्टि व समष्टि { सूत्र } दोनों समझने चाहिये । भूत व भूतकार्य - इन रूपों वाले सूत्र और विराट् का प्रकाशक अव्याकृतोपाधिक ईश्वर है जो किसी और से प्रकाश्य नहीं है । साक्षात् वह सूत्र को प्रकाशित करता है और उसके द्वारा विराट् को । इसी तऱह " अज्ञानी है " यों अज्ञान का आश्रय बना जीव - साक्षी सूक्ष्म व स्थूल शरीरों से अप्रकाशित रहते हुए ही सीधे सूक्ष्म शरीर या मन को और उसके द्वारा स्थूल शरीर को प्रकाशित करता है । { प्रकाश्य का तादात्म्याध्यास होने पर ही वह प्रकाशित होता है । अतः शरीर आत्मा से प्रकाशित हैं तो उस पर अध्यस्त ही हो सकते हैं अतः मिथ्या है यह भाव है }
हे राजन् ! आत्मा में संसारिता मन रहते ही उपलब्ध होती है , न रहने पर उपलब्ध नहीं होती । मन न रहना तीन तरह होता है - समष्टि प्रलय होने पर , कारण में विलीन होने पर और अधिष्ठान - अवशेष रहने पर । यह स्फुट करते हैं : लोकदृष्ट है कि भोजनादि पकाने के लिये जलायी आग इन्धन समाप्त होने पर तेजःसामान्य { तेज रूप महाभूत } में विलीन हो जाती है । इसी तरह हिरण्यगर्भ आदि के उपासकों को जब फल मिलने का मौका आता है तब वे अध्यात्म का परिच्छेद छोड़कर अधिदैव से एक होते हैं और उनके मनों का विलय सूत्र में { समष्टि - मन में } हो जाता है । इस अधिदेवभाव की प्राप्ति को मुक्ति और अतिमुक्ति पहले कह चुके हैं । यह मनोलय का एक प्रकार है ।
हे राजन् ! कारण में लीन होना दूसरी तरह का लय है । जब मन का अभाव होता है , तब भी संसारिता की उपलब्धि नहीं रह जाती । जैसे राख से डकी आग जलाने आदि का कार्य नहीं कर पाती लेकिन राख हटा देने पर वही आग अपने उचित सभी कार्य को कर लेती है , वैसे ही सुषुप्ति और मृत्यु की स्थिति में जन्तुओं का मन भोग देने वाले कर्म न होने से प्रतिबद्ध हो जाते हैं अतः सृष्टि आदि नहीं करते और फिर से कर्म फलोन्मुख होते हैं तो जो मन विलीन { प्रतिबद्ध } थे वे ही स्वप्न व जाग्रत् में सृष्टि आदि करने लग जाते हैं । यहाँ मन अग्नि की तरह और भोग्यकर्माभाव राख की जगह है । संसार का अनुभव न होना समान होने पर भी कारण रूप से मन बने रहते हैं और कालान्तर में मुनः कार्यकारी होते हैं अतः अभिभूतमनस्कता को मोक्ष नहीं समझ सकते । आधिदैविक अभिमान भी न होने से अतिमुक्ति आदि शाब्दित मोक्ष भी यह नहीं हो सकता ।
तीसरे तरह का लय है अधिष्ठानमात्र रह जाना । तब जो मन का अभाव है वह मोक्ष का प्रयोजक है । आग जब सारे उपलब्ध ईंधन को जला कर स्वयं बुझ जाती है तब मंऩ आदि करने पर भी वही आग दुबारा कभी नहीं जल पाती । इस तरह विवेकादि साधनों से भरा - पूरा मन जब तत्त्वज्ञान रूप आग बन जाता है , अखण्डवृत्ति वाला हो जाता है , तब कार्यसमेक अविद्या रूप ईंधन को क्षणमात्र में जला डालता है । तदनन्तर अन्य प्राणी भले ही जन्म का अनुभव करें , वह मुक्त को जन्मानुभ नहीं करता । { चित का { मन का} स्थूलशरीर से संयोग होने से स्थूल देह में तादात्भ्याभिमान होना जन्म है । जब आत्मा में अभिमान समाप्त हो गया तब तद्रूप जन्म संभव नहीं । अन्य मनोयोगों से अन्य प्राणियों के जन्मादि यहाँ बहुजीववाद को सामने रखकर कहे हैं , मुख्य वेदान्त सिद्धान्त एकजीववाद है , तदनुसार अप्रतिब्ध तत्त्वनिष्ठा होने पर फिर किसी का भी जन्म नहीं होता । }
