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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : * ~~~ { ४ } ~~~

!! श्री गुरुभ्यो नमः !!

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* : जनक - याज्ञावल्क्य संवाद : *
~~~ { ४ } ~~~

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नारायण ! गुरुदेव भगवान् अपने शिष्य को बताते है कि " हे सौम्य ! " महातपस्वी , महाऐश्वर्यशाली सूर्य के छात्र महर्षि याज्ञवल्क्य मिथिलाधिपति जनक को सम्बोधित करते हुए बाते हैं कि इन्द्र - इन्द्राणी के परस्पर संगम के लिये एकान्त प्रोकोष्ट के समान अध्यात्म में हृदयाकाश है , जिसे कहीं - कहीं वेद ने " महेश्वर " कहा है । वेदविचारक उसे ही सुषुप्ति का स्थान भी बताते हैं । कर्णिका के आकार में स्थित जो यह हृदयाकाश का लाल पिण्ड है वही इन्द्र - इन्द्राणी का अन्न है । { लाल मांसपिण्ड में अन्नदृष्टि करनी चाहिये । कर्णिका अर्थात् नोकीला हिस्सा ।} हृदय कमल है तो उसके केसर की तरह हैं अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियाँ । वे आपस में गुँथी हुई हैं , जिससे मानो एक जाल बन गया है । वही इन्द्र- इन्द्राणी के ओढने का कपड़ा है ऐसा ध्यान करना चाहिये । शरीर में हृदय से मूर्धा तक गयी नाडी है सुषुम्ना , जो शरीर से ऊपर ब्रह्मलोक तक जाती है ऐसा प्रसिद्ध है । हृदय में जाने और वहाँ से आने के लिये इन्द्रदम्पति का राजमार्ग यही नाडी है । इसके द्वारा जीव जब शरीर से बाहर निकलता है तब अर्चिरादि देवयान पथ से जाता है और जब तक शरीर से बाहर नहीं निकलता तब तक सुषुम्ना की ही अवयवभूत अन्यान्य नाडियों से नयनादि स्थलों पर जाता आता है । सुषुम्ना की मानो शाखायें हों एसी सैकड़ों सुसूक्ष्म नसें हैं । उनकी सूक्ष्मता का दृष्टान्त तब सम्भव हो जब एक केश हजार बार काटा जा सके ! इन्द्राणी - समेत इन्द्र सुषुम्ना या उसकी शाखानाडियों से हृदय में पहुँचे तो सुषुप्ति अवस्था प्राप्त करता है और नाडियों में ही रह जाये तो स्वप्न की अवस्था में रह जाता है। स्वप्न देखने वाले तैजस का भोग्यभूत बुद्धिरूप शरीर नाडियों में विद्यमान सूक्ष्म अन्नरस से पुष्ट होता है , अतः सूक्ष्म होता है और तैजस सूक्ष्मभूक् या सूक्ष्म आहार वाला कहा जाता है । नाडियों में होने पर स्वप्न देखने वाले तैजस नामक जीव की अपेक्षा हृदय में स्थित होकर सुषुप्तिगत प्राज्ञ नामक जीव तैजस की अपेक्षा भी और ज्यादा सूक्ष्म आकार वाला होता है , अतः उसे " सूक्ष्मतर आहार वाला " कहा । यद्यपि जाग्रत् या स्वप्न की तरह सुषुप्ति में यह स्पष्ट नहीं कि किसी आहार का उपभोग है तथापि उस अवस्था में जीवोपाधिभूत बुद्धि संस्काररूप से रहती ही है , इसलिये भोग वाले विश्व - तैजस के समान ही प्राज्ञ को आहार कहते हैं । { तीनों अवस्थायें बुद्धिरूप उपाधि वाले आत्मा अर्थात् जीव की हैं । आहार 