हे सौम्य ! महर्षि ने राजा को सुस्पष्ट समझा दिया कि मन न रहने पर संसार नहीं रहता। अब समझाते हैं कि मन रहते संसार रहता ही है । मन हो तो आत्मा स्वप्न में सूक्ष्म और जाग्रत् में स्थूल सृष्टि उत्पन्न कर लेता है । मुनि इसे सोदाहरण बताते हैं - ग्रीष्म ऋतु में रात्रि के समय बिना किसी ईंधन के तेजस्तत्त्व सब देहधारियों को गर्मी से सन्तप्त करता है किन्तु प्रकाश नहीं दे पाता । इसी तरह स्वप्नावस्था में मनरूप विशेषण वाला आत्मा , लौकिक सामग्री के बिना ही स्वयं के द्वारा ही भाव - अभावरूप यह विश्व पैदा कर लेता है । { स्वप्नसिद्ध पदार्थ बाहरी उपादानादि कारणों के बिना बन जाते हैं इसीलिये वे सूक्ष्म कहलाते हैं और यही कारण है कि वे मिथ्या होते हैं । }
यह लोकदृष्ट है कि शिशिर ऋतु में वह्नि जन्तुओं को अनुभूयमान ठण्ड मिटाती है पर इस के लिये उसे ईंधन की जरूरत पड़ती है और जलती आग जन्तु के निकट हो यह भी आवश्यक होता है । ऐसे ही आत्मा जाग्रत् दशा में इस सारे संसार को उत्पन्न करता है पर इसके लिये उसे स्थूल देह में आश्रित होना पड़ता है और देश - काल आदि की भी उसे आवश्यकता रहती है , इसके बिना वह जागरण में कार्यकारी नहीं हो पाता । " भगवान् श्री बादरायण " ने स्वप्न के मिथ्यात्व को दृष्टान्त बनाकर जाग्रत् को मिथ्या सिद्ध किया है , अतः स्वप्न व जाग्रत् में समानता अवश्य है । स्वप्न में अनुकूल या प्रतिकूल रूप से अनुभूयमान विश्व मन ही बन जाता है तो जाग्रत् में भी यह सब बनने वाला मन ही है इसमें संशय नहीं । { मन ही दृश्य बन जाता है से तात्पर्य है कि दृश्य मिथ्या ही हैं । यह जैसे स्वप्न में वैसे जाग्रत् में भी है । " मन " शब्द से अज्ञान भी समझ सकते हैं क्योंकि किसी प्रक्रिया में स्वप्न पदार्थ मन के नहीं अज्ञान के विकार हैं । } जैसे स्वप्न में इस मन की वृत्ति क्षीण होने पर घटादि विभिन्न विषय अर्थात् स्वाप्न सद्वय प्रपञ्च अनुभव में नहीं आता वैसे ही जाग्रदवस्था में भी मनोनिरोध हो तो द्वैत उपलब्ध नहीं होता । सभी प्राणियों को अनुभूत है कि सपने में जब मन शत्रुरूप या मित्ररूप { या उदासीनरूप } परिणाम को प्राप्त होता है तभी द्वेष , राग { या उपेक्षा } वृत्तिया बनती हैं अतः उनका हेतु कोई और नहीं वरन् संकल्प { अर्थात् मन } ही है । इसी तरह जाग्रत् में भी इष्ट - अनिष्ट आदि के बारे में होने वाले ये राग , द्वेष आदि , मन के संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं न कि किन्हीं बाहरी उपकरणों से । { संकल्प के क्रम के कारण ही हमें पूर्व कल्पित में कारणबुद्धि व अनन्तर कल्पित में कार्यबुद्धि हो जाती है और बार - बार अनुभव करने से हम दृश्यों को स्थिर मान लेते हैं । यों स्वप्न से जाग्रत् में प्रतीयमान भेद भी मनःकल्पित