{ भोग्य} के परिणाम की सूक्ष्मता के आधिक्य से तीन अवस्थाओं में बुद्धि तीन रूपों वाली होती है । विवरण में स्पष्ठ किया है कि सुषुप्ति में जीव- ईश्वर विभाग तो बना ही रहता है । प्राज्ञ का समष्टिरूप ईश्वर है और उस दृष्टि से वह असंसारी कह दिया जाता है । वस्तुतः तत्त्वनिष्ठापर्यन्त अवस्थायें रहते संसारिता बनी रहती है । } जाग्रत में दायीं आँख में ठहर कर स्थूल { एवं सूक्ष्म } विषयों को आत्मदेव भोगता है । नाडी आदि मार्गों से चित्तष्थानभूत हृदयकमल के कोनों में मौजूद होने पर वही आत्मदेव तैजस नाम पाकर सूक्ष्म विषयों का उपभोग करता है । वही इन्द्र जब अपनी प्रिया इन्द्राणी सहित हृदयकमल के मध्यवर्ती दहरादि नाम छिद्र में पहुँच जाता है , तब " सत् " कहलाने वाले भूमतत्त्व से तादात्म्य प्राप्त कर स्वयम्प्रकाश आनन्दरूप जाता है । अतः सामान्य अर्थ में उसे तब भोक्ता नहीं कह सकते । फिर भी उस समय दुःख नहीं सुख है , इसी से औपचारिक प्रयोग हो जाता है कि प्राज्ञ आनन्द का भोग करता है । कर्णिका के आकार का लाल पिण्ण { हृदय } आनन्दभुक् का अन्न कह दिया जाता है लेकिन उसका अभिप्राय यह नहीं कि वह पिण्ड तब आत्मा का भोग्य है । वह कऩ तो एक रूपक बनाकर किया गया है ताकि बाह्य ज्ञानों में अत्यन्त अस्थिर हुए इस मन को इस परमात्मतत्त्व में स्थिर किया जा सके । सुषुप्त पुरुष को कोई भी विषय अनुभव - घटादिविषय से विशेषित ज्ञान - होता नहीं तो उसे भोग कैसे होगा , क्योंकि सुख या दुःख को विषय करना ही भोग है ? इसलिये जैसे " आनन्दभूक् " गौणप्रयोग है , वैसे ही सुषुप्त को जो " अधिक सूक्ष्म आहार वाला " कह दिया है वह भी गौण ही है । सुषुप्तिदशा में विशेषों को विषय करने करने वाले अनुभव विलीन हो जाते हैं , अतः तमोऽभिभूत हुआ जीव स्वयं अपने को भी उस समय बुद्धिवृत्तियों से विस कर जानता नहीं । इससे स्पष्ट है कि आनन्दरूप आत्मा सुषुप्ति में भोक्ता है नहीं , भोक्ता की तरह भले ही उसका व्यवहार हो जाता है । 

हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य कहते हैं कि पूर्ववर्णित इन्द्ररूप महेश्वर जब हृदयाकाश में रहता है तब लाल हृदयपिण्ड उसके अन्न की जगह होता है और नसों का जाल उसके वस्त्र की जगह होता है । सुषुप्ति से पूर्व इन्द्र को ईश्वर से लगातार अलग रखने वाले जो प्राण सीर में दसों दिशाओं के सम्बन्ध से दस तरह उपस्थित रहते हैं , वे सुषुप्ति में कारण में- प्राज्ञ में , जिसे भगवती श्रुति ने " प्राण " कह दिया है उसमें विलीन होते हैं । पूर्व - पश्चिम आदि सभी दिशाओं के रूप में कारण ही तो मौजूद हैं अतः दिशाएँ कारण से अभिन्न हैं । इसलिये प्राण कारण से एक होने पर दिशारूप हो जाते हैं यह कहना उचित है। सुषुप्त की दृष्टि से प्राणसमेत सकल संसार विलीन है फिर भी अन्यों को तो प्राण अनुभूयमान रहता है । अत एव प्राज्ञ को प्राण शब्द से कह दिया जाता है । देवराज इन्द्र दिक् पाल हैं - सभी दिशाओं के मालिक हैं , दिशाओं को प्रिय होने से मानो अपना प्राण ही मानते हैं । अतः दिशाएँ जैसे उनके प्राण हैं वैसे अध्यात्म इन्द्र के भी वे प्राण हो जाते हैं। इतना अन्तर जरूर है कि अध्यात्म इन्द्र तो वास्तव में जगत्कारण है । अतः सारी दिशाओं से अर्थात् आधिभौतिक पदार्थों से और सारे प्राणों से अर्थात् आध्यात्मिक पदार्थों से अभिन्न ही है क्योंकि लोक में भी कार्यों का कारण से अभेद प्रसिद्ध है । स्वर्गराज का दिशाओं से यों अभेद नहीं , वह तो उनका केवल अभिमान ही है । { स्वर्गराजता की उपाधि के परित्याग से तो वे भी प्राज्ञ ही रह जाते हैं , यह भाव है } हृदयाकाश में स्थित होने वाला पुरुष सारे जगत् का कारण है । चारों तरह के प्राणिदेह , पाँचों महाभूत , उनके स्थूल { सत् } सूक्ष्म { असत् } सभी परिणाम , दिक्, काल आदि सारा प्रपञ्च उसी सच्चिदानन्द से उपजता है । निरवयव होने से बादल , बिजली आदि से सर्वथा विलक्षण आकाश जैसे मेघादि का कारण बन जाता है , ऐसे ही सच्चिदानन्द आत्मा असत्य - जड - दुःख का कारण बन जाये तो कोई आश्चर्य नहीं ।

हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य महर्षि कहते है कि हे राजन ! जिस पुरुष को जाग्रदवस्था में " इन्ध" बताया , हृदयाकाश में रहने पर जो दिग्रूप प्राणात्मक मूर्ति वाला होता है { अर्थात् सर्वरूप होने से कारण है}, वही सनातन पुरुष तुम्हारे लिये गन्तव्य है । यही तुम हो , मैं हूँ तथा अन्य जन्तु हैं । देहादि के अन्तर से यही विभिन्न प्रतीत होता है जैसे घट आदि से आकाश बँटा हुआ प्रतीत होता है । घोर संसार से डरने वाले को चाहिये कि हमेशा इस परम महेश्वर परमात्मा को जानने का प्रयास करे । इस तक पहुँचने वालों के लिये इसका साक्षात्कार ही " राजमार्ग " है , क्रिया आदि अन्य कोई उपाय इसकी प्राप्ति का नहीं है । यह मन - वाणी से विषय नहीं किया जा सकता । न मैं इसे सीधे - सीधे बता सकता हूँ न तुम समझ पाओगे ! इसलिये मैं यों समझाता हूँ : 

हे राजन् ! मेरे उपदेश में तुम उसे यह न समझ लेना कि वह " भावरूप " है अर्थात् उसका विधिमुख { विधायक पदों द्वारा , निप्रतियोगिक स्वरूप के बोधक शब्दों से } निरूपण हो सकता है क्योंकि वह " अतद्व्यावृत्ति " से समझा जाने लायक है , क्या - क्या परमात्मा नहीं है , यह समझ लेने पर परमात्मा खूद - व - खूद भास जाता है । लेकिन यह भी मत मान लेना कि यह कोई अभाव ही है ! यह तो भाव - अभाव से विलक्षण है । आकाश न मेघादि कहा जा सकता है , न यही कह सकते हैं कि मेघादि का अभाव आकाश है , ऐसे ही आत्मा न विश्व ही है और न विश्व का अभाव ही । रज्जु की प्रमा हो जाने पर जैसे साँप अपने कारणभूत अज्ञान सहित रज्जु में ही मानो विलीन हो जाता है , ऐसे ही भाव - अभावरूप विश्व अपने कारण सहित आत्मा में ही विलीन होता है जब आत्मा की अप्रतिबद्ध प्रमा हो जाती है । यह परमात्मतत्त्व बाह्य - आन्तर इन्द्रियों से कभी विषय नहीं किया जा सकता , वे इसे किसी तरह विषय करने में समर्थ नहीं , अतः यह अगृह्य अर्थात् अग्राह्य है । लोक में देखा जाता है कि प्रमाणों का विषय वही बनता है जो किसी करण द्वारा ग्राह्य है । करण से ग्रहण न किये जाने वाली वस्तु प्रमाण का विषय हो ऐसा कहीं नहीं देखा गया । जो पदार्थ हमेशा इन्द्रियों से अतीत हो वह मन से समझा जाता ही है ; यदि ऐसा न मानें तो " यह वस्तु इन्द्रियातीत है " यही ज्ञान कैसे होगा ? { व्याप्ति , शब्द आदि को सहायता मिलने पर मन इन्द्रियातीत को भी विषय कर लेता है यह मानना पड़ता है । " मन ग्रहण करता , विषय करता है " से समझना चाहिये कि मन उपाधिक आत्मा अर्थात् साक्षी उन्हें विषय करता है । } । सावशेष ......

नारायण स्मृतिः

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