ही है, विचार करें तो दोनों में अन्तर नहीं । } देहधारी जाग्रत् में जितना विविध सुखप्रद या दुःखप्रद प्रपञ्च देखता है उतना ही सारा प्रपञ्च सपने में भी होता है । अतः विविधता या भोगप्रदता को लेकर स्वप्न - जाग्रत् संसारों में भेद नहीं मान सकते । स्थिर अर्थात् निश्चित कार्य - कारणता वाले होने से जाग्रत् पदार्थ स्वाप्न वस्तुओं से अलग किये जा सकें ऐसा भी नहीं क्योंकि स्वप्न में सुख - दुःख देने वाले स्वाप्न पदार्थ जाग्रत् में उन सुखादि को नहीँ दे पाने से जैसी अपनी कार्यकारिता में व्यभिचारी हैं ऐसे ही जाग्रत् के पदार्थ स्वप्न में अपने नियत कार्य न करने से व्यभिचारी ही हैं । { अर्थात् सपने के पदार्थ यदि जाग्रत् में कार्यकारी न होने से मिथ्या हैं तो जाग्रत् के पदार्थ सपने में कार्यकारी न होने से मिथ्या क्यों नहीं ? अवस्था तो जैसे जाग्रत् है वैसे स्वप्न भी । } जाग्रत् में जो मित्रादि पदार्थ सुखप्रद हो जाते हैं वे ही वियोगादि कालमें दुःखप्रद हो जाते हैं। यही स्थिति स्वप्न के पदार्थों की है । अतः दृश्य वस्तुओं को स्थिर कहना बनता नहीं। जाग्रत् व स्वप्न के पदार्थों में यह अन्तर हो कि उनकी कारणसामग्री विभिन्न है ऐसा भी नहीं कह सकते , क्योंकि जैसे जागरणावस्था में शरीर शुक्र - शोणित से पैदा होता है , ऐसे ही सपने में भी जन्तुओं के शरीर रज - वीर्य से ही उत्पन्न होते हैं । जैसे शुक्र - शोणित स्वप्न में असत्य होते हैं ऐसे ही वे जाग्रत् में भी असत्य होते हैं । श्रुतिभगवती ने सारे कार्य को " कहने पर आधारित " बताया है अर्थात् कार्य केवल कहने भर को है , वास्तविक नहीं । असत्य पदार्थों में भी परस्पर कार्य - कारणभाव भ्रम से समझा जाये यह संगत है क्योंकि सपने में पदार्थों में ऐसा ही देखा जाता है । सपने में भी पिता , माता , पुत्र , भाई आदि होते ही हैं जैसे जाग्रत् में । अतः दोनों अवस्थाओं के पदार्थों में स्वरूपभूत अन्तर कैसे कहा जाये ? ।
इस प्रकार महर्षि राजन् से कहते हैं कि " हे राजन् ! मन रहते ही प्रपञ्च है , मन न रहने पर प्रपञ्च भी है नहीं , अतः जाग्रत् हो या स्वप्न , स्थूल - सूक्ष्म इस सारे प्रपञ्च का कारण मन ही है । संसार में अनुभूयमान जीव - ईश्वर आदि सारे ही भेद मन से ही निर्मित है , जिस भेदानुभव से आत्मा बारम्बार प्रमाद कहलाने वाली मृत्यु को प्राप्त होता है । इसीलिये मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण समझना चाहिये क्योंकि बन्ध - मोक्ष भी प्रपञ्च से निरूपित होने के कारण प्रपञ्च के अन्तर्गत ही आते हैं । जब मन को आत्मविषयक अज्ञान का अभिमान होता है तब वह अध्यासरूप बन्धन की स्थिति में हेतु बनता है । जभ मन को भेददर्शन का अभिमान होता है तब आध्यात्मिक आदि त्रिविध दुःखों का वह हेतु बन जाता है । जब मन आत्मा के वेदान्तप्रोक्त स्वप्रकाश - आनन्दरूप को जानता है तब वह जन्तु के मोक्ष का भी कारण बनता है । सावशेष ......
नारायण स्मृतिः
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